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बुधवार, 25 जून 2014

पापा का दर्शन

विगत दिनों 
पापा की बरसी थी 
कई दिनों से मैंने 
घाटों की ओर 
रुख नहीं की थी 
आज पापा से जुड़ी 
तमाम यादें मुझे 
विह्वल कर रही थी 
पापा के साथ बितायी 
स्मृतियाँ पल पल 
मुझे अतीत में ले 
जा रही थी 

किस तरह 
पापा के कंधे पर बैठ हम 
नित्य यहाँ आते थे 
गंगा में तैरते और 
झाल मूड़ी पापड़ 
खाते  थे 

पापा के संभावित 
स्पर्श आभास के मोह में 
कदम अनायास 
घाटों की  ओर चल दिये 
शिवाला घाट से लगायत 
हनुमान घाट होते हुए 
हरिश्चंद्र घाट की 
ओर हो लिए 

बाबा मसान ज़ग 
शिला के नेपथ्य  में बैठा 
मै  विचारमग्न था 
एक एक स्मृतियों का 
ताता लग गया था 

तभी श्रीरामनाम सत्य है 
की सामूहिक ध्वनि से
मेरा ध्यान भंग हो चुका  था 
मैं अतीत से वर्तमान में 
वापस गया था 
एक लाश को चार लोग 
लिए सीढ़ियों से उतर रहे थे 
उनमे से एक के कदम 
ठीक से नहीं पड़ रहे थे 
ध्यान से देखने पर 
वह पचहत्तर वर्षीया एक 
संभ्रांत सा दिखता वृद्ध था 
पता नहीं किस मजबूरी में 
स्वयं ठीक से 
चल पाने में अक्षम 
पर उस लाश को 
कंधा दे रहा था
साथ ही आँखों को अपने 
गमछे से लगातार 
पोछे जा रहा था 

एक अज्ञात प्रेरणा से 
मैंने लपक कर उस वृद्ध को 
वहाँ से मुक्त कर 
अपने कंधे को लगाया 
उसकी कृतज्ञता से भरी आँखों में 
मैंने अपार  स्नेह  पाया 

लाश को नीचे पहुंचा कर 
विधिवत कर्मकांड के साथ 
यंत्रवत उसकी चिता सजवाया 
मुखाग्नि के समय में 
यह देख अवाक् रह गया 
जब कफ़न के अंदर 
एक तरुण को पाया 
हतप्रभ शिथिल होकर 
मै सीढ़ियों पर 
उकडू बैठ गया 
घुटनों में सर को छिपाये 
ग़मगीन हो चला 

थोड़े अंतराल के बाद 
मैंने अपने सर पर 
एक स्पर्श मेहसूस किया  
पलट कर देखा तो 
उसी वृद्ध को 
भरी आँखों से अपना 
सर सहलाते पाया 

बचवा का भवा 
तुम्हरी आँख काहे भरि आवां 
एगो लइका रहे ह्मार 
उहौ साथ छोड़ गवा 
उम्मीद रहा कि हमका 
अपने कंधन पर घाट पहुँचइये 
पर दुर्भाग्य हमरा कि 
वही के हम अपने कंधे पर 
लाद के हियँन  लावा हैं 
पर पता नाही काहें 
तुमका देख के बचवा 
हमरी छाती बहुत जुड़ावा हैं 
बबुआ आज के 
मारकाट के जिनगी मॉ 
तुम्हरे जइसन लोग कहाँ होत हैं 
यही सोच हमरी आँख 
अउर भरि आवां हैं 

मै चाहते हुए भी 
उस वृद्ध को यह 
नहीं समझा पा रहा था 
कि मै उसके प्रारूप में आज 
अपने पापा का पुनः 
दर्शन कर रहा था 

डा-रमेश कुमार निर्मेष