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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

मानों विराट क्षितिज को दे दिया हो जैसे एक छोटा सा बसेरा

बापू के अवसान के उपरांत
माँ को मै गाँव से शहर लाया
सोचा माँ के ममता की
बनी रहेगी मुझ पर छाया
काफी दिनों से दूर था
मुझसे मेरी माँ का साया
चूंकि बापू की बीमारी और
गाँव को न छोड़ने की चाहत ने
मुझे कई बार सिद्दत से तडपाया
टीस हमेशा थी की अपनी
इच्छानुसार मै उनकी
सेवा कर नहीं पाया
एक पिता की चाहत होती है
उम्र के इस मुकाम पर
हरदम रहे पुत्रो का साथ
जीवन की इस राह पर
पर रोजी रोटी के ठौर ने
इस जैविक चाह को
जी भर कर रुलाया
बापू को न चाहते हुए भी
मैंने है बहुत तरसाया
किसी तरह माँ को दे दिलासा
अपने साथ लाया
बेशक माँ तो गाँव छोड़ने को
नहीं थी तैयार
बापू के यादों से भरा था घर द्वार
पर अंत में यह समझ कर की
वह हो गयी है अब बेकार
पहले तो बापू की सेवा में
दिनरात गुजर जाता था
रात को भरपूर नीद आता था
पर कैसे कटेगे यहाँ दिन और रात
काटने को दौडेगे खेत
खलियान और बाग़
यह सोच कहीं बबुआ
चला चली अब तोहरे ही साथ
हमरे ऊपर ज रही तोहार हाथ
तो हमारो नैया हो जाई पार
स्टेशन से जी भर गाँव को देखा
पुनः माँ के माथे पर देख
चिंता की रेखा
मैंने कहा माँ कहे तू होए रहू उदास
ऐजेहा फिर आवा जायेगा
बापू का याद तजा किया जावेगा
ऐसा कह मै उन्हें हँसाने का
करने लगा एक असफल प्रयास
पर कभी विशाल खेत खलियान
और बखरी होते थे जिनके गवाह
शहर की संकीर्ण जिंदगी में
रुक गया उनके जीवन का प्रवाह
किसी के पास उनके करीब
बैठने के लिए समय नहीं
अकेले बालकनी में बैठी
रहती थी आपही
बस देखती सूरज को होते अस्त
पत्नी गृहकार्य और बच्चो के
होम्वोर्क में व्यस्त
शेष समय दूसरों से गप्पें
मारने में मस्त
बच्चे आधुनिक पदाई से पस्त
में भी हो चला था क्रमशः
अपराधबोध से ग्रस्त
शायद माँ सबके लिए बोझ बन गयी थी
लग रहा था किसी तरह
जिंदगी की गाड़ी को खीच रही थी
ऊपर से अपनी प्रेयसी के बार बार
माँ के आने से अन्पैठ
लगने की बात
पहुचाते बहुत ही ह्रदय पर आघात
में बेबस हो चला था लाचार
में चाह कर भी नहीं छेदता
अपने साले साली और सास
के आने की बात
जिनके आने पर घर में छा जाती थी
रौनक और खुशियों की बरसात
बच्चे भी उड़ाते बात बात में
माँ का उपहास
सबके मध्य मेरे समायोजन का प्रयास
माँ का देख चेहरा उदास
जी किया माँ को ले गाँव ही लौट जाऊ
छोड़ कर नौकरी घर वही बसौऊ
तभी दिखता मुझे
एक तरफ अतीत तो
दूसरी तरफ भविष्य करता परिहास
कार्यालय से आने पर
में माँ की गोद में रख सर
अपने बचपन की यादे ताजा करते हुए
माँ के साथ अपनी भी
पूरी करता इछ्छा
वह भी हर शाम बेसब्री से करती
मेरे कार्यालय से लौटने की प्रतीक्षा
सोचता हूँ कैसी
अभागी है आज की पीढ़ी
चढ़ाना चाहती है ऊपर
निचे गिरा कर सीढ़ी
ये जानेगे क्या माँ के आँचल
और गोद की ममता
सच तो यह है की जिन्सवाली माँ पर
आँचल कहाँ है फबता
आज का युवा तो बस
नौकरों के हाथ ही पलता
बरबस में सोचता की में
माँ को कौन सा सुख दे रहा हूँ
अपने स्वार्थ के लिए उन्हें
खेत खलिहानों से दूर कर
उसे दुःख ही तो दे रहा हूँ
जैसे एक स्वतंत्र गौरैया को
पिजड़े में डौल कर रख दिया
उसके पास चावल का कसोरा
मानों विराट क्षितिज को दे दिया हो
जैसे छोटा सा एक बसेरा
निर्मेश सच जहाँ हो अपने चाहनेवाले
वही होता है परिवार
खून के रिश्ते तो अब
लगने लगे है बेकार

2 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

आज के समाज की निर्ममता को बेहद सहजता से प्रस्तुत किया है…………सच आज माँ एक अनचाही वस्तु से ज्यादा नही रह गयी और माँ ही क्यों जो भी अकेला रह जाये फिर चाहे बाप भी क्यों ना हो……………आज सभी अपनी आज़ादी चाहते हैं……………इस दर्द को बखुबी उकेरा है।

KK Yadav ने कहा…

अजी बहुत खूब...साधुवाद.