फ़ॉलोअर

रविवार, 1 फ़रवरी 2009

युवा शक्ति को नमन की जरुरत: BHU में चरण छूने पर प्रतिबन्ध

बनारस अपनी वैदिक परम्पराओं, पांडित्य एवं कर्मकाण्डों के लिए दुनिया भर में मशहूर है। यही कारण है कि महात्मा बुद्ध ने भी वैदिक कर्मकांडो के विरूद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तन से पहले बनारस में अवस्थित सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश दिया। बनारस में स्थित काशी हिंदू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ एवं संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में शिष्यों द्वारा गुरू के चरण छूने की लम्बी परंपरा है। वैसे भी पूर्वांचल में नया अनाज पैदा होने पर जब उसका नेवान किया जाता है तो लोग मुहल्ले भर में घूम कर बड़ों का चरण छूते हैं। इसी प्रकार कभी दान देते समय दाता दान स्वीकार करने वाले का चरण छूता था। इसके पीछे मकसद था कि लेने वाले के मन में याचक का भाव न जगे। पहली नजर में यह अटपटा भी नहीं लगता, पर बदलते दौर में किसी के प्रति आदर प्रकट करने के और भी तरीके हो सकते हैं। चरण छूना आदर का सूचक हो सकता है लेकिन यह दूसरों के अहं को ठेस भी पहुंचाता है। समाजशास्त्रियों की नजर में आज चरण छूना कई मायनों में अच्छा नहीं है क्योंकि चरण छूने की प्रथा छद्म व्यवहार का परिचायक हो रही है। इसके पीछे कुछ लोग दूसरों को भी भ्रम में रखने की कोशिश करते हैं। इसी के मद्देनजर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग ने चरण छूने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसके लिए बकायदा विभाग में नोटिस तक जारी की गई है।

वस्तुतः इस सोच के पीछे काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. एम0के0 चतुर्वेदी एक संस्मरण भी बताते हैं। प्रयाग में कविवर रवीन्द्र नाथ टैगोर आए थे। सब उनका चरण छू रहे थे। एक दृढ़ व्यक्तित्व का धनी सुदर्शन युवक आया। उसने नमस्ते किया और भीतर चला गया। इस घटना ने विश्वकवि को झकझोर कर रख दिया था। वह बहुत देर तक संयत नहीं हो पाए। युवक भी कोई नहीं बल्कि हिंदी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे। प्रो. एम0के0 चतुर्वेदी जे0पी0 आंदोलन के दौरान अज्ञेय से मिलने दिल्ली गए। जैसे ही वह आए, उनके साथ गए लोग अज्ञेय के चरण की ओर लपके। पर अज्ञेय ने कहा कि- ‘‘नहीं! चरण छूने की जरूरत नहीं। युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत है। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ।‘‘ यह बात प्रो0 एम0के0 चतुर्वेदी के मन को अन्दर तक छू गई। अब उन्होंने इससे प्रेरणा लेते हुए अपने समाजशास्त्र विभाग में चरण छूने पर प्रतिबंध लगा दिया है। उनका तर्क है कि दिल की भाषा को दिल समझ लेता है। आदरणीय को अपने मन के भाव को समझाने के लिए चरण छूना जरूरी नहीं है।

30 टिप्‍पणियां:

Amit Kumar Yadav ने कहा…

चरण छूने की जरूरत नहीं। युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत है। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ....Bahut sundar abhivyakti !!

योगेश समदर्शी ने कहा…

यह खबर क्या है? कोई व्यक्ति किसी एक व्यक्ति के किसी कार्य से प्रभावित हो कर एक परंपरा को प्रतिबंधित कर देता है... मुझे इस बात से कोई ऐंतराज नहीं है कि युवाशक्ति को प्रणाम करने की जरूरत है पर पैर छूने के पीछे कुछ तो वैज्ञानिक तथ्य होगा... कोई भी परंपरा कोरी परंपरा तब दिखाई देने लगती है जब उसके पीछे का सिद्धांत औझल हो जाता है गुम हो जाता है.. वैदिक रीति-रिवाज से किये जाने वाले शादी विवाह भी भविष्य में हो सकता है निर्रथक दिखाई देनें लगे, हवन के बारे में कुछ मूढ कहते ही है कि यह घी की फिजूल खर्ची है... गाल मिला कर अभिवादन को बीएचयू स्वीकृति भी दे सकता है, हाथ जोड कर अभिवाद की बजाय हाथ मिला कर अभिवाद की परंपरा तो विकसित हो ही गई है.. पर माफ कीजियेगा मैं इस हालांकि कोई नहीं न तो बीएचयू का स्टूडेट हूं न वहा का शिक्षक पर मैं इस प्रतिबंध का विरोध करता हूं... बडों के समक्ष झुक कर अहं का हनन होता है.. सर उठा कर चलना आत्म सम्मान में फूल जाना और अहं से इतने भर जाना कि अपने से बडों को झुक कर प्रणाम भी न किया जा सके यह सभ्यता का नैतिक पतन है... झुक कर प्रणाम करने से दो तो सीधे सीधे लाभ होते है. एक तो हमारी रीढ की हड्डी की फलैक्शीबलिटी बरकरार रहती है शरीर लोचदार बनता है और दूसरा थोडी देर के लिये ही सही हम जमीन देखते है... बिना जमीन देख कर चलने से नतीजे ठोकर खाने वाले होते है.. अपने से बडों का सम्मान मे झुक कर अभिवादन हमे इस बात का अहसास कराता है कि हम इने आशीर्वच्नों से भी पोषित होते है... नमस्कार करते वक्त भी आप देखें लोगों के सर नीचे की अओर झुकते है... अत झुकने की क्षमता वाले पेड ही फलदार होते है... समाज को सामाजिक चरित्र और कुछ सांकेतिक सभ्यता जैसा सिद्धांत देने वाला सामाजशाष्त्री यदि ऐसे फरमान जारी करे तो इसी क्या कहें... हम सिरे से सारी रूढियों का विरोध करें पर चरित्र का जिस तेजी से हनन हो रहा है पढा लिखा व्यक्ति चात्रिक रूप से स्वच्छंदता की सारी हदें लांघ रहा है... बहुसंख संबंध फैशन हो गये है. बच्चे विक्रित मानसिकता के पैदा हो रहे है.. विचार दूषित हो गये है... जिन नियमों से समाज को उत्क्र्षटता दी जा सकती थे वह नषट हो रहे है उन्की चिंता समाज शाष्त्रियों को करनी चाहिये न कि तालीबानी निर्देश जारी करने का काम... आज प्यार और कामुकता के नाम पर युवा वर्ग जिस चरित्र हीनता और दूषित मानसिकता का शिकार हो रहा है उस पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत है... सबी रिवाज रूढिवादी नहीं होते, नहीं होते, नहीं होते...

मसिजीवी ने कहा…

कई विश्‍वविद्यालयी विभागों विशेषकर हिन्‍दी तथा संस्‍कृत आदि में चरण स्‍पर्श की नौटंकी अभी तक देखने में आती है...मजेदार बात यह है कि यदि थोड़ा ध्‍यान से आब्‍जर्ब किया जाए तो वे अध्‍यापक जो गोबरपट्टी से आए होते हैं उन्‍हें अथवा वे विद्यार्थी जो इन जगहों से आते हैं व, इन बीमारियों से ज्‍यादा ग्रसित होते हैं। इसकय अक्‍सर किसी आदर से कोई लेना देना नहीं होता...सामंती तथा ब्राह्मणवादी अहम को सहलाना भर इनका उद्देश्‍य होता है। हमारे खुद के कुछ विद्यार्थियों ऐसे हैं कि वे जब हमारी ओर आते हैं तो मुझे एक विशेष मुद्रा अपनानी पड़ती है जो उनके झुकने से पहले उन्‍हें रोककर ऐसा न करने की हिदायत देने के लिए है...बड़ी असहज मुद्रा है ये।

इतना कह चुकने के बाद भी बैन करना बेहद मूर्खतापूर्ण कदम है इन चक्रवर्ती साहब को ये अधिकार किसने दिया कि वे दूसरों की अभिवादन पद्धति तक का निर्देशन करें...वे ऐसा कर सकते हैं ये ही कोई कम सामंती सोच नहीं है। विद्यार्थियों को चाहिए कि इस नियम का विरोध करें।

अमित माथुर ने कहा…

भारत का संविधान भारत के नागरिको को एक मौलिक अधिकार देता है "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता". मेरे विचार से वैलेंटाइन दे पर फूल देना, होली के दिन रंग-गुलाल लगाना, दिवाली पर दीपक जलाना, हैलो, नमस्ते, सत्सरीअकाल बोलना, आदाब करना, और किसी के भी चरण छूना अभिव्यक्ति का एक प्रकार है. उस बेवकूफ प्रोफेसर पर भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन करने का मामला बनता है. किसी के ज़बरदस्ती चरण चूने के लिए कहने पर पाबंदी लगाई जाए तो सही भी है मगर सम्मान की अभिव्यक्ति के तौर पर किसी के भी चरण छूने पर पाबन्दी लगाना सरासर बेहूदा फ़ैसला है. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सम्मानित गुरुदेव से इस प्रकार की आशा नहीं की जा सकती. -अमित माथुर

Anil ने कहा…

maafi chahunga hindi me nahi likh pa raha hun......
kabeer das ji ne kaha tha
"guru govind dou khade kake lagon paw
balihari guru aapne govind diyo batay"
to kya agey ji sahi the ya fir kabeer ji sawaal yah uthta hai.....

avashya dekhen
www.aajkapahad.blogspot.com

रश्मि प्रभा... ने कहा…

युवा-शक्ति नए युग का प्रतीक है,पर हमारी परंपरा यूँ ही नहीं थी,
बड़ों के चरण से एक आशीष की ज्योत निकलती है,'खुश रहो' कहना
वातावरण में सूक्ष्मता से व्याप्त होता है,शरीर को स्पर्श करता है....
यह दिखाई भले न दे,पर इसका असर होता है......युवा-शक्ति नमन के योग्य ही तभी होती है,जब वह बड़ों के आगे झुकना जानती है,वरना अहम् का कीडा उसे अल्प समय में बर्बाद कर देगा,
..... यह मेरी सोच है, मैं यही मानती हूँ !

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) ने कहा…

भाई, आपने इतने गूढ़ विषय पर लिखा है की इस पर कुछ भी टिप्पडी कर पाना सम्भव नही हो पा रहा है मेरे लिए . ..मैं तो एक सीधा सदा तुकबन्द हूँ . पृष्ठभूमि बनारस की है तो एक स्वाभाविक लगाव होना संभावित था. जो भी लिखा ही आपने, पढ़कर अच्छा लगा.

Sushil Kumar ने कहा…

अपने देश में पाश्चात्य संस्कृति के चलन का असर यह है कि हम उनका अंधानुकरण कर उनके जैसा ही आधुनिक और सभ्य कहलाना चाहते हैं, इस कारण अपनी रीति-रिवाजों और परम्पराओं को दकियानुसी कहकर उनके चाल-चलन और रिवाजों को अपनाकर आधुनिक बन जाना चाहते हैं। पर प्रगतिशील होने के लिये अपनी माटी और परम्परा से जुड़ना,उसके संघर्ष-गाथा को सम्मान देना जरूरी होता है।बात अभिवादन के तरीके पर बहस करने की नहीं,अपनी परम्परा से जुड़ने की है।‘चरणाविंदम गुरुदेवम नमामि’ की संस्कृति को छोड़कर हम थोड़े पश्चिमी भूत बन पायेंगे! उसके लिये तो हमें उनके विज्ञान और रिसर्च से आगे निकलना होगा,न कि हाय- हैलो करके और न कि उनके रीति-रिवाज और परम्परा को अपनाकर।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आपका सँस्मरण पढा -

मैँ अमरीका मेँ रहते हुए भी
मुझ से बुजुर्ग इन्सान के
चरण स्पर्श करने से नहीँ चूकती !

यह हर इन्सान का अपना निर्णय है -

शायद भारत मेँ रहते हुए,
कई लोगोँ को
हमारी परम्पराओँ मेँ से इसी तरह
की कई प्रथाएँ,
दकियानूसी या पुरातन पँथी सरीखी लगतीँ होँ
और खास कर,
युवा वर्ग पैर छू ने को
अपने अहम्`
पर ठेस लगना भी समझते होँ ..

या,
ग्रामीण इलाकोँ का प्रतिनिधि भी ..

ये अपना- अपना खयाल है !

अगर कोई
आपके चरण
झुक कर छूता है
तब आप तुरँत,
उस इन्सान को स्वयम झुक कर उठाते हुए,
आशिष ही देँगे ..

ए्क्स्पेरिमेन्ट/ experiment
करके देख लिजिये ..

खुद हमारे आगे झुक कर
चरण स्पर्श करते हुए इन्सान को
आप धक्क्का मार कर
गिराने की तो नहीँ ना सोचते ? :)

अगर अज्ञेय जी ने
युवावस्था मेँ,
रवीन्द्र नाथ ठाकुर के
चरण स्पर्श ना किये
तो वह उनकी निजी सोच थी --

हरेक व्यक्ति आज़ाद है !
अपना निर्णय स्वयम करे
कि उसे
२१ वीँ सदी मेँ
क्या रखना है
और किन प्रथाओँ को
तिलाँजलि देनी है -
ये मेरे विचार हैँ -
- लावण्या

pran sharma ने कहा…

NAMASKAAR KAREN YAA PRANAAM,BAAT
TO EK HEE HAI .PRANAAM KEE BHAANTI
NAMASKAAR JHUK KAR KARNE KEE
PARAMPARAA HAI.YADI THODAA AAGE
BADH KAR BADON YAA GURUON KE CHARAN
CHHOOYEN JAAYEE TO KYA HARZ HAI?
KAHTE HAIN KI HATHELION MEIN URJAA
HOTEE HAI.KHEDJAB MUNH SE NIKLE HUE
AASHIRVAAD KE ROOP MEIN SHABDON KE
SAATH VAH URJAA PRANAAM KARNE
WAALE KEE BUDDHI MEIN PRAVESH KARTI
HAI TO APNA PRABHAAV AVASHYA
CHHOTEE HAI.
KHED HAI KI CHARAN CHOONE KEE
PARAMPARAA LUPT HOTEE JAA RAHEE HAI
LEKIN SHAASTRIYA SANGEETKAAR ISE
AB BHEE JEEVIT RAKHE HUE HAIN.

Satish Pancham ने कहा…

चरण स्पर्श की परंपरा अपने आप में बहुत अच्छी है लेकिन उसका अब अर्थ बदल गया है अब एक प्रकार के दिखावे की भावना का कुछ अंश शामिल हो गया है। और यही बात इस परंपरा को धूमिल करती नजर आ रही है। बहरहाल, जिन गुरूजन ने इस प्रकार की पाबंदी लगाई है, शायद वह भी इस दिखावे के अंश को भांप चुके हैं तभी ऐसा निर्देश आदि दिया है वरना मुझे नहीं लगता कि वह भीतरी तौर से ऐसा चाहेंगे कि चरण स्पर्श की प्रथा या कहें कि आशीर्वाद की प्रथा पर प्रतिबंध लगे।

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar ने कहा…

हमारे देश में प्राचीन कल से गुरुकुलों में बच्चों को गुरु द्वारा ,घर में बड़ों द्वारा ,चरण स्पर्श करना
सिखलाया जाता था .यह एक संस्कार था .लेकिन आज खद्दर धारियों ने इस चरण स्पर्श की परिभाषा और माने ही बदल दिया है .आज के समाया मेंचरण स्पर्श का मतलब ...कुछ जुगाड़ ,कोई स्वार्थ ,या और कुछ .वैसे मेरे गुरु प्रो.रघुवंश (पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी ,इलाहबाद विश्वविद्यालय )
भी चरण स्पर्श के घोर विरोधी hain .उनका कहना hai की सम्मान मन में होना चाहिए
हेमंत कुमार

अनूप शुक्ल ने कहा…

युवा शक्ति को नमन है!

अभिषेक मिश्र ने कहा…

Charan sparsh karna aapki vinamrata ka bhi parichayak hai. Agar dikhave ke liye ho to jaroor gaur karna chahiye. Meri rai mein paraspar namaskar ek accha pryog ho sakta hai.

निर्मला कपिला ने कहा…

ये मेरे भारत को क्या हो गया है1युवा शक्ति किस मापदंड मे आप शक्ति कि परिभाषा लेते हैं जो आज कल के युवाओं मे पनप रही है या जोअज से पहलेवीरों समाज सेवियों शहीदों मे थी क्या अमरीका जा कर मुझे लगता है आज कि चकाचौँध मे युवा अपने आगे आने वाली पीढी का भविश्य नहि देख पा रहा कोइ समय आयेगा जब वो प्रनाम तो दूर माँ-बाप गुरु की ओर देखना भी पसंद नही करेगा युवा शक्ति को जब युवा शक्ति को राह दिखाने वाले गुरु कोको प्रणाम की जरूरत नहीं तो युवा शक्ति को नमन की जरूरत क्यों पड गयी 1 मै योगेश समदर्शी जी से बिल्कुल सहमत हूँ

archana ने कहा…

युवा-शक्ति नए युग का प्रतीक है,मानती हूँ पर चरण स्पर्श हमारी सभ्यता ही नही आदर भाव भी है जो दिल से किया जाता है ......प्रोत्सहान के लिए धन्यबाद

Akanksha Yadav ने कहा…

...सबका अपना-अपना नजरिया है.चरण छूने से ज्यादा महत्वपूर्ण दिल में उमड़ रहा भावों की है.

बेनामी ने कहा…

यह बड़ा ही आस्था से जुडा हुआ सवाल है. पर जिस तरह से चरण छूना समाज में एक सापेक्ष प्रक्रिया होती जा रही है, वह बड़ा ही विचारणीय है. मेरे मत में यह अंतत:संबंधों की ऊष्मा पर निर्भर करता है.

Unknown ने कहा…

कभी दान देते समय दाता दान स्वीकार करने वाले का चरण छूता था। इसके पीछे मकसद था कि लेने वाले के मन में याचक का भाव न जगे....पर अब तो जमाना बदल रहा है.व्यक्ति देता बाद में है, अहसान पहले थोपता है.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

यदि चरण छूने से किसी के अहम् की संतुष्टि होती हो तो मैं इसके विररुध हूँ. दुर्भाग्यवश आज गुरु-शिष्यों के सम्बन्ध में वो पवित्रता भी नहीं रही. मटुकनाथ-जूली का केस इसका ज्वलंत उदाहरण है.

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

यदि मैं नेताओं की तरह कहूं कि- नो कमेन्ट !!

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

आपने हिन्दू धर्म में चरण छूना बड़ा संवेदनशील मामला है.कभी-कभी तो किसी के पांव न छुओ तो बड़ी अजीब स्थिति पैदा हो जाती है.माता-पिता भी टोकने लगते हैं...पर वक़्त के साथ बहुत कुछ बदला है. कभी गुरु भगवान का रूप था, पर अब शायद वह भी प्रोफेशनल हो गए हैं. कई बार गुरुओं के द्वारा शिष्यों के साथ अभद्रता की खबरें आई हैं तो आज भी दलितों के साथ ग्रामीण-पाठशालाओं में ऊँची जाति के गुरुओं द्वारा जो व्यवहार होता है, किसी से छुपा नहीं है. बेहतर होगा कि इस प्रतिबन्ध को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाये....,.वैसे भी भारतीय संस्कृति भाव को महत्त्व देती है न कि दिखावे को.

Bhanwar Singh ने कहा…

जैसा देशा वैसा भेष. मैं रश्मि जी की बातों से इत्तफाक रखता हूँ.

ravi ने कहा…

yadi koi indian clture ka is tarah majak banata h or wo bhi ek respective guru to hamara desh samvednayo se mar gaya h kahne k aalawa mere pas koi word nahi bachte

राजीव करूणानिधि ने कहा…

किसी को सम्मान देने के कई तरीके हैं. पैर छूना भी सामने वाले के प्रति श्रधा भाव दिखाने के समान है. पर ये डिपेंड करता है कि वो व्यक्ति उस लायक होना चाहिए. अगर पैर छूना काम की तरह हो या जबरन छुवाया जाय तो मै इसके सख्त ख़िलाफ़ हूँ.

Doobe ji ने कहा…

charan chune mein koi burai nahi thi lekin kuch logon ne ise chatukarita ke liye subha sham istemal karna shuru kar diya .....bus ho gayee durgati ek achi bhartiya parampara ki .

Ashk ने कहा…

चरण -स्पर्श पर भी विवाद हो सकता है , ऐसा सोचा न था ।
किसी व्यक्ति के प्रति आदर या श्रद्धा प्रकट करने के लिए हमारी संस्कृति में चरण-स्पर्श की परम्परा है । स्कूलों-कालेजों में शिक्षकगण के प्रति आदर प्रकट करने के लिए विद्यार्थी उनके चरण छूकर उनका आशीर्वाद लेते हैं । कुछ सच्चे मन से आदर-श्रद्धा के कारण चरण स्पर्श करते हैं , कुछ शिष्टाचारवश और कुछ मात्र दिखावे के लिए ऐसा करते हैं ।
जो चरण छूता है वह जानता है कि वह किस कारण ऐसा कर रहा है । जिसके चरण स्पर्श किए जा रहे हैं वह भी जानता है कि चरण स्पर्श करने वाले कि भावना कैसी है ।
टैगोर हों या अज्ञेय उनके अनुभव उनके हैं । बी एच यू के समाजशास्त्र के विभागाध्यक्ष के अनुभव उनके अपने हैं । अपने निजी अनुभवों के आधार पर विभाग में चरण-स्पर्श पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन नहीं किया जा सकता । आप अपने घर में चाहे जो परम्परा विकसित कर लें ,कॉलेज सार्वजानिक स्थान है । समाज-शास्त्र विभाग उनकी निजी संपत्ति नहीं है ।
चरण-स्पर्श की परम्परा पर यह प्रतिक्रिया मात्र आपके द्वारा उठाए विषय के सन्दर्भ में है।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

अच्छे अच्छे प्रगतिशीलो की कलई खुल गयी।
अब आप बताईये इस महान परम्परा के तहत क्या किसी दलित का पैर छूने का रिवाज़ है? अब कोई एक दो उदाहारण देकर बात घुमाये मत क्योकि अपवाद नियम नही होते। बडा हमेशा हो ज़रूरी नही मैने गाँवों मे 80 वर्ष के दलित को कोई साल के बच्चे के पैरो पर झुकते देखा है।
चरणाविंदम गुरुदेवम नमामि’ की संस्कृति दरसल वही संस्कृति है जिसमे एकलव्य ने अगूठा कटवाया,ये वही गुरू थे जो शम्बूक के कानो मे पिघला शीशा डालते थे और राजपूत्रो की चाकरी करते थे।
क्या बुरा है नमस्कार मे? और पाश्चात्य को गरियाइये पर आक्सफ़ोर्ड मे पैर नही छूते पर शिक्षा का स्तर कहाँ है देख लीजिये।
अपने यहां ये पैर छुआने वाले आधुनिक द्रोणाचार्य जाति और ज़ेन्डर को लेकर कितना ज़हर पालते है,किस तरह विश्वविद्यालयो मे जातिवाद फैलाते है क्या छुपा है। पर जिसके हित इसीसे सधते हो वो तो करेगा ही समर्थन्। जनवाद तो कविता के लिये आरक्षित है।
हाथ मिलाना डेमोक्रेटिक है और पैर छुआना,कोर्निश करना,घुटनो पर झुक कर अभिवादन सामन्ती।
मै इस पहल का स्वागत करता हूँ । ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद,जातिवाद मुर्दाबाद। समता,एकता और जनवाद ज़िन्दाबाद

Chaaryaar ने कहा…

saathi meri khabar ko jagah dene ke liye dhanyavad.

बेनामी ने कहा…

चरण छूने की जरूरत नहीं। युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत है। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ. इस लाइन ने दिल मोह लिया है..