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शुक्रवार, 30 मार्च 2012

संस्कृति का परिमार्जित एक स्वरुप

यात्रिओं से खचाखच
भरा रेल का डिब्बा
दोनों एक दूसरे से
हो रहे थे गुत्थमगुत्था
कहते हुए कुत्ता
एक दूसरे के मध्य माँ बहन की
गालियों का चल रहा था
अबाद्ध आदान प्रदान
मै जडवत डिब्बे के एक कोने में
उन्हें देख रहा था नादान
अपने को रोक पाने में अक्षम
उनके बीच की मध्यस्थता के लिए
मैं सहसा उठा
तभी बगल में बैठे एक वृद्ध ने
मेरा हाथ दाबा अहिस्ता
बोला चुप चाप बैठो
थोड़ी देर में आप ही
समाप्त हो जायेगा सारा किस्सा
मैं मन मसोस कर
अपनी जगह बैठा रहा
रेल अपनी गति से अबाद्ध चलता रहा
मैं आश्चर्य से देख रहा था
झगडा धीरे धीरे क्रमशः
शांत हो रहा था
अब दोनों के मध्य शांति वार्ता का
दौर चल रहा था
परिदृश्य लगभग पूरा ही बदल गया था
इस वार्ता के मध्य अब
हाल चाल का आदान प्रदान होने लगा था
एक दूसरे का साथ
दोनों को ही अब भा रहा था
बीच बीच में हसी की भी
कुछ लडिया दिख रही थी
फिर दोनों ने किसी तरह कुछ
जगह बना कर अपनी अपनी
पोटली खोली थी
सब्जियों के फेर बदल के साथ
किया भोजन जमकर
निश्चिन्त वे दोनों वही सो गए
अपने अपने गमछे विछाकर

बेटा इसीलिए मै तुम्हे
मना कर रहा था
मध्यस्ठ्ता करने पर जानलो
निश्चित ही तुम्हे भी बेशक दो चार
थप्पड़ पड़ना था
मैं तो अक्सर सफ़र में रहते हुए
ऐसे वाकये से पैरचित था
कहकर वह व्यक्ति
मेरी तरफ देखकर मुस्कराया
मुझे अपने इस अबूझ ग्रामीण
संस्कृति से अपरिचित होने के दुःख ने
रास्ते भर सताया
हलाकि यह बात अलग थी कि
अपनी ग्रामीण संस्कृति का यह
परिमार्जित स्वरुप
मुझे अत्यंत ही भाया

2 टिप्‍पणियां:

KK Yadav ने कहा…

Bahut khub likha..badhai.

S R Bharti ने कहा…

अपनी ग्रामीण संस्कृति का यह
परिमार्जित स्वरुप
मुझे अत्यंत ही भाया

बहुत ही बढ़िया कविता लिखी है . अति उत्तम