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शनिवार, 28 मार्च 2009

किसका चुनाव और किसके लिए चुनाव ??

चुनाव की चारों तरफ़ बहार है। क्या युवा..क्या बूढे सभी चुनावी रंग में रंगे हुए हैं। हर किसी को लगता है कि वह जिस दल को वोट देगा वही सत्ता में आयेगा। राजनीति में युवा चेहरों की इस बार ज्यादा पूछ है। राहुल गाँधी से लेकर वरुण गाँधी तक चर्चा में हैं तो प्रिया दत्त से लेकर तमाम युवा महिलाएं चुनाव में अपना भाग्य अजमा रही हैं। कहीं फिल्मी सितारे तो कहीं क्रिकेट सितारे मानो चुनाव नहीं मेला चल रहा हो। हर प्रत्याशी को अपनी जीत का भरोसा है तो हर मतदाता को अपने मत पर। इन सबसे परे एक ऐसा भी वर्ग है जो लम्बी-लम्बी बातें तो करता है, पर मतदान में उसकी कोई रूचि नहीं है। उसे लगता है की वह लोकतंत्र रूपी पायदान के सबसे शीर्ष पर है , जहाँ से वह या तो बौधिक बहस करता है या फतवे जारी करता है। इस चुनावी लोकतंत्र में हर किसी की अपनी भूमिका है और हर किसी का अपना मूल्य (?) भी। व्यक्ति से बड़े जाति-धर्म हो गए हैं, तभी तो ऐन वक्त तक प्रत्याशी बदले जा रहे हैं। अब इन राजनेताओं को कौन समझाए कि यह पब्लिक है, जो सब कुछ जानती है। चुनाव आयोग ने दीवालों पर नारे लिखना मन कर दिया तो अख़बारों की चाँदी हो गई। यहाँ हर कुछ मैनेज होता है, बस आपको ढंग आना चाहिए। एक वो है जो दिखता है, तो एक वो है जो दीखता नहीं, आखिर चुनाव आयोग भी क्या-क्या देखे ? बस यूँ समझिये कि चुनाव है और फ़िर पॉँच साल के लिए भूल जाना है। आप मत किसी को देते हैं, सरकार किसी की बनती है। सत्ता के लिए सारे सिद्धांत गौण हो जाते हैं, फ़िर किसका चुनाव और किसके लिए चुनाव....विचार करें ???

बुधवार, 25 मार्च 2009

गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ (पुण्य तिथि-२५ मार्च पर)

साहित्य की सदैव से समाज में प्रमुख भूमिका रही है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में विद्यमान क्रान्ति की ज्वाला क्रान्तिकारियों से कम प्रखर नहीं थी। इनमें प्रकाशित रचनायें जहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक मजबूत आधार प्रदान करती थीं, वहीं लोगों में बखूबी जन जागरण का कार्य भी करती थीं। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ साहित्य और पत्रकारिता के ऐसे ही शीर्ष स्तम्भ थे, जिनके अखबार ‘प्रताप‘ ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभायी। प्रताप के जरिये न जाने कितने क्रान्तिकारी स्वाधीनता आन्दोलन से रूबरू हुए, वहीं समय-समय पर यह अखबार क्रान्तिकारियों हेतु सुरक्षा की ढाल भी बना।

गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को अपने ननिहाल अतरसुइया, इलाहाबाद में हुआ था। उनके नाना सूरज प्रसाद श्रीवास्तव सहायक जेलर थे, अतः अनुशासन उन्हें विरासत में मिला। गणेश शंकर के नामकरण के पीछे भी एक रोचक वाकया है- उनकी नानी ने सपने में अपनी पुत्री गोमती देवी के हाथ गणेश जी की प्रतिमा दी थी, तभी से उन्होंने यह माना था कि यदि गोमती देवी का कोई पुत्र होगा तो उसका नामकरण गणेश शंकर किया जायेगा। मूलतः फतेहपुर जनपद के हथगाँव क्षेत्र के निवासी गणेश शंकर के पिता मुंशी जयनारायण श्रीवास्तव ग्वालियर राज्य में मुंगावली नामक स्थान पर अध्यापक थे। गणेश शंकर आरम्भ से ही किताबें पढ़ने के काफी शौकीन थे, इसी कारण मित्रगण उन्हें ‘विद्यार्थी‘ कहते थे। बाद में उन्होंने यह उपनाम अपने नाम के साथ लिखना आरम्भ कर दिया। विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पिता जी के स्कूल मुंगावली, जहाँ वे एंग्लो-वर्नाकुलर मिडिल स्कूल में अध्यापक थे, में हुई। विद्यार्थी जी उर्दू, फारसी एवं अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। 1904 में उन्होंने भलेसा से अंग्रेजी मिडिल की परीक्षा पास किया, जिसमें पहली बार हिंदी द्वितीय भाषा के रूप में मिली थी। तत्पश्चात पिताजी ने विद्यार्थी जी को पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करने के लिए बड़े भाई शिवव्रत नारायण के पास कानपुर भेज दिया। कानपुर में आकर विद्यार्थी जी ने क्राइस्ट चर्च कालेज की प्रवेश परीक्षा दी पर भाई का तबादला मुंगावली हो जाने से आगे की पढ़ाई फिर वहीं हुई। वर्ष 1907 में विद्यार्थी जी आगे की पढ़ाई के लिए कायस्थ पाठशाला गये। इलाहाबाद प्रवास के दौरान विद्यार्थी जी की मुलाकात ‘कर्मयोगी‘ साप्ताहिक के सम्पादक सुन्दर लाल से हुई एवं इसी दौरान वे उर्दू पत्र ‘स्वराज्य‘ के संपर्क में भी आये। गौरतलब है कि अपनी क्रान्तिधर्मिता के चलते ‘स्वराज्य‘ पत्र के आठ सम्पादकों को सजा दी गई थी, जिनमें से तीन को कालापानी की सजा मुकर्रर हुई थी। सुन्दरलाल उस दौर के प्रतिष्ठित संपादकों में से थे। लोकमान्य तिलक को इलाहाबाद बुलाने के जुर्म में उन्हें कालेज से निष्कासित कर दिया गया था एवं इसी कारण उनकी पढ़ाई भी भंग हो गई थी। सुन्दरलाल के संपर्क में आकर विद्यार्थी जी ने ‘स्वराज्य‘ एवं ‘कर्मयोगी‘ के लिए लिखना आरम्भ किया। यहीं से पत्रकारिता एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ती गई।

इलाहाबाद से गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ कानपुर आये एवं इसे अपनी कर्मस्थली बनाया। कानपुर में कलकत्ता से अरविंद घोष द्वारा सम्पादित ‘वन्देमातरम्‘ ने विद्यार्थी जी को आकृष्ट किया एवं इसी दौरान उनकी मुलाकात पं0 पृथ्वीनाथ मिडिल स्कूल के अध्यापक नारायण प्रसाद अरोड़ा से हुई। अरोड़ा जी की सिफारिश पर विद्यार्थी जी को उसी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई। पर पत्रकारिता की ओर मन से प्रवृत्त विद्यार्थी जी का मन यहाँ भी नहीं लगा और नौकरी अन्ततः छोड़ दी। उस समय महावीर प्रसाद द्विवेदी कानपुर में ही रहकर ‘सरस्वती‘ का सम्पादन कर रहे थे। विद्यार्थी जी इस पत्र से भी सहयोगी रूप में जुड़े रहे। एक तरफ पराधीनता का दौर, उस पर से अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार ने विद्यार्थी जी को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने पत्रकारिता को राजनैतिक चेतना को जोड़कर कार्य करना आरम्भ किया। इसी दौरान वे इलाहाबाद लौटकर वहाँ से प्रकाशित साप्ताहिक ‘अभ्युदय‘ के सहायक संपादक भी रहे। पर विद्यार्थी जी का मनोमस्तिष्क तो कानपुर में बस चुका था, अतः वे पुनः कानपुर लौट आये। कानपुर में विद्यार्थी जी ने 1913 से साप्ताहिक ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया प्राण फूँका बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया जो सारी हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। प्रताप प्रेस में कम्पोजिंग के अक्षरों के खाने में नीचे बारूद रखा जाता था एवं उसके ऊपर टाइप के अक्षर। ब्लाक बनाने के स्थान पर नाना प्रकार के बम बनाने का सामान भी रहता था। पर तलाशी में कभी भी पुलिस को ये चीजें हाथ नहीं लगीं। विद्यार्थी जी को 1921-1931 तक पाँच बार जेल जाना पड़ा और यह प्रायः ‘प्रताप‘ में प्रकाशित किसी समाचार के कारण ही होता था। विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, पर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चैरी-चैरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से प्रतिनिधियों के बारे में नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता ’पुष्प की अभिलाषा’ प्रताप अखबार में ही मई 1922 में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।

विद्यार्थी जी एक पत्रकार के साथ-साथ क्रान्तिधर्मी भी थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने काकोरी षडयंत्र केस के अभियुक्तों के मुकदमे की पैरवी करवायी और जेल में क्रान्तिकारियों का अनशन तुड़वाया। कानपुर को क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाने में विद्यार्थी जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, विजय कुमार सिन्हा, राजकुमार सिन्हा जैसे तमाम क्रान्तिकारी विद्यार्थी जी से प्रेरणा पाते रहे। वस्तुतः प्रताप प्रेस की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। बनारस षडयंत्र से भागे सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं0 राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली। भगत सिंह ने तो ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक कार्य किया। सर्वप्रथम दरियागंज, दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए भगत सिंह ने दिल्ली की यात्रा की और लौटकर ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया। चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भंेट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया। जरूरत पड़ने पर विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की माँ की मदद की और रोशन सिंह की कन्या का कन्यादान भी किया। यही नहीं अशफाकउल्ला खान की कब्र भी विद्यार्थी जी ने ही बनवाई।

विद्यार्थी जी का ‘प्रताप‘ तमाम महापुरूषों को भी आकृष्ट करता था। 1916 में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे। 1925 के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान विद्यार्थी जी स्वागत मंत्री रहे और जवाहर लाल नेहरू के साथ-साथ घोड़े पर चढ़कर अधिवेशन स्थल का भ्रमण करते थे। यह विद्यार्थी जी ही थे जिन्होंने श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद‘ को प्रताप प्रेस में रखा एवं उनके गान ‘राष्ट्र पताका नमो-नमो‘ को ‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा‘ में तब्दील कर दिया। विद्यार्थी जी सिद्धांतप्रिय व्यक्ति थे। एक बार जब ग्वालियर नरेश ने उन्हें सम्मानित किया और कहा कि मुझे खुशी है कि आपके पिताजी मेरे अंतर्गत मुंगावली में कार्यरत रहे हैं, परन्तु आप मेरे बारे में अपने अखबार में लगातार विरोधी खबरें छाप रहे हैं। तो विद्यार्थी जी ने निडरता से कहा कि मैं आपका और पिताजी के आपसे सम्बन्धों का सम्मान करता हूँ, परन्तु इसके चलते अखबार के साथ अन्याय नहीं कर सकता। हाँ, यदि आप इन खबरों का प्रतिवाद लिखकर भेजेंगे तो अवश्य प्रकाशित करूँगा।

कालान्तर में विद्यार्थी जी गाँधीवादी विचारधारा से काफी प्रभावित हुए एवं यह उनकी लोकप्रियता का भी सबब बना। वे क्रान्तिकारियों एवं गाँधीवादी विचारधारा के अनुयायियों के लिए समान रूप से प्रिय थे। इस बीच अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया तो भारतीय जनमानस आगबबूला हो उठा। अंगे्रजी निर्दयता के विरूद्ध जनमानस सड़कों पर उतर आया। निडर एवं साहसी व्यक्तित्व के धनी तथा साम्प्रदायिकता विरोधी विद्यार्थी जी इस दौरान भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगों को शान्त कराने के लिए लोगों के बीच उतर पड़े। उधर विद्यार्थी जी के प्रताप से अंग्रेजी हुकूमत भी भयभीत थी। रायबरेली में मुंशीगंज गोली काण्ड के तहत ‘प्रताप‘ पर मानहानि का केस चल रहा था और अंग्रेज बार-बार यह संदेश दे रहे थे कि जब तक कानपुर में ‘प्रताप‘ जीवित है, तब तक प्रदेश में शान्ति स्थापना मुश्किल है। भड़की हिंसा को काबू करने के दौरान 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अन्तिम संस्कार कर दिया गया पर ‘प्रताप‘ के माध्यम से ‘विद्यार्थी‘ जी ने राजनैतिक आन्दोलन, क्रान्तिकारी चेतना, क्रान्तिधर्मी पत्रकारिता एवं साहित्य को जो ऊँचाईयाँ दीं, उसने उन्हें अमर कर दिया एवं इसकी आंच में ही अन्ततः स्वाधीनता की लौ प्रज्जवलित हुई।
कृष्ण कुमार यादव

सोमवार, 23 मार्च 2009

कोई भी रोक नहीं पाया भगत सिंह की फांसी (शहादत-दिवस पर विशेष)

इतिहासकारों के बीच आज भी इस बात को लेकर विवाद है कि क्या भगत सिंह को बचाया जा सकता था? क्या उन्हें गांधी ने मार डाला? क्या वाकई बापू और अन्य बड़े नेता भगत सिंह के इंकलाबी तेवर और लोकप्रियता से डर गए थे? दरअसल शहीदे आजम की मौत अपने पीछे एक ऐसा सवाल छोड़ गई है जिसे सुलझाया नहीं जा सका है। और शायद जिसे कभी सुलझाया जा भी नहीं सकेगा।

लाहौर षड्यंत्र केस में 23 मार्च 1931 को जब 23 वर्षीय भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को सूली पर लटकाया गया तो इसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनी गई। ब्रिटिश हुकूमत के इस कुकृत्य की जहां तत्कालीन भारतीय नेताओं ने जमकर आलोचना की, वहीं देश-विदेश के तमाम अखबारों ने भी इसे सुर्खियां बनाया। फांसी 24 मार्च को दी जानी थी। लेकिन जनविद्रोह के डर से ब्रिटिश हुक्मरानों ने तिथि चुपके से बदलकर 23 मार्च कर दी। बिपिन चंद्र द्वारा लिखी गई भगत सिंह की जीवनी 'मैं नास्तिक क्यों हूं' में इस घटना पर तत्कालीन नेताओं और अखबारों द्वारा व्यक्त की गई तीखी टिप्पणियां सिलसिलेवार ढंग से दर्ज हैं।

-'..यह काफी दुखद और आश्चर्यजनक घटना है कि भगत सिंह और उसके साथियों को समय से एक दिन पूर्व ही फांसी दे दी गई। 24 मार्च को कलकत्ता से कराची जाते हुए रास्ते में हमें यह दुखद समाचार मिला। भगत सिंह युवाओं में नई जागरूकता का प्रतीक बन गया है।' [सुभाष चंद्र बोस]
-'मैंने भगत सिंह को कई बार लाहौर में एक विद्यार्थी के रूप में देखा। मैं उसकी विशेषताओं को शब्दों में बयां नहीं कर सकता। उसकी देशभक्ति और भारत के लिए उसका अगाध प्रेम अतुलनीय है। लेकिन इस युवक ने अपने असाधारण साहस का दुरुपयोग किया। मैं भगत और उसके साथी देशभक्तों को पूरा सम्मान देता हूं। साथ ही देश के युवाओं को आगाह करता हूं कि वे उसके मार्ग पर न चलें।' [महात्मा गांधी]
-'हम सबके लाड़ले भगत सिंह को नहीं बचा सके। उसका साहस और बलिदान भारत के युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है।' [जवाहर लाल नेहरू]
-'अंग्रेजी कानून के अनुसार भगत सिंह को सांडर्स हत्याकांड में दोषी नहीं ठहराया जा सकता था। फिर भी उसे फांसी दे दी गई।' [वल्लभ भाई पटेल]
-'भगत सिंह ऐसे किसी अपराध का आरोपी नहीं था जिसके लिए उसे फांसी दे दी जाती। हम इस घटना की कड़ी निंदा करते हैं।' [प्रसिद्ध वकील और केंद्रीय विधानसभा सदस्य डीबी रंगाचेरियार]
-'भगत सिंह एक किंवदंती बन गया है। देश के सबसे अच्छे फूल के चले जाने से हर कोई दुखी है। हालांकि भगत सिंह नहीं रहा लेकिन 'क्रांति अमर रहे' और 'भगत सिंह अमर रहे' जैसे नारे अब भी हर कहीं सुनाई देते हैं।' [अंग्रेजी अखबार द पीपुल]
-'पूरे देश के दिल में हमेशा भगत सिंह की मौत का दर्द रहेगा।' [उर्दू अखबार रियासत]
-'राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह की मौत से पूरे देश पर दुख का काला साया छा गया है।' [आनंद बाजार पत्रिका]
-'जिस व्यक्ति ने वायसराय को इन नौजवानों को फांसी पर लटकाने की सलाह दी, वह देश का गद्दार और शैतान था।' [पंजाब केसरी]
(साभार: दैनिक जागरण)

मंगलवार, 10 मार्च 2009

रंग-बिरंगी होली आई (बाल कविता)

होली आई, होली आई
रंग-बिरंगी होली आई
आओ पाखी, आओ बंटी
मिलजुल सभी मनाएं होली
पाखी ने भर ली पिचकारी
आई देखो किसकी बारी
उसने सबको ही रँग डाला
लाल, गुलाबी, नीला, काला
आई अब गुलाल की बारी
संग में गुझिया की तैयारी
सब मिलजुल गुझिया खाएं
पाठ प्यार का रोज पढ़ाएं
मिलजुल बन जाएं हमजोली
ऐसी प्यारी है यह होली !!!
कृष्ण कुमार यादव

शनिवार, 7 मार्च 2009

21वीं सदी में स्त्री समाज के बदलते सरोकार ( अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर)

भारत में नारी को पूजनीय माना गया है। वैदिक काल से ही नारी विभिन्न रूपों में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त करती आ रही है। नारी की सुकोमलता, सौंदर्य, लज्जा व स्नेहिल स्वभाव सदैव से इसके आभूषण रहे हैं पर दुर्भाग्यवश इन्हीं गुणों के कारण उसके साथ बार-बार छल भी हुआ है। समाज की सामन्तवादी सोच ने नारी की आन्तरिकता की उपेक्षा कर उसकी भौतिक काया एवं बाहरी रूप-रंग को ही आधार बनाया । आज जहाँ पुरूष की शुचिता उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के आधार पर मापी जाती है, वहीं नारी की शुचिता अंग विशेष के आधार पर मापी जाती है।

प्राचीन काल से ही जहाँ नारी को एक तरफ समाज में प्रतिष्ठा मिली, वहीं दूसरी तरफ वह बर्बरता का शिकार हुयी । तुलसीदास ने तो नारी को ताड़ना का अधिकारी बताकर पशु के समकक्ष खड़ा कर दिया- ‘‘ढोल, गँवार, शूद्र, पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’’ मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने पत्नी सीता के अग्निपरीक्षा में खरे उतरने के बाद भी एक धोबी के कहने पर धोखे से अपनी पत्नी को घर से निर्वासित कर दिया । सती-प्रथा की आड़ में तमाम नवयुवतियों को मृत पति के साथ चिता में जिन्दा भस्म कर दिया गया । तमाम राजाओं की हैवानियत तब तक पूरी नहीं होती थी जब तक वे पराजित राजाओं की रानियों को अपने हरम का हिस्सा नहीं बना लेते थे। जौहर-प्रथा इसी का नतीजा थी । यह सब तो बीते युग की बातें हैं, वर्तमान दौर में भी इस तरह की व्यथायें देखी और सुनी जा सकती हैं। बिहार से मुसहर जाति की एक सांसद को टी0 टी0 ने ट्रेन के वातानुकूलित कोच से परिचय देने के बावजूद इसलिये बाहर निकाल दिया क्योंकि वह वेश-भूषा से वातानुकूलित कोच में बैठने लायक नहीं लगती थीं। याद कीजिये दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों द्वारा गाँधी जी को टेªन के प्रथम श्रेणी डिब्बे से बाहर निकालने का दृश्य। राजस्थान में ‘साथिन’ नामक संस्था से जुड़ी भँवरी देवी ने जन-जागरूकता का बीड़ा उठाया तो हश्र्र बलात्कार के रूप में सामने आया। देवदासी प्रथा के नाम पर कुंवारी कन्या को भगवान के दरबार में सौंप देना और तत्पश्चात मन्दिर के पुरोहित द्वारा कन्या के साथ संभोग करना जैसी घटनायें भी कुछेक देशों में देखी जा सकती हैं। पंचायत संस्थाओं में निम्न वर्ग की महिलाओं को आरक्षण मिलने के साथ ही देश के कई क्षेत्रों में निर्वाचित सरपंचों के साथ बद्सलूकी की घटनायें अखबारों की सुर्खियाँ बनी । मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में हुआ ‘सती काण्ड’ अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है । इक्कीसवीं सदी की ओर उन्मुख राष्ट्र की गर्वोक्ति घोषणाओं के साथ ही अखबारों में नित्य नाबालिगों के साथ दुष्कर्म की घटनायें छपती रहती हैं। मुम्बई की लोकल टेªन में एक वहशी द्वारा पाँच-छः यात्रियों के सामने एक बालिका से बलात्कार करना और उन यात्रियों का चुप-चाप तमाशा देखना क्या इंगित करता है ? सभ्य समाज का दर्जा पा चुकने के बाद भी घर की महिलाओं से बलात्कार कर बदला चुकाने का पाशविक अंदाज नहीं बदला है। विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र एवम् लोकतन्त्र व सभ्यता के स्वयंभू रक्षक अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी अपने कार्यालय की एक अदना सी महिला कर्मचारी मोनिका लेविंस्की के साथ अंतरंग क्षणों का लोभ नहीं छोड़ सके। एक सभ्य समाज की ये असभ्य घटनायें हमें कहाँ लेे जा रही हैं ?

आधुनिक समाज संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है। आाधुनिकता के नाम पर सफलता हेतु शार्टकट रास्ते अपनाना, स्वतन्त्रता के नाम पर उन्मुक्तता का पक्ष- पोषण करना इसकी विशेषतायें बन चुकी हैं । ‘आई डोन्ट केयर’ की संस्कृति फलने-फूलने लगी है। शारीरिक वर्जनायें खत्म होती जा रही हैं । गली- मुहल्लों में तेजी से बढ़ता सौन्दर्य का बाजार, ब्यूटी-क्वीन प्रतियोगिताओं की भरमार, कुछ ही समय में सब कुछ पा लाने की महत्वाकांक्षा, विज्ञापन के नाम पर नारी माॅंडलों के शरीर का प्रदर्शन, फिल्मों और धारावाहिकों में रिश्तों के तेजी से टूटने का प्रचलन एवम् कम होते कपड़े किस आाधुनिकता व स्वतंत्रता के परिचायक हैं? क्या भारतीय संस्कृति अपनी मूल आस्थाओं को छोड़कर उस पाश्चात्य संस्कृति की तरफ उन्मुख हो रही है, जहाँ बात-बात में नारी स्वतन्त्रता के नाम पर छाती उधाड़ देना फैशन बन गया है?

इस संक्रमण काल के बीच 21वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षो में एक ऐसा वर्ग उभरा जो अपनी मुक्ति शारीरिक वर्जनाओं को तोड़ने में नहीं अपितु खोखली सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ने में देखता है। इनकी शक्लो-सूरत ओर हैसियत पर मत जाईये। ये न तो फेमिनिस्ट के रूप में नारी आन्दोलनों से जुड़ी हैं और न पश्चिमी देशों की उन नारियों की तरह है जो स्वतंत्रता के नाम पर अपनी छाती उघाड़कर प्रदर्शन करती हैं। न ही इनके साथ किसी बड़े घराने या काॅरपोरेट जगत या राजनैतिक दल का नाम जुड़ा हुआ है और न ही ये कोई बड़े-बड़े दावे करती हैं। ये वो महिलायें हैं जो हमारे पास-पड़ोस की और हमारे बीच की हैं, जिनसे हम न जाने कितने बार रूबरू हुए होंगे पर हमंे उनकी खासियत का पता ही नहीं। एक लम्बे समय से धर्मशास्त्रों और रूढ़ियों के नाम पर इन्हें यही बताया जाता रहा कि फला काम तुम्हारे लिए वर्जित है और यदि तुम ऐसा करने का प्रयास करोगी तो तुम्हारे ऊपर अपशकुन व ईश्वरीय प्रकोप का खतरा मंडरायेगा। पर ये औरों से अलग हैं क्योंकि वर्जनाओं को तोड़कर एक अलग लीक बनाना ही इनकी खासियत है। पाश्चात्य सभ्यता के समर्थक कुछ लोगों को नारी स्वतंत्रता का रास्ता दैहिक वर्जनाओं को तोड़ने और उन्मुुक्तता में दिखा। नतीजन, गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह सौंदर्य प्रतियोगिताओं के आयोजन, माॅडल बनने की होड,़ फिल्मों में काम पाने हेतु सर्वस्व न्यौछावर कर देने वालों की बढती भीड़ .... पर समाज का यह वर्ग ऐसा है जो अभी भी सिर से पांव तक पूरे कपड़े पहने अपनी बौद्धिकता और जीवटता के दम पर समाज की रूढ़िगत वर्जनाओं को तोड़ने का साहस रखता है।
कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस की लड़कियों ने तमाम रूढ़िगत वर्जनाओं और परम्पराओं को बहुत पीछे धकेल कर कुछ नये मानदण्ड स्थापित किये हैं। कर्मकाण्ड का सबसे प्रमुख तत्व पुरोहिती है और पांडित्य में बनारस का कोई सानी नहीं। प्राचीन काल से ही यहाँ के पंडितों ने दुनिया भर में अपनी धाक जमाई है। प्राचीनकाल में जहाँ लोमशा एवं लोपामुद्रा आदि नारियों ने ऋग्वेद के अनेक सूक्तों की रचना करके और मैत्रेयी, गार्गी, शाश्वती, घोषा, अदिति इत्यादि विदुषियों ने अपने ज्ञान से तब के तत्वज्ञानी पुरूषों को कायल बना रखा था, उसी परम्परा मंे अब पुरूष पुरोहितों की परम्परा को बनारस की लड़कियों ने तोड़ दिया है। तुलसीपुर स्थित पाणिनी कन्या महाविद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उतीर्ण कई लड़कियाँ अब लोगों के विवाह करवा रही हैं और यह जरूरी नहीं कि वे ब्राह्मण ही हों। महाविद्यालय की आचार्या नंदिता शास्त्री बड़े गर्व से बताती हैं कि विवाह कराने के लिये उनकी छात्राओं को बनारस ही नहीं वरन् दूर-दूर से लोग आमंत्रित कर रहे हैं। हैदराबाद में बसी यहाँ की पूर्व छात्रा मैत्रेयी को वैदिक रीति से विवाह कराने के लिए अमेरिका तक से आमंत्रण आ चुके हैं। जब इन छात्राओं ने आरम्भ में यह कार्य आरम्भ किया तो इनका विरोध करने के लिए परम्परागत पंडितांे ने वर व कन्या पक्ष को शास्त्रों से उद्धरण देकर काफी भड़काया पर अब वही पंडित इन लड़कियों का लोहा मानने लगे हैं। कारण- मंत्रों का शुद्ध उच्चारण, उसकी सम्यक व्याख्या और वैवाहिक संस्कार की सभी रस्मों का पालन करवाने में लड़कियाँ परम्परागत पंडितों से कहीं आगे हैं। आम तौर पर कम पढ़े-लिखे पंडित विवाहों में शुद्ध मंत्र का उच्चारण तक नहीं कर पाते। अब ये छात्रायंे विवाह ही नहीं शांति यज्ञ, गृह प्रवेश, मंुडन, नामकरण और यज्ञोपवीत भी करा रही हंै। ऐसा नहीं है कि यह क्रांतिकारी बदलाव सिर्फ बनारस तक ही सीमित है वरन् देश के अन्य भागों में भी इस बदलाव को महसूस किया जाने लगा है। औद्योगिक महानगर कानपुर में कानपुर विद्या मंदिर डिग्री काॅलेज की प्राचार्या डाॅ0 आशारानी राय वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं। उन्होंने जब छात्राओं को सार्वजनिक रूप से वेद पाठ आरम्भ कराया तो व्यापक विरोध भी झेलना पड़ा। यहाँ तक कि एक शंकराचार्य ने इसे वेद विरूद्ध तक घोषित कर दिया। पर आशारानी ने हार नहीं मानी और नतीजन आज उनकी तमाम छात्रायें कर्मकाण्ड कराने लगी हैं। हरिद्वार में कनखल स्थिति माँ योग शक्ति धाम की अधिष्ठाता माँ योग शक्ति ने अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल की साध्वी माँ ज्योतिषानन्दन को जगद्गुरू शंकराचार्य के समकक्ष पार्वत्याचार्य की उपाधि से अलंकृत किया तो गुस्साये साधु सन्तों ने किसी महिला को यह उपाधि देने के विरोध में जमकर हंगामा किया।

सिर्फ घरेलू कर्मकाण्डों तक ही क्यों, माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने का साहस भी इन लड़कियों ने किया है, जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई। इस दिशा में सुनीति गाडगिल ने अलख जगाई जिन्होंने विवाह, पूजा, यज्ञ आदि करवाने में ही भूमिका नहीं निभाई वरन् श्राद्ध कर्म भी करवाकर मिसाल कायम की। बनारस के ही पाण्डेयपुर क्षेत्र की निवासी तनू उर्फ वन्दना जायसवाल, मंडुवाडीह की लक्ष्मीणा देवी, नगर निगम के सफाईकर्मी रहे गोलगड्ढा निवासी मुन्ना की विधवा बीदा देवी और भेलूपुर की महिला चित्रकार और विदेश में कला की प्रोफेसर रहीं डाॅ0 अलका मुखर्जी ने परिवार में किसी अन्य पुरूष सदस्य के न रहने पर अपनी माँ, पिता और पति का अंतिम संस्कार धार्मिक क्रियाओं के बीच विधिवत सम्पन्न किया। वन्दना जायसवाल ने घंट इत्यादि बाँधकर नित्य घाट पर अपनी माँ का तर्पण भी किया। अब तो इस सामाजिक बदलाव की बयार का असर देश के अन्य भागों में भी दिखाई पड़ने लगा। तभी तो कानपुर की डाॅ0 आशारानी राय महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार सम्पन्न कराने से नहीं हिचकतीं। अपने पिता और श्वसुर का अंतिम संस्कार भी स्वयं उन्होंने ही सम्पन्न किया। यही नहीं कुछेक समय पहले तक प्रयाग के रसूलाबाद घाट पर महाराजिन बुआ नामक महिला श्मशानघाट में वैदिक रीति से अंतिम संस्कार सम्पन्न कराती थीं। राजस्थान के भीलवाड़ा में एक 72 वर्षीया विधवा की मृत्यु पर उसकी सात बेटियों ने मिलकर अर्थी को कंधा दिया तथा अंतिम संस्कार के लिये चिता को मुखाग्नि दी और पिण्डदान किया। परिवार में बेटों के न होने पर लोगों ने बड़े दामाद से मुखाग्नि दिलवाने का प्रयास किया पर सातों बेटियों ने कहा कि- ‘‘उनकी माँ ने बेटा न पैदा होने पर बेटियों को ही बेटों की तरह पाला तथा किसी भी तरह की कमी नहीं होने दी।’’ हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की दलित महिला प्रेमी देवी ने तो अपने पति की अर्थी को बेटों को कन्धा तक नहीं लगाने दिया और अर्थी को कंधा देने की जिद करने पर उन्हें धक्के मारकर घर से निकाल दिया। उसने कहा कि मेरे पति के जिन्दा होने पर इन बेटों ने कभी हमारी सेवा नहीं की और न ही रोजमर्रा के खर्च के लिये कोई इन्तजाम किया और ऐसे में पति का निर्देश था कि- ‘‘इन अवारा कलयुगी बेटों को मेरी अर्थी में कंधा न लगाने दिया जाये।’’ अंततः अर्थी को दोनों बहुओं व पड़ोस की दो अन्य औरतों ने कंधा दिया और मुखाग्नि उसके चार पोतों ने दी। इसी प्रकार गोरखपुर स्थित सहजनवां के दीनदयाल उपाध्याय महिला विद्यालय में स्नातक की विकलांग छात्रा बुधवन्त सिंह ने अपने पिता की अर्थी को अपने हाथों से सजाया और कंधा देने वालों के अभाव में ठेले पर रखकर श्मशान घाट ले जाकर विधिवत मुखाग्नि देकर अपना कर्तव्य निभाया। बाँदा में निर्मला गर्ग नामक महिला ने पुत्र के होते हुए भी अपने पति की चिता को आग दी तो शाँहजहापुर में पेशे से इंजीनियर शिप्रा नामक लड़की ने सगाई के अगले ही दिन दिवंगत हुए अपने पिता की अर्थी को न केवल मेंहदी रचे हाथों से कांधों पर धरा बल्कि उन्हें मुखाग्नि देकर रूढ़ियों को भी ललकारा। धार्मिक मान्यताओं पर विश्वास करें तो अंतिम संस्कार कोई भी सम्पन्न करा सकता है किन्तु अदृश्य की उत्पत्ति का अधिकार शास्त्रों में पुत्र और पौत्र के अलावा राजा व ब्राह्मण को ही होता है। भले ही धर्म के पुरोधा मानंे कि शवदाह के बाद का काम ब्राह्मण ही करेगा वरना आत्मा भटकेगी और अगले जन्म में शरीर का अंग-प्रत्यंग भी ठीक-ठाक नहीं होगा पर इन महिलाओं की मानें तो यह पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच है जो सारे पुण्य अकेले ही लूटना चाहता है। हिमाचल प्रदेश की घटना समाज के सामने यह भी सवाल खड़ा करती है कि अपने माँ-बाप की देखरेख न करने वाले बेटों को धार्मिक मान्यताओं के नाम पर माँ-बाप की अर्थी में कंधा देने का क्या नैतिक अधिकार है? निश्चिततः उस निरक्षर दलित महिला ने इसी बहाने माँ-बाप के प्रति संतानों को दायित्व बोध का पाठ भी पढ़ाया।

याद कीजिये ‘बीबी हो तो ऐसी’ फिल्म में नायिका रेखा का घोड़ी पर सवार होकर दूल्हे के द्वार बारात ले जाना। इस फिल्मी कथानक को भी लड़कियों ने हकीकत में बदल दिया। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई यानी भोलेनाथ की नगरी में गंगा एक बार फिर उल्टी बही। इस सब के पीछे कश्यप फिल्म एण्ड टेलीविजन रिसर्च इन्स्टीट्यूट के निदेशक डा0 डी0एल0कश्यप की प्रमुख भूमिका रही, जिन्होंने अपने तीन बेटों और दो बेटियों के हाथ बनारस के घमहापुर गाँव में एक साथ एक ही मण्डप में पीले किये। अभी तक दहेजलोलुप दूल्हों को लड़कियों द्वारा विवाह मण्डप से बाहर निकालने या शराबी दूल्हे के साथ विवाह करने से इन्कार करने जैसे उदाहरण ही सामने आये हैं पर परम्पराओं को दरकिनार करते हुए डा0 कश्यप के तीनों बेटों से विवाह करने उनकी दुल्हनें घोड़ी पर सवार होकर मय बारात उनके दरवाजे आयीं जहाँ दूल्हे के पिता ने बहुओं की आगवानी की तथा उन्हें घोड़ी से उतारकर उनका पाँव पूजा। जबकि परम्परा है कि लड़की का पिता दूल्हे का पाँव पूजता है। प्रतीकात्मक द्वारपूजा के बाद दुल्हनों को मंच पर महाराजा कुर्सी पर बिठाया गया और फिर दूल्हे राजा मंच पर आये। लड़की वालों की ओर से निभाये जाने वाले सभी रस्मोरिवाज लड़कों के पिता ने पूरे किये। इस विवाह में न तो कोई मंत्र पढ़ा गया और न ही सात फेरों के साथ कसमें खायी गयीं, अपितु सिर्फ जयमाल व सिन्दूरदान हुआ। इसी प्रकार जयपुर में कानून की छात्रा रही दो जुड़वा बहनें अपनी शादी के अवसर पर निकाली जानेवाली ‘बिन्दौरी’ में घोड़ी पर सवार होकर निकलीं। उनका मानना था कि- ‘‘यह क्रांतिकारी कदम दर्शाता है कि हमारे समाज में लड़के-लड़कियों में कोई भेद-भाव नहीं है।’’ उ0प्र0 के जौनपुर में जब शादी पश्चात एक लम्बे समय तक पति अपनी विवाहिता को लेने नहीं पहुँचे तो कुछेक लड़कियाँ खुद ही बारात (गौना) लेकर पतियों के दरवाजे पहुँच गयीं। यही नहीं आधी आबादी की प्रतीक नारियों ने अब अनचाहे दूल्हों को दरवाजे से लौटाना भी आरम्भ कर दिया है। गाय की बछिया समझकर किसी के भी हाथ में पगहा पकड़ा देने वाले माता-पिता की पगड़ी की लाज की खातिर, सामाजिक संस्कारों के बोझ तले दबकर अपना भविष्य बर्बाद करने की बजाय तमाम लड़कियों ने दहेज लोभी, शराबी, उम्रदराज इत्यादि जैसे दूल्हों को निडरता से दरवाजे से लौटाने में संकोच नहीं किया।

सामान्यतः शादी योग्य लड़कियांे के लिये लड़के ढूँढ़ने का काम पुरूष वर्ग का माना जाता रहा है पर लखनऊ के अमीनाबाद में रहने वाली नीलम पाण्डे 1996 से इस कार्य को सहजता के साथ कर रही हैं और अब तक उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई हैं। नीलम बेबाक रूप में स्वीकारती हैं कि- ‘‘वर्तमान परिवेश में शादी को लेकर सबसे बड़ी समस्या यह है कि दस काबिल लड़कियों पर मुश्किल से एक लड़का ढूँढ़ने पर मिलता है।’’ शायद यही कारण है कि तमाम लड़कियों ने अब अयोग्य वरों को शादी के मण्डप से बाहर निकालना आरम्भ कर दिया है। दुल्हन के वेश में सजी-धजी बैठी ये लड़कियाँ किसी ऐसे व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में नहीं चाहती, जो उनको व उनके परिवार को प्रतिष्ठाजनक स्थान न दे सके या दहेज की आड़ में धनलोलुपता का शिकार हो। अब तो कुछ ऐसे भी मामले सामने आ रहे हैं, जहाँ लड़की ने कलयुग में स्वयंवर रचा कर वर चुनने की आजादी ली हो। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के घुमका गाँव में 8 जुलाई 2008 को एक लड़की अन्नपूर्णा ने स्वयंवर द्वारा अपना पति चुना। 8वीं पास 22 वर्षीया अन्नपूर्णा द्वारा स्वयंवर रचा कर वर चुनने की योजना का शुरू में समाज में काफी विरोध हुआ लेकिन समाज की परवाह किए बिना वह अपने रास्ते चलती रही। आखिरकार समाज भी साथ हो गया। स्वयंवर के प्रचार के लिए बाकायदा इलाके में पोस्टर लगाए गए और पास-पड़ोस के गाँवों में डुग्गी और लाउडस्पीकर के जरिए भी लोगों को इसकी जानकारी दी गई थी। स्वयंवर में शामिल होने वाले युवाओं की अधिकतम उम्र 26 साल तय की गई थी। अन्नपूर्णा से विवाह के इच्छुक लोगों को उसके पाँच धार्मिक सवालों का जवाब देना था। हल्बा आदिवासी समुदाय के युवकों को ही इसमें शामिल होने की अनुमति थी। स्वयंवर में केवल तीन युवक ही शामिल हुए। इनमें मात्र 12वीं पास और पेशे से किसान घनाराम नामक व्यक्ति ने स्वयंवर में पूछे सभी पाँच सवालों के सही जवाब दिये और अन्नपूर्णा ने इस व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में चुना।

वक्त के साथ पुरानी परम्परायें टूटती हैं और नयी परम्परायें स्थापित होती हैं। आंध्रप्रदेश का तिरूपति बालाजी मंदिर पूरे विश्व में विख्यात है और हर दिन यहाँ बेशुमार लोग भगवान बालाजी कोे अपने केश अर्पित करने आते हैं। इनमें अच्छी खासी तादाद महिलाओं की होती है और एक लम्बे समय से मंदिर में महिला मुण्डनकर्मियों को बिठाने की माँग उठती रही है। 31 मार्च 2005 को एक लम्बे संघर्ष बाद नाईनों को यहाँ नियुक्त करने का फैसला किया गया। इसके बाद तो इस निर्णय को भी धार्मिक आस्थाओं से जोड़कर देखा जाने लगा और तर्क दिया गया कि- ‘‘प्रतीकात्मक रूप से स्त्रियाँ देवी लक्ष्मी की प्रतिनिधि हैं इसलिए उन्हें मुण्डन कर्म नहीं करना चाहिए क्योंकि यह कृत्य उनकी दरिद्रता को दर्शाता है।’’ पर नाईनों ने हार नहीं मानी और तर्क दिया कि इस कार्य से उन्हें रोजगार मिलेगा और उनकी दरिद्रता व गरीबी दूर हो सकेगी। यही नहीं कर्म के आधार पर पुरूष नाईयों से अपने को कमतर नहीं आंकने वाली इन महिलाओं ने यह भी कहा कि उनसे बाल उतरवाने वाली महिलायें अपने को ज्यादा सहज महसूस कर सकेंगी। समाज की दरियाकनूसी परम्पराओं के चलते जहाँ अभी भी दलितों के घरों में पूजा-पाठ व धार्मिक अनुष्ठानों हेतु पंडित ढूँढ़े नही मिलते, वहाँ बरेली के भमोरा इलाके की आशा और ज्योति नामक दो बहनें तमाम दलित और मलिन बस्तियों में जाकर अनुष्ठान करती हैं और इस कार्य से मिलने वाले धन को गरीब लड़कियों की शादी, भण्डारा या किसी पीड़ित व्यक्ति की सेवा पर खर्च कर देती हैं।

राजस्थान सदैव से सामंती समाज माना जाता रहा है पर उस सामंती समाज की विधवाओं ने उन अमानवीय सामाजिक रूढ़ियों को दुत्कारने का साहस दिखाया है, जहाँ सती प्रथा जैसी बुराईयों के महिमामण्डन के जरिये विधवाओं से जीने का हक तक छीना जाता रहा है। यह वही राजस्थान है जहाँ 1987 में देवराला सती काण्ड के दौरान सती रूपकँवर के चबूतरे पर चूड़ियाँ और सिन्दूर चढ़ाने की स्त्रियों में होड़ सी मची थी। अब उसी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘एकल नारी शक्ति संगठन’ के नेतृत्व में वैधव्य जीवन जी रही हजारों स्त्रियों ने उन साज-श्रंृगारों का इस्तेमाल करना आरम्भ कर दिया है जो विधवा होते ही समाज उनसे छीन लेता है। हाथों में मंेहदी, कलाईयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, माथे पर बिंदिया और खूबसूरत परिधानों के साथ ये विधवायें मांगलिक कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर अपनी सहभागिता दर्ज करा रही हैं।

मुस्लिम समुदाय में जहाँ काजी का काम पुरूष के बूते का ही माना जाता रहा है, एक नारी ने पुरूषों का वर्चस्व तोड़ दिया है। पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के गाँव नंदीग्राम की काजी शबनम आरा बेगम इस देश की पहली महिला काजी हैं। शबनम के काजी बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं। अपने काजी पिता की सातवीं बेटी शबनम ने पिता के लकवाग्रस्त हो जाने पर निकाह कराने में उनकी मदद करना आरम्भ किया। शरीयत का अच्छी तरह इल्म हो जाने पर पिता जी ने उसे नायब काजी बना दिया। सन् 2003 में पिता जी की मौत के बाद शबनम ने अपने पैरों पर खड़े होने हेतु काजी बनने का रास्ता चुना और संयोग से काजी के रूप में उनका पंजीयन भी हो गया। पर काजी बनने के बाद शबनम की असली दिक्कतें आरम्भ हुयीं। अंततः धमकियों और मुकदमों के बीच शबनम अपने को काजी पद के योग्य साबित करने में सफल हुयीं। इसी प्रकार लखनऊ में अगस्त 2008 में भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की अध्यक्ष नाइश हसन और दिल्ली के इमरान का निकाह एक महिला काजी डाॅ0 सईदा हमीद ने पढ़ाया। गौरतलब है कि डाॅ0 सईदा हमीद योजना आयोग की सदस्य भी हैं।

21वीं सदी में जब महिलायें, पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, ऐसे में सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों की आड़ में उन्हें गौण स्थान देना जागरूक महिलाओं के गले नीचे नहीं उतर रहा है। यही कारण है कि ऐसी रूढ़िगत मान्यताओं और परम्पराओं के विरूद्ध उन्हीं क्षेत्रों से सामाजिक बदलाव की बयार चली है, जिन्हें इन रूढ़िगत कर्मकाण्डों का गढ़ माना जाता रहा है। इस सामाजिक बदलाव का कारण जहाँ महिलाओं में आई जागरूकता है, जिसके चलते महिलायें अपने को दोयम नहीं मानतीं और कैरियर के साथ-साथ सामाजिक परम्पराओं के क्षेत्र में भी बराबरी का हक चाहती हैं। वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी -सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। आधुनिक महिलायें इस तर्क को बेबाकी से खारिज करतीं हैं कि पुण्य कमाने के क्षेत्र में ईश्वर ने पुरूषों को ज्यादा अधिकार दिये हैं। ऐसे तर्कों को वे पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच मात्र मानती है। उनके लिये सवाल अब परम्पराओं का ही नहीं वरन् उनके कसौटी पर खरे उतरने का भी है। मात्र किसी धार्मिक गं्रथ के उद्धरणों के आधार पर नारी शक्ति को दबाया नहीं जा सकता। अब ये महिलायें पूछने लगी हैं कि पुण्य के कामों के समय हाथ पर बाँधा जाने वाला कलावा लड़कों के दायें और लड़कियों के बायें हाथ पर क्यों बाँधा जाता है, क्यों नहीं दोनों के एक ही हाथ पर बाँध दिया जाता है? यदि पूजा-पाठ या पुण्य के कार्य कराने के लिए जनेऊ धारण करना शास्त्रों में जरूरी माना गया है तो पुरोहित का कार्य करने वाली महिला जनेऊ क्यों नहीं धारण कर सकती? योग्यता चाहे वह पुरूष की हो अथवा महिला की- बराबर ही कही जायेगी। जहाँ प्रकृति पुरूष-स्त्री को बिना किसी भेदभाव के बराबर धूप-छांव बाँटती हो, वहाँ धर्म या परम्परा की आड़ में अतार्किक आधार पर स्त्रियों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। कोई महिला यदि किसी क्षेत्र में जाना चाहती है तो मात्र इसलिए कि वह एक महिला है, उसको उस क्षेत्र में जाने से नहीं रोका जा सकता। आखिर अपनी पसन्द का क्षेत्र चुनने का सभी को अधिकार है। यह निर्णय करने का समय आ चुका है कि अज्ञानी एवं अल्पज्ञानी पुरूषों के भरोसे धर्म की सनातन परम्परा और उसके आचार-विचार सुरक्षित रहेंगे या शिक्षित-प्रशिक्षित नारियों के हाथ में उसकी पताका महफूज रहेगी? प्रख्यात ज्योतिषी के0ए0दुबे पद्मेश जैसे विद्वान भी इन छात्राओं के कदम से उत्साहित दिखते हैं और इससे प्रेरित होकर अपना उत्तराधिकारी किसी नारी को ही बनाना चाहते हैं। फर्क मात्र इतना है कि आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत सामाजिक मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठायी थी पर 21वीं सदी के इस दौर में महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं।
कृष्ण कुमार यादव

मंगलवार, 3 मार्च 2009

२९ वर्ष की आयु में ही ग्राहम बेल ने किया टेलीफोन का अविष्कार

दुनिया में हर खोज के पीछे युवाओं की महती भूमिका रही है। नौजवानी का जज्बा लोगों की कल्पनाशीलता में जहाँ रंग भरता है, वहीँ कुछ कर दिखने का हौसला भी देता है। संचार क्रांति के इस दौर में टेलीफोन अपरिहार्य बन चुका है। जिसे देखो वही फ़ोन से चिपका हुआ है। पर बहुत कम लोगों को पता होगा कि दुनिया में संचार क्रांति लाने वाले इस क्रन्तिकारी टेलीफोन के आविष्कारक महान वैज्ञानिक अलेक्जेंडर ग्राहम बेल ने सिर्फ 29 साल की ही उम्र में ही 1876 में टेलीफोन की खोज कर ली थी। इसके एक साल बाद ही 1877 में उन्होंने बेल टेलीफोन कंपनी की स्थापना की। इसके बाद वह लगातार विभिन्न प्रकार की खोजों में लगे रहे। बेल टेलीफोन की खोज के बाद उसमें सुधार के लिए प्रयासरत रहे और 1915 में पहली बार टेलीफोन के जरिए हजारों किलोमीटर की दूरी से बात की। न्यूयार्क टाइम्स ने इस घटना को काफी प्रमुखता देते हुए इसका ब्यौरा प्रकाशित किया था। इसमें न्यूयार्क में बैठे बेल ने सैनफ्रांसिस्को में बैठे अपने सहयोगी वाटसन से बातचीत की थी। तीन मार्च 1847 को स्काटलैंड में पैदा हुए ग्राहम बेल शुरू से ही जिज्ञासु प्रवृति के थे और अपने विभिन्न प्रकार के विचारों को अमली जामा पहनाने के लिए लगे रहते थे। इसके अलावा उनकी विभिन्न खोजों पर उनके निजी अनुभवों का भी प्रभाव था। उदाहरण के तौर पर जब उनके नवजात पुत्र की सांस की समस्याओं के कारण मौत हो गई तो उन्होंने एक मेटल वैक्यूम जैकेट तैयार किया जिससे सांस लेने में आसानी होती थी। उनका यह उपकरण 1950 तक काफी लोकप्रिय रहा और बाद के दिनों में इसमें और सुधार किया गया। अपने आसपास कई लोगों को बोलने एवं सुनने में कठिनाई होते देख उन्होंने इस दिशा में भी अपना ध्यान दिया और सुनने की समस्या के आकलन के लिए आडियोमीटर की खोज की। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों के अलावा वैकल्पिक ऊर्जा और समुद्र के पानी से नमक हटाने की दिशा में भी काम किया।ग्राहम बेल की कई क्षेत्रों में एक साथ दिलचस्पी थी और वह काफी देर तक अध्ययनशील रहते थे। वह देर तक इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका पढ़ते थे। आज ग्राहम बेल के नाम 18 पेटेंट दर्ज हैं। इसके अलावा 12 पेटेंट उनके सहयोगियों के साथ दर्ज हैं। इन पेटेंटों में टेलीफोन, फोटोफोन, फोनोग्राफ और टेलीग्राफ शामिल हैं। उन्होंने आइसबर्ग का पता लगाने वाला एक उपकरण भी बनाया था, जिससे समुद्री यात्रा करने वाले नाविकों खासकर अत्यधिक ठंडे प्रदेशों में को विशेष मदद मिली। यही नहीं ग्राहम बेल ने चिकित्सा के क्षेत्र में भी काफी काम किया। सांस लेने के लिए उपयोगी उपकरण के साथ ही मूक बधिर लोगों की समस्या दूर करने के लिए काम किया। उन्होंने वैमानिकी के क्षेत्र में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। मेटल डिटेक्टर जो आज आतंकवाद सहित अन्य प्रकार के अपराधों से लड़ने में कारगर उपकरण साबित हो रहा है, का अविष्कार भी ग्राहम बेल की ही देन है।ग्राहम बेल को अपने जीवन में कई पुरस्कार और सम्मान मिले। इन पुरस्कारों में से एक था फ्रांस का वोल्टा सम्मान जो उन्हें टेलीफोन की खोज के लिए दिया गया था। इस पुरस्कार की स्थापना नेपोलियन बोनापार्ट ने भौतिकीविद अलेस्रांद्रो वोल्टा के सम्मान में की थी। वोल्टा ने बैट्री को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई थी। बेल ने इस पुरस्कार में मिली विशाल राशि का उपयोग वोल्टा फंड, वोल्टा लैबोरेट्रीज और वोल्टा ब्यूरो सहित अन्य संस्थाओं की स्थापना में की ताकि नई खोज के कार्य को गति मिल सके। इस महान वैज्ञानिक का निधन दो अगस्त 1922 को हो गया, पर अपनी महान खोजों से जनमानस में वे सदैव जिन्दा रहेंगें। आज उनकी जयंती पर हम उनका पुण्य-स्मरण करते हैं और उनके युवा जज्बे को सलाम करते हैं !!