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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

वर्तमान पर अतीत की वरीयता







आज प्रातः भोर से ही
प्रकृति के तीव्र वर्षणका प्रकोप
अनवरत जारी था
बारिस की तीव्रता का
यह आलम था कि
नीचे बगीचे में आम पर
नीम के पेड़ों का
घर्षण भारी था

अभी तक युवा आम जो
कल शाम तक अपनी
तरुणाई पर इठला रहा था
पुरवैये के मस्त झोकों में
मस्ती से झूम रहा था
किसी अन्य को कुछ नहीं
समझ रहा था
आज मौन नतमस्तक होकर
मानो वयस्क नीम से
पनाह मांग रहा था
नीम के तीव्र घर्षण से जब
एक ओर वह ज्यादा ही
झुक जाता था
लगता कि अब गिरा तब गिरा
तभी नीम की दूसरी डालों का
पाकर सहारा वह
किसी तरह संभल जाता था

जैसे एक पिता अपने
रो रहे बच्चे को दुलारने का
प्रयास करता
हवा में उछल कर खुशी
जाहिर करता
उसे गिरने से पहले ही गोद में
ले बलैया खूब लेता
इसी बीच बच्चा कभी हँसता
कभी रोता
पर अंत में निश्चिन्त हो
पिता के कंधे से लग
आराम से सो जाता

कुछ ऐसा ही इन सजीवों
मगर बेजुबानों का खेल चल रहा था
छत पर बाने किचेन गार्डेन में
में पौधों के बीच विचारमग्न बैठा था
प्रकृति के इस अनुपम नैसर्गिक
खेल का आनंद ले रहा था
साथ ही प्रकृति अपने इन
उपादानों के माध्यम से
जो हमें सन्देश दे रही थी
उस पर मेरे अंतर्मन में
बहस चल रही थी

उड़ ले पंख लगा कर चाहे
कितनी भी आज की युवा पीढ़ी
अनुभव रत अतित से
खेल ले चाहे कितना भी

खेल साप सीढ़ी

पर आज भी उसके पास

जवाब नहीं है

अतीत की सम्पन्नता का

साधनों के अभाव में भी

कालजयी ऐतिहासिक इमारतों के

निर्माण की गाथा का

कैसे अतीत के लोगो ने

विशाल पहाड़ों पर किले बनवाने हेतु

विशाल शिलाखंडो को

शीर्ष तक पहुचाया होगा

आज तक अभेद बने है वे

आखिर कौन सा जोड़

लगाया होगा

किन क्रेनो से उन्हें ऊपर

पहुचाया होगा

दक्षिण के मंदिरों में विशालतम

प्रस्तर प्रखंडो का उपयोग

जिसके परिवहन पर ही आज
पूरी तन्मयता से शोध जारी है

है नहीं केवल एक संयोग

आदि ऐसे कितने नमूने

अतीत कि वरीयता वर्तमान पर

सिद्ध करते है

फिर भी हम अज्ञात और

अज्ञान बने फिरते है

हर दृष्टिकोण से अपने

समृद्ध और संपन्न अतीत पर

गर्व करने के बजाय

हम उस पर भरोसा

नहीं करते है

शनिवार, 24 सितंबर 2011

ब्लागिंग का 'युवा-मन': अमित कुमार यादव

हिंदी-ब्लागिंग जगत में कुछेक नाम ऐसे हैं, जो बिना किसी शोर-शराबे के हिंदी साहित्य और हिंदी ब्लागिंग को समृद्ध करने में जुटे हुए हैं. इन्हीं में से एक नाम है- सामुदायिक ब्लॉग "युवा-मन" के माडरेटर अमित कुमार यादव का. संयोगवश आज उनका जन्मदिन भी है. अत: जन्म-दिन की बधाइयों के साथं आज की यह पोस्ट उन्हीं के व्यक्तित्व के बारे में-



अमित कुमार यादव : 24 सितम्बर, 1986 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ.प्र.) के एक प्रतिष्ठित परिवार में श्री राम शिव मूर्ति यादव एवं श्रीमती बिमला यादव के सुपुत्र-रूप में जन्म। आरंभिक शिक्षा बाल विद्या मंदिर, तहबरपुर-आजमगढ़, आदर्श जूनियर हाई स्कूल, तहबरपुर-आजमगढ़, राष्ट्रीय इंटर कालेज, तहबरपुर-आजमगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद वि.वि. से 2007में स्नातक और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) से 2010 में लोक प्रशासन में एम.ए.। फ़िलहाल अध्ययन के क्रम में इलाहाबाद और प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी।

अध्ययन और लेखन अभिरुचियों में शामिल. सामाजिक-साहित्यिक-सामयिक विषयों पर लिखी पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं पढने का शगल, फिर वह चाहे प्रिंटेड हो या अंतर्जाल पर। तमाम पत्र-पत्रिकाओं , पुस्तकों/संकलनों एवं वेब-पत्रिकाओं, ई-पत्रिकाओं और ब्लॉग पर रचनाएँ प्रकाशित। वर्ष 2005 में 'आउटलुक साप्ताहिक पाठक मंच' का इलाहाबाद में गठन और इसकी गतिविधियों के माध्यम से सक्रिय। जुलाई-2006 में प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका 'आउटलुक' द्वारा एक प्रतियोगिता में पुरस्कृत, जो कि शैक्षणिक गतिविधियों से परे जीवन का प्रथम पुरस्कार। ब्लागिंग में भी सक्रियता और सामुदायिक ब्लॉग "युवा-मन" (http://yuva-jagat.blogspot.com) के माडरेटर। 21 दिसंबर 2008 को आरंभ इस ब्लॉग पर 250 के करीब पोस्ट प्रकाशित और 110 से ज्यादा फालोवर।
अपने बारे में स्वयं अमित कुमार एक जगह लिखते हैं, मूलत: आजमगढ़ का ...जी हाँ वही आजमगढ़ जिसकी पहचान राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध", शिबली नोमानी, कैफी आज़मी जैसे लोगों से रही है। पर इस संक्रमण काल में इस पहचान के बारे में न ही पूछिये तो बेहतर है। आजकल आजमगढ़ की चर्चा दूसरे मुद्दों को लेकर है। फ़िलहाल हमने अभी तो जीवन के रंग देखने आरम्भ किये हैं, आगे-आगे देखिये होता क्या है। नौजवानी है सो जोश है, हौसला है और विचार हैं।

ई-मेलः amitky86@rediffmail.com
ब्लॉग : http://yuva-jagat.blogspot.com/ (युवा-मन)



(चित्र में : हिंदी भवन, दिल्ली में 'हिंदी साहित्य निकेतन', परिकल्पना डाट काम, और नुक्कड़ डाट काम द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मलेन में श्रेष्ठ नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) की तरफ से उत्तरांचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक', वरिष्ठ साहित्यकार डा. रामदरश मिश्र, डा. अशोक चक्रधर इत्यादि द्वारा सम्मान ग्रहण करते अमित कुमार यादव)

प्रस्तुति : रत्नेश कुमार मौर्य : 'शब्द-साहित्य'

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

सम्मान



काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में विगत दिनों हिंदी पखवारा बड़े ही हर्रोल्लास से मनाया गया उक्त अवसर पर डा रमेश कुमार निर्मेश को उनके हिंदी के प्रति उल्लेखनीय योगदान के लिए आधुनिक कविता के ध्वजवाहक श्री ज्ञानेन्द्रपति जी और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति प्रोफेसर लालजी सिंह जी द्वारा संयुक्त रूप से प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया

शनिवार, 17 सितंबर 2011

भगवन के ही बनाये इन जिन्दा बुतों में ..........


दादा टिकट
टिकट
रामदीन ने हाँ बाबु कहते हुए
कमर की धोती में खोसें
टिकट को निकला
जिसे देखते ही टीटी महोदय
का चढ़ गया पारा
चालू टिकट ले कर
शयनयान में सफ़र करते हो
शर्म नहीं आती तुम लोगों को
अरे कम से कम
भगवन से क्यों नहीं डरते हो

मै सामने वाली सीट पर
खिड़की के पास बैठा
अभी तक तेजी से भागते
बियाबान जंगल को देख रहा था
इस खटपट से तन्द्रा भंग हो उ
नकी तरफ मुखातिब हो गया था
रामदीन और उसकी कृशकाय वृद्धा पत्नी
दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए थे
टीटी से विनम्रता से विनती कर रहे थे

भैया तबियत ठीक ना रहा
केमै बैठा जावे हमन के
ठीक से पता ना रहा
हम जनित कि टिकट लई के
बस के माफिक पूरा गाड़ी में
कहियों बैठ सकित है
बाबू तनी दया करी के हमे बतईत
त अगला टेशन पर उतर हम
ओम बैठ जाईत

चुप बुढ़िया
बहुत नौटंकी आवत है
हमका बेवकूफ बनावत है
नव सौ रुपया पहिले
जुरमाना का निकालो
नहीं तो चलो जेल काटो

रामदीन गिरगिदा पड़ा
बाबू जब से हमरा बेटवा समुआ
दिल्ली बम कांड में गुजर गवा
एक साथ इतना पैसा देखे
न जाने कितना दिन गुजर गवा
अब कौउनो सहारा नहिनी
यहि वदे हम बिटिया के यहाँ जात रहा
हमका माफ़ कर देईब
अगला टेशन पर हम
जरूर उतर लेईब

बुढहू ढँर चालक बने का
कोशिश जिन करो
चलो अच्छा जो कुछ है
उसी को निकालो
कोई रास्ता न देख रामदीन ने
धोती के दूसरे कोने से
कुछ मुड़े हुए नोटों को निकाला
जिसे टीटी ने लपक कर
अपने जेब में डाला
शीघ्रता से आगे बढ़ गया

मन मेरा विचलित हो गया
इधर रामदीन अपने गंदे अंगोछे से
अपने आंसुओं को पोछने लगा
आगे सफ़र कैसे कटेगा
अपनी पत्नी से कह सिहर गया

सारे घटनाक्रम ने
एकबार पुनः मुझको हिला दिया
मेरी संवेदनशीलता ने मुझे
भीतर तक झकझोर कर रख दिया
तभी मैंने एक फैसला किया
डिब्बे में बैठे यात्रियों से चंदा लेकर
कुछ रूपये इकठ्ठा कर
उस वृद्धा दंपत्ति को
भेट कर दिया

अश्रुपूरित नेत्रों से
रुपये लेते समय रामदीन कृतज्ञता से
विह्वल हो गया
अचानक से बोल पड़ा
बाबू ये आज के इंसानों को
क्या हो गया है
भगवन के ही बनाये
इन जिन्दा बुतों में
कैसे और क्यों इतना अंतर
हो गया है

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

अंडमान में कृष्ण कुमार यादव ने किया हिंदी-पखवाडा का शुभारम्भ

सुदूर समुद्र-पर स्थित पोर्टब्लेयर पर भी चढ़ा हिंदी-दिवस का रंग. अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में निदेशक डाक सेवा कार्यालय में हिन्दी-दिवस का आयोजन किया गया। चर्चित साहित्यकार और निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव ने माँ सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण और पारंपरिक द्वीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया। कार्यक्रम के आरंभ में अपने स्वागत भाषण में सहायक डाक अधीक्षक श्री ए. के़. प्रशान्त ने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर किया कि निदेशक श्री कृष्ण कुमार यादव स्वयं हिन्दी के सम्मानित लेखक और साहित्यकार हैं, ऐसे में द्वीप-समूह में राजभाषा हिन्दी के प्रति लोगों को प्रवृत्त करने में उनका पूरा मार्गदर्शन मिल रहा है। हिन्दी की कार्य-योजना पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि संविधान सभा द्वारा 14 सितंबर, 1949 को सर्वसम्मति से हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था, तब से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर जोर दिया गया कि राजभाषा हिंदी अपनी मातृभाषा है, इसलिए इसका सम्मान करना चाहिए और बहुतायत में प्रयोग करना चाहिए। इस अवसर पर कार्यक्रम को संबोधित करते हुए निदेशक डाक सेवाएँ और चर्चित साहित्यकार साहित्यकार व ब्लागर श्री कृष्ण कुमार यादव ने हिन्दी को जन-जन की भाषा बनाने पर जोर दिया। अंडमान-निकोबार में हिन्दी के बढ़ते कदमों को भी उन्होंने रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि हमें हिन्दी से जुड़े आयोजनों को उनकी मूल भावना के साथ स्वीकार करना चाहिए। स्वयं डाक-विभाग में साहित्य सृजन की एक दीर्घ परम्परा रही है और यही कारण है कि तमाम मशहूर साहित्यकार इस विशाल विभाग की गोद में अपनी काया का विस्तार पाने में सफल रहे हें। इनमें प्रसिद्ध साहित्यकार व ‘नील दर्पण‘ पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पी0वी0अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी, सुविख्यात उर्दू समीक्षक शम्सुररहमान फारूकी, शायर कृष्ण बिहारी नूर जैसे तमाम मूर्धन्य नाम शामिल रहे हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल भी डाक विभाग में ही क्लर्क रहे।

निदेशक श्री कृष्ण कुमार यादव ने अपने उद्बोधन में बदलते परिवेश में हिन्दी की भूमिका पर भी प्रकाश डाला और कहा कि- भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र, सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र और सबसे बडे़ उपभोक्ता बाजार की भाषा हिन्दी को नजर अंदाज करना अब सम्भव नहीं रहा। आज की हिन्दी ने बदलती परिस्थितियों में अपने को काफी परिवर्तित किया है। विज्ञान-प्रौद्योगिकी से लेकर तमाम विषयों पर हिन्दी की किताबें अब उपलब्ध हैं, पत्र-पत्रिकाओं का प्रचलन बढ़ा है, इण्टरनेट पर हिन्दी की बेबसाइटों और ब्लॉग में बढ़ोत्तरी हो रही है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कई कम्पनियों ने हिन्दी भाषा में परियोजनाएं आरम्भ की हैं। निश्चिततः इससे हिन्दी भाषा को एक नवीन प्रतिष्ठा मिली है। मनोरंजन और समाचार उद्योग पर हिन्दी की मजबूत पकड़ ने इस भाषा में सम्प्रेषणीयता की नई शक्ति पैदा की है पर वक्त के साथ हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में विकसित करने हेतु हमें भाषाई शुद्धता और कठोर व्याकरणिक अनुशासन का मोह छोड़ते हुए उसका नया विशिष्ट स्वरूप विकसित करना होगा अन्यथा यह भी संस्कृत की तरह विशिष्ट वर्ग तक ही सिमट जाएगी। श्री यादव ने जोर देकर कहा कि साहित्य का सम्बन्ध सदैव संस्कृति से रहा है और हिन्दी भारतीय संस्कृति की अस्मिता की पहचान है। निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषन को मूल......आज वाकई इस बात को अपनाने की जरूरत है।इस अवसर पर निदेशक डाक सेवा कार्यालय के कार्यालय सहायक श्री किशोर वर्मा ने कहा कि आज हिन्दी भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में अपनी पताका फहरा रही है और इस क्षेत्र में सभी से रचनात्मक कदमों की आशा की जाती है। इस अवसर पर डाकघर के कर्मचारियों में हिंदी के प्रति सुरुचि जाग्रति करने के लिए दिनांक 14.9.11 से 28.9.11 तक विभिन्न प्रतियोगिताएं की जा रही हैं जैसे, श्रुतलेख, भाषण, हिन्दी टंकण, पत्र लेखन,हिन्दी निबंध, परिचर्चा। इस कार्यक्रम में प्रायः डाक विभाग के सभी कर्मचारी भाग ले रहें है।


(पोर्टब्लेयर से ए. के़. प्रशान्त, सहायक डाक अधीक्षक की रिपोर्ट)

प्रस्तुति : रत्नेश कुमार मौर्य




गुरुवार, 8 सितंबर 2011

शहीदों को पैदा करने का ठेका



मम्मी देखों
क्या गजब हो गया
गुड्डू का सेकेण्ड लेफ्टिनेंट में
चयन हो गया
उसे परसों जाना है
घर में प्रवेश करते हुए आशु ने कहा

चलो अच्छा हुआ
बेचारा बहुत दिनों से रोजगार के लिए
प्रयासरत और परेशान था
देश की सेवा करने का पुण्य फल
अंततः उसे प्राप्त हो गया
निरापद यदि सीमा की रक्षा करते हुए
शहीद भी हो गया
तो इतिहास में अमर हो जायेगा
अमर जवान ज्योति का
हिस्सा बन जायेगा
साथ ही कुल कुल खानदानका नाम भी
रोशन कर जायेगा
सम्प्रति आज देश को आवश्यकता है
जहाँ अन्ना जैसे कर्तव्यपरायण
निःस्वार्थ एकनिष्ठ
सामाजिक कार्यकर्ता की
वही आवश्यकता है
ऐसे ही वीर कर्तव्यनिष्ठा
साहसी युवावों की
जो अपनी वीरता से अपना नाम
स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगें
मरने के उपरांत भी पूरे सम्मान से
याद किये जायेगें

चलो जल्दी से फ्रेश हो लो
चलके उसे और उसके परिवार को
उसकी इस सफलता पर
बधाई तो दे दे

अपने आप को संभालते हुए
आशु ने पुनः कहा
माँ मेरा भी उसके साथ ही
चयन हो गया है
मुझे भी परसों उसके साथ जाना है
क्या कहा गरजते हुए माँ ने कहा
एकाएक पूरा परिदृश्य बदल जाता है
माहौल ग़मगीन और
एकपक्षीय हो जाता है
तो तुम सेना में जाओगे
तुम्हे कोई और काम नहीं मिला है
तेरा दिमाग ख़राब हो गया है
क्या इसी दिन के लिए तुम्हे
पैदा किया था
पाल पोस कर इतना बड़ा किया था
कि जब हमें सहारा देने का
वक़्त आएगा
तो तुम हमें इतनी
निष्ठुरता से भूल जायेगा
अरे इश्वर न करे कही तुम
सीमा पर शहीद हो गए
तो हम तो कहीं के न राह जायेगें
जीते जी मर जायेंगे
केवल तेरी यादों के सहारे
जिन्दगी कैसे काटेंगे
अरे कुछ तो सोचा होता
अपने इस माँ बाप का
ध्यान तो किया होता
जिनके तुम एकमात्र सहारे हो
फिर हमसे करते क्यों किनारे हो

पर माँ अभी तो तुम
गुड्डू के चयन पर इतनी
प्रसन्नता व्यक्त कर रही हो
तो मेरे चयन पर इतना
अवसादित क्यों हो रही हो
वह भी तो अपनी माँ क
एकमात्र संतान है
जबकि मेरी तो अभी एक
बहन भी विराजमान है
उसके शहादत पर यदि उसके
कुल खानदान का गौरव बढेगा
तो मेरी शहादत से मेरे खानदान का
गौरव क्यों घटेगा
चुप रहों ज्यादा बढ़ बढ़ कर
बातें मत किया करों
अपने बड़ो से जबान
मत लड़ाया करो
आज तक जो तुम्हे नीति धर्म
दर्शन ज्ञान और विज्ञानं की
जो शिक्षा दी गयी है
उसके मर्यादा भंग मत करों
अपनी मर्यादा में रहना सीखों
तुम्हे लेकर अपने भविष्य के
कितने सपने हमने बुन रखा है
ये सब बेकर की बातें
क्या शहीदों को पैदा करने का
हमने ही ठेका ले रखा है

चलो जल्दी से तैयार हो जाओ
चलकर उसे बधाई दे आयें
साथ ही तुम्हारे न जाने का
तर्कसंगत कारण उसे बता आयें

आशु बेमन से तैयार होने लगा
वह निर्मेश की उस पक्ति को
गुनगुनाने लगा
हाथ अपना कटे तो अहसास होता है
दुसरे का कटा हाथ तो बस
एक समाचार होता है
ऐसी स्वार्थयुक्त सोचों से
संकीर्णता का दीवाल खड़ा होता है
मरते तो बहुत लोग
नित्य दुर्घटनाओं में भी
फिर देश की सीमा का नाम ही
क्यों बदनाम होता है

शनिवार, 3 सितंबर 2011

अहसानों का कर्ज



प्रबल बेग से
वरुण देव बरस रहे थे
सावन से भादों दुब्बर नहीं है को
सिद्ध कर रहे थे
लग रहा था कि आज
पूरे बनारस को डुबो कर
ही दम लेगे

खेतों की निगरानी कर
में सीवान से लौट रहा था
वर्षा का आनंद लेते हुए एक
पारंपरिक बनारसी कजरी की
धुन गा रहा था कि
मिर्जापुर कईला गुलजार
कचौड़ी गल्ली सून कईला बलमू
दूर दूर तक कोई भी पशु पक्षी
दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था
सहसा खेत के मेड़ के किनारे
मेरा निगाह गया था
एक कबूतर अपने पंखों को फैलाये
लगा जैसे मरणासन्न पड़ा था
घायल समझ कर मैंने
उसे हाथ लगाया
मेरी सहायता लेने के बजाय
वह और घबराया
मैंने प्रयास कर जब उसे उठाया
उसके पंखों के नीचे
उसके दो बच्चों को पाया
अवाक् रह गया मै
हृदय दग्ध हो हाहाकार कर उठा
एक बेजुबान मां की विशाल ममता देख
मेरा कलेजा भर गया
उसके प्रतिरोध के बावजूद भी
किसी तरह उनको अपने गमछे में लपेट
मै घर लौट आया
दालान में मचान के ऊपर एक
कृत्रिम घोसला बना कर
उस पर मैंने उन्हें ठहराया

दिन बीतते गए
बच्चे शिशु से क्रमशः युवा होने लगे
पर मेरे प्रयास के उपरांत भी
मेरा आवास छोड़ने को वे सब
किसी कीमत पर तैयार नहीं थे
मैंने भी उनसे समझौता कर लिया
उनसे एक अंजना रिश्ता बना लिया
जब भी मै भोजन करता
निडर मेरे पास वो चले आते
मेरे भोजन से वे निःसंकोच
अपन हिस्सा पाते

भादों की स्याह रात
मै दालान में चारपाई पर लेटा था
विविध भारती के गानों को
अपने रेडियो पर सुनते हुए सो गया था
एकाएक उन कबूतरों की आवाज से
नीद मेरा भंग हो गया
बैठ कर सिरहाने देखा
दंग रह गया
एक सर्प मेरे तकिये के पास
करीब पहुँच ही गया था
निकट पास में ही लाश
मादा कबूतर का पड़ा था
चीत्कार कर उठा मन मेरा
मौत को इतने करीब देख
झंकृत हो गया तन
सारा खेल देख

तभी निकट उपलों के ढेर में
वह सर्प ओझल हो गया था
बेशक उस माँ कबूतर ने
मेरे प्राणों की रक्षा के लिए
अपने प्राणों को सहर्ष न्योछावर कर दिया था
मेरे उपकारों का पूर्ण समर्पण से
बदला चुका दिया था
अपने को इस सृष्टि की श्रेष्ठतम
योनिओं से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया था
बेशक उसे पूर्ण विश्वास के साथ
गुमान होगा इस बात का
अपने बच्चों की सम्पूर्ण सुरक्षा
और उनके सुरक्षित भविष्य का
निसंदेह वह अपने परिवार को
मेरे सानिध्य में अत्यधिक ही सुरक्षित
पा रहा था
पर उसके बलिदान ने मुझे
बुरी तरह मंथित कर
अन्दर तक हिला दिया था
उसका इस तरह मेरे अहसानों का
कर्ज चुकाना मुझे भीतर तक
साल रहा था