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बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

सदन के हंगामे को देख खिन्‍न हुए बच्‍चे

यह उन बड़ों [नेताओं] के लिए बच्चों की चेतावनी है, जो हंगामा करते हैं। बच्चे अपने राज में उन्हें खारिज कर देंगे। जिस बच्चे को अपनी प्रतीकात्मक विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभानी है, उसका मानना है कि हंगामा तो एक मायने में गड़बड़ियों का संरक्षण है। बच्चों को हंगामा पसंद नहीं है। वे हर स्तर पर बेहद अनुशासन चाहते हैं।

बिहार विधानसभा की दर्शक दीर्घा में मंगलवार को समानातर लोकतात्रिक संसदीय व्यवस्था के किरदार भी बैठे थे। विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्री से लेकर नेता प्रतिपक्ष तक। नीचे वेल में बड़ों के हंगामे, उसकी वजह-यानी सभी सब कुछ देख रहे थे। बच्चे जोरदार नारे की हर नई आवाज पर बुरी तरह चौंकते थे। चेहरे पर इकट्ठे ऐसे भाव, मानों कह रहे हों-राम-राम, ये बड़े लोग कर क्या रहे हैं; क्यों ऐसी नौबत आने दी गई? बच्चे, बड़ों के मुतल्लिक बड़ी ही खराब धारणा लेकर लौटे। कहने को ये बाल संसद के चुनिंदे प्रतिभागी थे मगर उनकी बातें .! खुद सुनिए। मुख्यमंत्री आर्या मिश्रा बोल रही हैं-मैं ऐसी स्थिति ही नहीं आने दूंगी। जब ऐसे किसी मसले की गुंजाइश न रहेगी, तो फिर किसी को कुछ बोलने का मौका नहीं मिलेगा। आर्या, मिलर हाईस्कूल में 9वीं कक्षा की छात्रा है मगर उसे व्यवस्था, तंत्र की बखूबी जानकारी है। बोली-कानून व व्यवस्थाओं की कमी नहीं है, संकट उनके अनुपालन का है। मैं डिलीवरी सिस्टम पर पूरा ध्यान दूंगी।

मुख्यमंत्री जी विपक्ष के हंगामे पर बिफर पड़ीं। उनको तो पता भी न चला कि आज आखिर मुद्दा क्या है? कहा-ये कोई तरीका है? समय की बर्बादी है। जनता की गाढ़ी कमाई को बेकार करने की बात है। विपक्ष सरकार का अभिन्न अंग है। उसे अपनी यह भूमिका नहीं भूलनी चाहिये। सदन का मूल मकसद है-जनता के अरमानों का वाहक बनना। इस कदर हंगामे में यह उद्देश्य पूरा होगा? संयोग से आर्या जी को बड़ा ही सकारात्मक नेता प्रतिपक्ष मिला है। जनाब का नाम कासिफ नजीर है। बोले-मैं अपने लोगों [विपक्षी सदस्यों] को कभी भी इस भूमिका में आने न दूंगा। ऐसे समस्या का समाधान थोड़े ही होगा? बातचीत हर मसले का हल है। तथ्य या सबूत के आगे किसी का भी जोर नहीं चल सकता है। हम तथ्यपरक मसले उठाएंगे। इसी के बूते सरकार को घेरेंगे। सरकार कैसे अपने कारनामे छुपा लेगी? हंगामा तो एक मायने में गड़बड़ियों का संरक्षण है। क्रिया-प्रतिक्रिया में आरोपी के संरक्षित रहने का भी खतरा होता है। पीएन एंग्लो हाईस्कूल के 11वीं का यह छात्र विरोध के गाधीवादी तरीके में हाईस्कूल के 11वीं का यह छात्र विरोध के गाधीवादी तरीके में ज्यादा भरोसा रखता है। फिर हम अध्यक्ष जी के पास थे। ये हैं उच्जवल कुमार। उनका दावा है-मैं गार्जियन की भूमिका में रहूंगा। जब दोनों पक्षों का समान उद्देश्य है, तो फिर तकरार की बात कहा से आती है? मंत्रियों तथा विपक्ष के अन्य सदस्यों की भी कमोवेश यही राय। बहरहाल, बच्चे 6 मार्च को अपने राजकाज के गुणों से बड़ों को अवगत करायेंगे। इस दिन विधानसभा एनेक्सी में उनकी संसद बैठेगी।
साभार : जागरण

आकांक्षा यादव

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

महिलाओं ने बदला पानपाट

घूंघट में रहने वाली महिलाओं ने देवास जिले के कन्नौद ब्लाक के गाँव ‘पानपाट’ की तस्वीर ही बदल दी है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया है कि – कमजोर व अबला समझी जाने वाली महिलाएं यदि ठान लें तो कुछ भी कर सकती हैं। उन्हीं के अथक परिश्रम का परिणाम है कि आज पानपाट का मनोवैज्ञानिक, आर्थिक व सामाजिक स्वरुप ही बदल गया है। जो अन्य गाँवो के लिए प्रेरणादायक साबित हो रहा है।

पानपाट गाँव का 35 वर्षीय युवक ऊदल कभी अपने गांव के पानी संकट को भुला नहीं पाएगा। पानी की कमी के चलते गांव वाले दो-दो, तीन-तीन किमी दूर से बैलगाड़ियों पर ड्रम बांध कर लाते हैं। एक दिन ड्रम उतारते समय पानी से भरा लोहे का (200 लीटर वाला) ड्रम उसके पैर पर गिर गया और उसका दाहिना पैर काटना पड़ा। ऊदल अपाहिज हो गया। हर साल गर्मियों में गांव का पानी संकट उसके जख्म हरे कर जाता। मध्यप्रदेश के अन्य कई गांवों की तरह यह गांव भी आजादी के पहले से ही पानी का संकट साल दर साल भोगने को अभिशप्त है। यहां सरकारी भाषा में कहें तो डार्क जोन (यानी जलस्तर बहुत नीचे) है, हर साल गर्मियों में परिवहन से यहां पानी भेजा जाता है। ताकि यहां के लोग और मवेशी जिन्दा रह सकें। औरतें दो-दो तीन-तीन किमी दूर से सिर पर घड़े उठाकर लाती है। जिन घरों में बैलगाड़ियां हैं, वहाँ एक जोड़ी बैल हर साल गर्मियों में ड्रम खींच-खींचकर ‘डोबा’ (बिना काम का, थका हुआ बैल) हो जाते है। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। नेता और अफसर भी पानी की जगह आश्वासन पिलाकर चले जाते पर समस्या जस की तस बनी रही।

इस समस्या का सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता था औरतों को। आखिर वे ही तो परिवार की रीढ़ हैं। आखिर एक दिन वे खुद उठीं और बदलने चल दीं अपने गांव की किस्मत को गांव के तमाम मर्दों ने उनकी हंसी उड़ाई ‘आखर जो काम सरकार इत्ता साल में नी करी सकी उके ई घाघरा पल्टन करने चली है’ पर साल भर से भी कम समय में ही वे लोग दांतो तले उंगली दबा रहें हैं। इस कथित घाघरा पल्टन ने ही उनके गांव की दशा और दिशा बदल दी है। यह कोई कपोल कल्पित कहानी या अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि हकीकत है। देवास जिले के कन्नौद ब्लॉक के गांव पानपाट की।

इन औरतों के बीच काम करने पहुंची स्वंयसेवी संस्था ‘विभावरी’ ने उनमें वो आत्मविश्वास और संकल्प शक्ति पैदा की कि सदियों से पर्दानशीन मानी जाने वाली ये बंजारा औरतें दहलीजों से निकलकर गेती-फावड़ा उठाकर तालाब खोदने में जुट गईं। दो महीनें मे ही तैयार हो गया इनका तालाब। जैसे-जैसे तालाब का आकार बढ़ता गया इनका उत्साह और हौंसला बढ़ता गया। उन्हें खुशी है कि अब इस गांव में पानी के लिए कोई अपाहिज नहीं होगा और कोई बहन-बेटी पानी के लिए भटकेगी नहीं। सत्तर वर्षीय दादी रेशमीबाई खुद आगे बढ़ीं और फिर तो देखते ही देखते पूरे गांव की औरतें पानी की बात पर एकजुट हो गईं। उन्होंने पानी रोकने की तकनीकें सीखी, समझी और गुनी। पठारी क्षेत्र और नीचे काली चट्टान होने से पानी रोकना या भूजल स्तर बढ़ाना इतना आसान नहीं था। पर ‘पर जहां चाह-वहा राह’ की तर्ज पर विभावरी को राजीव गांधी जलग्रहण मिशन से सहायता मिली।

बात पड़ोसी गांव तक भी पहुंची और वहां की औरतें भी उत्साहित हो उठीं- इस बीमारी की जड़सली (दवाई) पाने के लिए। यहां से शुरुआत हुई पानी आंदोलन की। अनपढ़ और गंवई समझी जाने वाली इन औरतों ने पड़ोसी गांवों की औरतों का दर्द भी समझा। गांव का पानी गांव में ही रोकने के गुर सीखाने निकलीं ये औरतें। बैसाख की तेज गर्मी, चरख धूप और शरीर से चूते पसीने की फिक्र से दूर। नाम दिया जलयात्रा। 20 से 25 मई 2001 तक यह जलयात्रा भाटबड़ली, झिरन्या, टिपरास, नरायणपुरा, निमनपुर, गोला, बांई, जगवाड़, फतहुर जैसे गांवो से गुजरी उद्देश्य यही था कि-जो मंत्र उन्होंने अपनाया वह दूसरे गांव के लोग भी करें।

जलयात्रा के बाद तो इस क्षेत्र में पानी आंदोलन एक सशक्त जन आन्दोलन की तरह उभरा अब तो मर्दों ने भी कंधे से कंधा मिलाकर चलना तय कर लिया। आज क्षेत्र में सेकड़ों जल संरचनाएं दिखाई देती हैं। इससे भविष्य में यह क्षेत्र पानी की जद्दोजहद से दो-चार नहीं होगा। पानी को लेकर शुरु हुआ यह आंदोलन अब पानी से आगे बढ़कर क्षेत्र की समाजार्थिक स्थिति में बदलाव जैसे मुद्दों को भी छू रहा है क्षेत्र में सफाई, स्वास्थ्य, कुरीतियों से निपटने, शिक्षा, पंचायती संस्थाओं में भागीदारी, छोटी बचत व स्वरोजगार से अपनी व पारिवारिक आमदनी बढ़ाने जैसे मुद्दे भी इन औरतों के एजेंडो में शामिल हैं।

पिछले एक साल में यहां इन्होंने तालाब, निजी खेतों में तलईयां, गेबियन स्ट्रक्चर, मैशनरी चेकडेम, लूज बोल्डर श्रृंखलाबद्ध चेकडेम व मेड़बंदी जैसी कई संरचनाएं बनाई हैं। पर इससे महत्वपूर्ण देखने वाली बात यह कि – यहां के समाज में इन सबसे एक विशेष प्रकार का विश्वास और जागरुकता आई। अब ये लोग अपने अधिकारों को लेने के लिए लड़ना सीख गए हैं। ये अब नेताओं और अफसरों के सामने घिघियाते नहीं हैं, बल्कि नजर उठाकर नम्रता के साथ बात करते हैं।

नारायणपुरा में 5वीं कक्षा पास शारदा बाई गांव की ही ड्राप ऑउट 12 बालिकाओं को पढ़ा रही है। इन गांवो में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। निस्तारी पानी के लिए 56 सोख्ता गडढ़े व लगभग दो दर्जन घूड़ों में नाडेप तरीके से खाद बनाई जा रही है। क्षेत्र के युवकों को रोजगारमूलक गतिविधियों से जोड़ा जा रहा है तथा किशोरों, औरतों के लिए लायब्रेरी बनाई गई है। क्षेत्र में लगातार स्वास्थ्य फॉलोअप शिविर लग रहे हैं। इन गांवो के लगभग ढ़ाई सौ साल के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि खुद यहां कि औरतों ने यहां की तस्वीर बदल दी है। इन गांवो में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व आर्थिक बदलाव को आसानी से देखा, समझा जा सकता है। ‘विभावरी’ के सुनील चतूर्वेदी इस पूरे आंदोलन से खासे उत्साहित हैं। वे कहते हैं “एक अनजान धरती पर नकारात्मक माहौल में काम करना आसान नहीं था। व्यवस्था के प्रति पुराना अविश्वास और नेताओं के आश्वासन ने यहां के ग्रामीणों को निराश कर दिया था। पर क्षेत्र की महिलाओं ने हमारे काम को आगे बढ़ाया”। क्षेत्र की औरतों के बीच जुनूनी आत्मविश्वास जगाने वाली विभावरी की एक दुबली-पतली लड़की को देख कर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह वह लड़की है जिसने इन औरतों की जिन्दगी के मायने बदल दिये। सोनल कहती हैं। “गांव में तालाब निर्माण काकाम ही सामाजिक समरूपता का माध्यम बना। मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया मैंने तो सिर्फ उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराया।

झिरन्या के बाबूलाल कहते हैं हम तो इन्हें भी रुपया खाने वाले सरकारी आदमी समझते थे पर इन्होंने तो हमारी सात पुश्तें (पीढ़ियां) तारने जैसे काम कर दिया। काली बाई बताती हैं कि अब उनके काम को सामाजिक मान्यता मिल गई है। देवास, इन्दौर भोपाल तक के लोग उनके काम को देखने व बात करने आ रहे हैं। इससे बड़ी खुशी की बात हमारे लिए क्या हो सकती है?

लेखक: मनीष वैद्य

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी की और से एक अपील

साथी,
पत्रकार बंधुओं,

देश में नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के नाम पर चल रहे सरकारी दमन के बीच मीडिया और आप सभी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ता जब मीडिया को अपना हथियार व पुलिस पत्रकारों को अपने बंदूक की गोली की भूमिका में इस्तेमाल करे तो ऐसे समय में हमे ज्यादा सर्तक रहने की जरूरत है। पुलिस की ही तरह हमारे कलम से निकलने वाली गोली से भी एक निर्दोष के मारे जाने की भी उतनी ही सम्भावना होती है, जितनी की एक अपराधी की। हमें यहां यह बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं क्योंकि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद जैसे मुददों पर रिपोर्टिंग करते समय हमारे ज्यादातर पत्रकार साथी न केवल पुलिस के प्रवक्ता नजर आते हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वह उन पत्रकारीय मूल्यों को भी ताक पर रख देते हैं, जिसके बल पर उनकी विश्वसनियता बनी है।

हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल ही में इलाहाबाद में पत्रकार सीमा आजाद व कुछ अन्य लोगों की गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया व पत्रकारों का यही रूख देखने को मिला। सीमा आजाद इलाहाबाद में करीब 12 सालों से एक पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय रही हैं। इलाहाबाद में कोई भी सामाजिक व्यक्ति या पत्रकार उन्हें आसानी से पहचानता होगा। कुछ नहीं तो वैचारिक-साहित्यिक सेमिनार/गोष्ठियां कवर करने वाले पत्रकार उन्हें बखूबी जानते होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब पुलिस ने उन्हीं सीमा आजाद को माओवादी बताया तो किसी पत्रकार ने आगे बढ़कर इस पर सवाल नहीं उठाया। आखिर क्यो? क्यों अपने ही बीच के एक व्यक्ति या महिला को पुलिस के नक्सली/माओवादी बताए जाने पर हम मौन रहे? पत्रकार के तौर पर हम एक स्वाभाविक सा सवाल क्यों नहीं पूछ सके कि किस आधार पर एक पत्रकार को नक्सली/माओवादी बताया जा रहा है? क्या कुछ किताबें या किसी के बयान के आधार पर किसी को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है? और अगर पुलिस ऐसा करती है तो एक सजग पत्रकार के बतौर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?

पत्रकार साथियों को ध्यान हो, तो यह अक्सर देखा जाता है कि किसी गैर नक्सली/माओवादी की गिरफ्तारी दिखाते समय पुलिस एक रटा-रटाया सा आरोप उन पर लगाती है। मसलन यह फलां क्षेत्र में फलां संगठन की जमीन तैयार कर रहा था/रही थी, या कि वह इस संगठन का वैचारिक लीडर था/थी, या कि उसके पास से बड़ी मात्रा में नक्सली/माओवादी साहित्य (मानो वह कोई गोला बारूद हो) बरामद हुआ है। आखिर पुलिस को इस भाषा में बात करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? क्या पुलिस के ऐसे आरोप किसी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं? किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना या किसी खास राजनैतिक विचारधारा (भले ही वो नक्सली/माओवादी ही क्यों न हो) से प्रेरित साहित्य पढ़ना कोई अपराध है? अगर नहीं तो पुलिस द्वारा ऐसे आरोप लगाते समय हम चुप क्यों रहते हैं? क्यों हम वही लिखते हैं,जो पुलिस या उसके प्रतिनिधि बताते हैं। यहां तक की पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताती है और हम उसके आगे ‘कथित’ लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं करते। क्यों ?

हम जानते हैं कि हमारे वो पत्रकार साथी जो किसी खास दुराग्रह या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते, वह भी खबरें लिखते समय ऐसी ‘भूल’ कर जाते हैं। शायद उन्हें ऐसी ‘भूल’ के परिणाम का अंदाजा न हो। उन्हें नहीं मालूम की ऐसी 'भूल' किसी की जिंदगी और सत्ता-पुलिसतंत्र की क्रूरता की गति को तय करते हैं।
जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) सभी पत्रकार बंधुओं से अपील करती हैं कि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करते समय कुछ मूलभूत बातों का ध्यान अवश्य रखें.

* साथियों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद तीनों अलग-अलग विचार हैं। नक्सलवाद/माओवाद राजनैतिक विचारधाराएं हैं तो आतंकवाद किसी खास समय, काल व परिस्थियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह कई बार हिंसक व विवेकहीन कार्रवाई होती है जो जन समुदाय को भयाक्रांत करती है. इन सभी घटनाओं को एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक होना कहीं से भी अपराध नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले कुछ संगठन खुले रूप में आंदोलन चलाते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो कुछ भूमिगत रूप से संघर्ष में विश्वाश करते हैं। कुछ भूमिगत नक्सलवादी/माओवादी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। लेकिन यहीं यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इन संगठनों की विचारधारा को मानने पर कोई मनाही नहीं है। इसीलिए पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक बताकर गिरफ्तार नहीं कर सकती है, जैसा की पुलिस अक्सर करती है.। हमें विचारधारा व संगठन के अंतर को समझना होगा।

* इसी प्रकार पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। मित्रों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना/पढ़ना कोई अपराध नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल मार्क्स/लेनिन/माओत्से तुंग/स्टेलिन/भगत सिंह/चेग्वेरा/फिदेल कास्त्रो/चारू मजूमदार/किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों/विश्वविद्यलयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक/प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली/माओवादी/आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर/मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य है।

यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की अक्सर देखा जाता है की पुलिस जब कोई हथियार, गोला-बारूद बरामद करती है तो मीडिया के सामने खुले रूप में (कई बार बड़े करीने से सजा कर) पेश की जाती है, लेकिन वही पुलिस जब नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य बरामद करती है तो उसे सीलबंद लिफाफों में पेश करती है. इन लिफाफों में क्या है हमें नहीं पता होता है लेकिन हमारे सामने इसके लिए कुछ 'अपराधी' हमारे सामने होते हैं. आप पुलिस से यह भी मांग करे कीबरामद नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य को खुले रूप में सार्वजनिक किया जाए.

* मित्रों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों के पीछे किसी खास क्षेत्र में चल रहे राजनैतिक/सामाजिक व लोकतांत्रिक आन्दोलनों को तोड़ने/दबाने या किसी खास समुदाय को आतंकित करने जैसे राजनैतिक लोभ छिपे होते हैं। ऐसे समय में यह हमें तय करना होता है कि हम किसके साथ खड़े होंगे। सत्ता की क्रूर राजनीति का सहभागी बनेंगे या न्यूनतम जरूरतों के लिए चल रहे जनआंदोलनों के साथ चलेंगे।

* हम उन तमाम संपादकों/स्थानीय संपादकों/मुख्य संवाददातों से भी अपील करते हैं , की वह अपने क्षेत्र में नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी अपराध संवाददाता (क्राइम रिपोर्टर) को न दें. यहाँ ऐसा सुझाव देने के पीछे इन संवाददाताओं की भूमिका को कमतर करके आंकना हमारा कत्तई उद्देश्य नहीं है. हम केवल इतना कहना चाहते हैं की यह संवाददाता रोजाना चोर, उच्चकों, डकैतों और अपराधों की रिपोर्टिंग करते-करते अपने दिमाग में खबरों को लिखने का एक खांचा तैयार कर लेते हैं और सारी घटनाओं की रिपोर्ट तयशुदा खांचे में रहकर लिखते है. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग हम तभी सही कर सकते हैं जब हम इस तयशुदा खांचे से बहार आयेगे. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद कोई महज आपराधिक घटनाएँ नहीं है, यह शुद्ध रूप से राजनैतिक मामला है.

* हमे पुलिस द्वारा किसी पर भी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी होने के लगाए जा रहे आरोपों के सत्यता की पुख्ता जांच करनी चाहिये। पुलिस से उन आरोपों के संबंध में ठोस सबूत मांगे जाने चाहिये। पुलिस से ऐसे कथित नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी के पकड़े जाने के आधार की जानकारी जरूर लें।

* हमें पुलिस के सुबूत के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी सत्यता की जांच करने की कोशिश करना चाहिये। मसलन अभियुक्त के परिजनों से बातचीत करना चाहिये। परिजनों से बातचीत करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अक्सर देखा जाता है कि पुलिस के आरोपों के बाद ही हम उस व्यक्ति को अपराधी मान बैठते हैं और उसके बाद उसके परिजनों से भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो हमारी स्टोरी व पुलिस के दावों को सत्य सिद्ध करने के लिए जरूरी हों। ऐसे समय में हमें अपने पूर्वाग्रह को कुछ समय के लिए किनारे रखकर, परिजनों के दर्द को सुनने/समझने की कोशिश करनी चाहिए। शायद वहां से कोई नयी जानकारी निकल कर आए जो पुलिस के आरोपों को फर्जी सिद्ध करे।

* मित्रों, कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है, जब तक कि उस पर लगे आरोप किसी सक्षम न्यायालय में सिद्ध नहीं हो जाते या न्यायालय उसे दोषी नहीं करार देती। हमें केवल पुलिस के नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताने के आधार पर ही इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे शब्द लिखते समय ‘कथित’ या ‘पुलिस के अनुसार’ जरूर लिखना चाहिये। अपनी तरफ से कोई जस्टिफिकेशन नहीं देना चाहिये।

बंधुओं,

यहां इस तरह के सुझाव देने के पीछे हमारा यह कत्तई उद्देश्य नहीं है कि आप किसी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी का साथ दें। हम यहां कोई ज्ञान भी नहीं देना चाहते। हमारा उद्देश्य केवल इतना सा है कि ऐसे मसलों की रिपोर्टिंग करते समय हम जाने/अनजाने में सरकारी प्रवक्ता या उनका हथियार न बन जाए। ऐसे में जब हम खुद को लोकतंत्र का चौथा-खम्भा या वाच डाग कहते हैं तो जिम्मेदारी व सजगता की मांग और ज्यादा बढ़ जाती है। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) आपको केवल इसी जिम्मेदारी का एहसास करना चाहती है।

उम्मीद है कि आपकी लेखनी शोषित/उत्पीड़ित समाज की मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकेगी !!


- निवेदक
आपके साथी,

विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरूण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुद़ध गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार।

जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जनहित में जारी
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भवदीय
अवनीश कुमार राय
दिल्ली
9910638355

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

प्यार का महीना : फरवरी

क्या आप जानते हैं कि फरवरी महीना प्यार को समर्पित है। ’रोज डे’ से शुरू ’मिसिंग डे’ पर खत्म और बीच में मनभावन 'वैलेंटाइन डे'। वस्तुत : फरवरी में दिवस मनाने की शुरूआत सात तारीख से ही हो जाती है जब ’रोज डे’ :गुलाब दिवस: पड़ता है। इससे आगे 20 फरवरी तक दिवस आयोजन की भरमार होती है।किसी को प्रपोज करने के लिए आठ फरवरी को ’प्रपोज डे’ पड़ता है तो नौ फरवरी को चॉकलेट डे पड़ता है। 10 फरवरी जहां ’टेडी डे’ कहलाती है वहीं 11 फरवरी का दिन किसी से वायदा करने या किसी से वायदा कराने का दिन यानी कि ’प्रॉमिस डे’ कहलाता है।दिवसों की यह सूची यहीं समाप्त नहीं हो जाती। 'प्रामिस डे’ के बाद बारी आती है ’किस डे’ की जो 12 फरवरी को पड़ता है। 13 फरवरी हो ’हग डे’ होता है तो 14 फरवरी को युवाओं के दिलों की धड़कन कहा जाने वाला ’वैलेंटाइन डे’ पड़ता है।

वैलेंटाइन डे जहां प्यार की पींगें बढ़ाने का दिन है वहीं इसके एक दिन बाद यानी कि 15 फरवरी को ’थप्पड़’ मारने का दिन ’स्लैप डे’ होता है।बात यहां से आगे बढ़कर 20 फरवरी तक पहुंच जाती है जब किसी को याद करने के लिए ’मिसिंग डे’ मनाया जाता है।वास्तव में फरवरी माह युवाओं के लिए सबसे पसंदीदा महीना होता है। यह न सिर्फ उन्हें ’वैलेंटाइन डे’ पर प्यार के इजहार का मौका देता है बल्कि इसके अतिरिक्त भी कई और दिवस आयोजनों का मौका प्रदान करता है। तो आप भी इस माह वसंत की बगिया में प्यार की बौछार करते रहें...!!

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

कुँवारी किरणें (वेलेंटाइन दिवस पर विशेष)

कुँवारी किरणें
सद्यःस्नात सी लगती हैं
हर रोज सूरज की किरणें।
खिड़कियों के झरोखों से
चुपके से अन्दर आकर
छा जाती हैं पूरे शरीर पर
अठखेलियाँ करते हुये।
आगोश में भर शरीर को
दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे
और मजबूर कर देती हैं
अंगड़ाईयाँ लेने के लिए
मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।

कृष्ण कुमार यादव

प्यार का खुशनुमा दिन : वेलेंटाइन डे

***प्यार के इस खुशनुमा दिन को अहसास करें और अपने चारों तरफ प्यार बरसायें***