विगत दिनों
पापा की
बरसी थी
कई दिनों
से मैंने
घाटों
की ओर
रुख नहीं
की थी
आज पापा
से जुड़ी
तमाम यादें
मुझे
विह्वल
कर रही थी
पापा के
साथ बितायी
स्मृतियाँ
पल पल
मुझे अतीत
में ले
जा रही
थी
किस तरह
पापा के
कंधे पर बैठ
हम
नित्य
यहाँ आते थे
गंगा में
तैरते और
झाल मूड़ी
पापड़
खाते थे
पापा के
संभावित
स्पर्श
व आभास के
मोह में
कदम अनायास
घाटों
की ओर
चल दिये
शिवाला
घाट से लगायत
हनुमान
घाट होते हुए
हरिश्चंद्र
घाट की
ओर हो
लिए
बाबा मसान
ज़ग
शिला के
नेपथ्य में
बैठा
मै विचारमग्न
था
एक एक
स्मृतियों का
ताता लग
गया था
तभी श्रीरामनाम
सत्य है
की सामूहिक
ध्वनि से
मेरा ध्यान
भंग हो चुका था
मैं अतीत
से वर्तमान
में
वापस आ
गया था
एक लाश
को चार लोग
लिए सीढ़ियों
से उतर रहे
थे
उनमे से
एक के कदम
ठीक से
नहीं पड़ रहे
थे
ध्यान
से देखने
पर
वह पचहत्तर
वर्षीया एक
संभ्रांत
सा दिखता
वृद्ध था
पता नहीं
किस मजबूरी
में
स्वयं
ठीक से
चल पाने
में अक्षम
पर उस
लाश को
कंधा दे
रहा था
साथ ही
आँखों को अपने
गमछे से
लगातार
पोछे जा
रहा था
एक अज्ञात
प्रेरणा से
मैंने
लपक कर उस
वृद्ध को
वहाँ से
मुक्त कर
अपने कंधे
को लगाया
उसकी कृतज्ञता
से भरी आँखों
में
मैंने
अपार स्नेह
पाया
लाश को
नीचे पहुंचा
कर
विधिवत
कर्मकांड के
साथ
यंत्रवत
उसकी चिता सजवाया
मुखाग्नि
के समय में
यह देख
अवाक् रह गया
जब कफ़न
के अंदर
एक तरुण
को पाया
हतप्रभ
शिथिल होकर
मै सीढ़ियों
पर
उकडू बैठ
गया
घुटनों
में सर को
छिपाये
ग़मगीन
हो चला
थोड़े अंतराल
के बाद
मैंने
अपने सर पर
एक स्पर्श
मेहसूस किया
पलट कर
देखा तो
उसी वृद्ध
को
भरी आँखों
से अपना
सर सहलाते
पाया
बचवा का
भवा
तुम्हरी
आँख काहे भरि
आवां
एगो लइका
रहे ह्मार
उहौ साथ
छोड़ गवा
उम्मीद
रहा कि ऊ
हमका
अपने कंधन
पर घाट पहुँचइये
पर दुर्भाग्य
हमरा कि
वही के
हम अपने कंधे
पर
लाद के
हियँन लावा
हैं
पर पता
नाही काहें
तुमका
देख के बचवा
हमरी छाती
बहुत जुड़ावा
हैं
बबुआ आज
के
ई मारकाट
के जिनगी
मॉ
तुम्हरे
जइसन लोग कहाँ
होत हैं
यही सोच
हमरी आँख
अउर भरि
आवां हैं
मै चाहते
हुए भी
उस वृद्ध
को यह
नहीं समझा
पा रहा था
कि मै
उसके प्रारूप
में आज
अपने पापा
का पुनः
दर्शन
कर रहा था
डा-रमेश
कुमार निर्मेष
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