इतिहास जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने का श्रेय किसी को देगा तो पहला नाम महामना पं. मदन मोहन मालवीय का होगा। १९वीं शताब्दी तक उत्तर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिन्दी का कोई स्थान नहीं था। परन्तु २० वीं सदी के मध्यकाल तक वह भारत की राष्ट्रभाषा बन गई, उसके पीछे महामना मालवीयजी के ही प्रयास थे जो उस आन्दोलन के आधार बने। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की सदस्यता मालवीयजी ने सभा की स्थापना के प्रथम वर्ष से ही ले ली थी। उसी समय से उन्होंने प्रयाग में वकालत आरम्भ की परन्तु सभा के कार्य कलापों से उन्होंने कभी भी अपने को अलग नहीं रखा। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी भाषा के प्रचार- प्रसार तथा उसे समुचित स्थान दिलाने के लिए किये जाने वाले संघर्ष को जन आन्दोलन का रूप दिया तथा सभा की सम्पदा तथा आर्थिक स्रोतों के विकास के लिये महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। युगपुरुष महामना पं. मदनमोहन मालवीय का जन्म २५ दिसम्बर १८६१ ई. में प्रयाग में हुआ था।
जब बंगाल, उड़ीसा, गुजरात तथा महाराष्ट्र में राजकाज तथा अदालतों की भाषा बन चुकी थी उस समय भी उत्तर प्रदेश की भाषा हिन्दुस्तानी थी और उर्दू को ही हिन्दुस्तानी माना जाता था जो फारसी लिपि में लिखी जाती थी। सन् १८८५ के विधान में यह व्यवस्था थी कि सम्मन आदि अदालती कार्यों में हिन्दी और उर्दू दोनों का प्रयोग हो परन्तु व्यावहारिक रूप में उर्दू का प्रयोग जारी रहा। गवर्नर ने अपने काशी आगमन पर नागरी प्रचारिणी सभा के प्रतिनिधि मण्डल को मिलने का भी समय नहीं दिया और दूसरी ओर रोमन को राष्ट्र की लिपि बनाने का आन्दोलन चला।
इससे पूर्व मालवीयजी बालकृष्ण भट्ट के साथ हिन्दी का कार्य आरम्भ कर चुके थे। भट्ट जी हिन्दी के लिए समर्पित थे और उनके मन में हिन्दी को एक प्रतिष्ठित रूप में देखने की व्यग्रता थी। उस समय प्रयाग में केवल एक ही पुस्तकालय थार्नहिल मैमोरियल लाइब्रेरी के नाम से था जिसमें योरोपियन भाषाओं की पुस्तकों का बाहुल्य था तथा जनरुचि की पुस्तकों का अभाव था। मालवीयजी के प्रयास से उनके निवास स्थान के पास ही भारती भवन पुस्तकालय की स्थापना हुई। पुस्तकालय के नियम के अनुसार यहाँ केवल हिन्दी तथा संस्कृत की ही पुस्तकें खरीदी जा सकती थीं तथा योरोपियन भाषाओं की पुस्तकें केवल दान में प्राप्त की जा सकती थीं। मालवीयजी भारती भवन के ट्रस्टी चुने गये तथा वे जीवनपर्यन्त उसके अध्यक्ष रहे।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना सन् १८९३ ई. में हुई थी। इससे लगभग १ दशक पहले सन् १८८४ में प्रयाग में मालवीयजी के प्रयास से हिन्दी हितकारिणी सभा की स्थापना की गई थी। सर्वश्री माघव प्रसाद शुक्ल, रासबिहारी शुक्ल तथा पुरुषोत्तमदास टण्डन उनके सहयोगी थे। इस संस्था के माध्यम से भारतेन्दु की मान्यता `निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कै मूल' को बल मिला और भारतेन्दु ने जो हिन्दी का सपना देखा था वह मालवीयजी तथा उनके सहयोगियों के हाथों स्वरूप लेने लगा।
सन् १८९४ में मेरठ के दुर्गादत्त ने न्यायालयों में देवनागरी लिपि के प्रयोग के लिए ज्ञापन दिया जो अस्वीकृत हो गया। इस सन्दर्भ में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने लैफ्टीनेन्ट गवर्नर को काशी आमंत्रित किया जिसका सकारात्मक उत्तर मिला। मालवीयजी के ऐतिहासिक प्रयास यहीं से आरम्भ होते हैं।
मालवीयजी ने लैफ्टीनेन्ट गवर्नर से भेंट की तथा हिन्दी न्यायालयों की भाषा बने इसका पक्ष दृढ़ता से प्रस्तुत किया। वे वकालत का काम छोड़ कर इसी कार्य में जुट गए। उच्च न्यायालय के एक कक्ष में लोग उन्हें कानून की पुस्तकों से नहीं वरन् सन्दर्भ पुस्तकों तथा अन्य साहित्यिक पुस्तकों से घिरा हुआ देखते थे। अनेक स्थानों का दौरा करके उन्होंने आंकड़े एकत्र किये तथा एक सौ पृष्ठों का ऐतिहासिक ज्ञापन शासन को देने के लिए तैयार किया। सन् १८९७ में यह दस्तावेज इंडियन प्रेस से प्रकाशित हुआ।
इस कार्य को और गति देने के लिए नागरी प्रचारिणी सभा ने १७ व्यक्तियों की एक समिति का गठन किया। समिति के एक मात्र प्रतिनिधि मालवीयजी थे। प्रतिवेदन में ६० हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे जिनका मत था कि देवनागरी लिपि को ही न्यायालयों की भाषा होने का अधिकार है। यह हिन्दी के लिए पहली सुनियोजित एवं व्यूह बद्ध लड़ाई थी जिसने जनमानस में हिन्दी के प्रति अपराजेय लालसा को जन्म दिया। मालवीयजी के परामर्श से बाबू श्यामसुन्दर दास ने कार्यक्रम को आन्दोलन के रूप में चलाने के लिए नगरों में समितियाँ गठित कीं। जनता के साथ बुद्धिजीवी तथा पत्र पत्रिकाएँ भी इस अभियान से जुड़ गईं।
२० अगस्त सन् १८९६ में राजस्व परिषद ने एक प्रस्ताव पास किया कि सम्मन आदि की भाषा एवं लिपि हिन्दी होगी परन्तु यह व्यवस्था कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी। १५ अगस्त सन् १९०० को शासन ने निर्णय लिया कि उर्दू के अतिरिक्त नागरी लिपि को भी अतिरिक्त भाषा के रूप में व्यवहृत किया जाये। यह मालवीयजी के नेतृत्व में चल रहे प्रयासों की विजय थी परन्तु उर्दू भाषी तथा योरोपियन समुदाय पर इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। लैफ्टीनेन्ट गवर्नर ने मालवीयजी को बात करने के लिए आमंत्रित किया। मालवीयजी उस समय तेज बुखार में थे परन्तु दवाओं का ढेर लेकर वे गवर्नर के पास पहुँचे उसी स्थिति में उन्होंने गवर्नर से दो घण्टे बात की और उन्हें आश्वस्त किया कि वे आन्दोलन की चिन्ता न करें तथा किसी स्थिति में आदेश वापस न लें। यह कार्य मालवीयजी ही कर सकते थे।
हिन्दी प्रदेश की भाषा बन गई थी परन्तु मालवीयजी उसे राष्ट्र की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए चिन्तित थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रारूप प्रस्तुत किया तथा सन् १९१० में काशी में आयोजित प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की। सम्मेलन में देश भर से ३०० प्रतिनिधि तथा विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों के ४२ सम्पादक सम्मिलित हुए। इस अवसर पर अदालतों में नागरी लिपि का प्रचार, उच्च कक्षाओं में हिन्दी का शिक्षण, हिन्दी पाठ्यपुस्तकों का प्रणयन, राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी और नागरी का प्रयोग तथा स्टाम्पों पर हिन्दी का प्रयोग आदि प्रस्ताव पारित किए गये।
सम्मेलन में मालवीयजी ने अत्यन्त मार्मिक अध्यक्षीय भाषण दिया। एक कोष की स्थापना की गयी जिसमें तुरन्त ३५२४ रुपये संग्रहीत हो गये। स्वयं मालवीयजी ने अपने अंशदान के रूप में ११ हजार रुपये देने की घोषणा की। सभा पर ६ हजार रुपये का ऋण था उसे अदा करने का आश्वासन मिला। पं. श्यामबिहारी मिश्र ने मालवीयजी के संबन्ध में कहा था ``हिन्दी की जो उन्नति आज दिखाई देती है उसमें मालवीयजी का उद्योग मुख्य कहना चाहिए। इस अवसर पर हमें दूसरा सभापति इनसे बढ़कर नहीं मिल सकता था।
अपने अध्यक्षीय भाषण में मालवीयजी ने हिन्दी अपनाने, सरल हिन्दी का प्रयोग करने तथा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द ग्रहण करने की अपील की। उनका कहना था कि संस्कृत की पुत्री होने के कारण हिन्दी प्राचीनतम भाषा है।
सन् १९१९ से बम्बई में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए मालवीयजी ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएँ आपस में बहने हैं तथा हिन्दी उनमें बड़ी बहन है। अन्य प्रादेशिक भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी बोलने वालों की संख्या अधिक है। ३२ करोड़ भारत वासियों में ही साढ़े तेरह करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। अत: देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा का स्थान दिया जाना चाहिए। उन्होंने हिन्दी को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाने पर भी बल दिया। उन्होंने आशा व्यक्त की कि कोई दिन आएगा जब अंग्रेजी की तरह हिन्दी भी विश्व भाषा बनेगी। सन् १९३९ में काशी में पुन: आयोजित १८ वें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वे स्वागताध्यक्ष थे। इसी हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने बाद में मालवीयजी के आदर्शों के उत्तराधिकारी पुरुषोत्तमदास टण्डन के नेतृत्व में भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अभिहित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी को एक विषय के रूप में उन्होंने स्थान दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही था जहाँ सबसे पहले हिन्दी में स्नातकोत्तर कक्षाओं में शिक्षा प्रारम्भ हुई। हिन्दी साहित्य में प्रथम शोध भी यहीं प्रस्तुत हुआ था। विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल में मालवीयजी के मन में एक ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करने की परिकल्पना थी जहाँ मातृभाषा में सभी विद्याओं के शिक्षण की व्यवस्था हो। विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में उन्होंने बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अयोध्या सिंह उपाध्याय ``हरिऔध तथा लाला भगवानदीन जैसे विद्वानों की नियुक्ति की। उनकी इच्छा थी कि विश्वविद्यालय में हिन्दी माध्यम से शिक्षा दी जाये परन्तु शिक्षा सचिव बटलर के विरोध के कारण तब ऐसा संभव नहीं हो सका। फिर भी विश्वविद्यालय की रजत जयन्ती के अवसर पर महात्मागांधी की उपस्थिति में मालवीयजी ने विश्वास दिलाया था कि जैसे - जैसे हिन्दी में पुस्तकों की रचना होती जायेगी हिन्दी माध्यम को विस्तार दिया जाता रहेगा। दुर्भाग्य से अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले वे इस लोक से चले गए अन्यथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हिन्दी माध्यम का विश्वविद्यालय होता। यह दायित्व वह दूसरी पीढ़ी पर छोड़ गये हैं। काश! मालवीयजी की इस महान् संस्था के वेतनभोगी उनकी भावना को महसूस कर सकते।
नागरी प्रचारिणी सभा से वे अन्त तक जुड़ कर हिन्दी के लिए कार्य करते रहे। हिन्दी शब्द सागर की पूर्ति पर उन्होंने सभा के नये भवन का शिलान्यास किया था। प्रस्तर मंजूषा में ताम्र पर मालवीयजी के संबन्ध मे लिखा गया -
इस स्थल पर नागरी प्रचारिणी सभा काशी के नवीन भवन का शिलान्यास संस्कार माघ शुक्ल ५ सं. १९८५ विक्रमी को महामना पं मदन मोहन मालवीय के कर कमलों से संपन्न हुआ।
हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में भी मालवीयजी का अवदान अविस्मरणीय रहेगा। उन्होंने कालाकांकर जैसे ग्रामीण अंचल में रहकर हिन्दी के प्रथम दैनिक हिन्दोस्थान का सम्पादन किया तथा अपने सम्पादन से देश में एक नयी वैचारिक क्रान्ति को जन्म दिया। उन्होंने ``अभ्युदय जैसे कई पत्रों का भी सम्पादन किया जिसमें पहली बार राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की रचना प्रकाशित हुयी थी। यदि मालवीयजी न होते तो मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवि प्रेरणा विहीन रहते और उनकी साधना भी शायद इतनी प्रखर न होती।
मालवीयजी स्वयं भी रचनाकार थे। बाल्यकाल से ही वे `मकरन्द' नाम से लिखते थे तथा उनकी रचनाओं का प्रकाशन बाल कृष्ण भट्ट के हिन्दी प्रदीप में होता था। बी.ए. पास करने के बाद ही उन्होंने इलाहाबाद में साहित्य समाज की स्थापना की थी जहाँ साहित्य चर्चा तथा हिन्दी प्रचार का कार्य होता था।
इस प्रकार महामना मालवीय ने बाल्यकाल से जीवन के अन्तिम क्षण तक हिन्दी के लिये अथक कार्य किया। उनके अनवरत प्रयास और संघर्ष केवल भगीरथ की तपस्या के पर्याय हो सकते हैं जिसके फलस्वरूप हम एक गंगा के दर्शन कर सके जिसका नाम राष्ट्र भाषा हिन्दी है।
-जगत प्रकाश चतुर्वेदी
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4 टिप्पणियां:
महामना जी के जन्म-दिन पर सारगर्भित आलेख....नमन !
चलिए किसी ने तो मालवीय साहब को जयंती पर याद किया....साधुवाद.
Behatrin lekh...Naman !!
mALVIYA JI PAR SUNDAR ALEKH.
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