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शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

दीपावली मैंने मना लिया

नित्य की भाँती
काशी के महाश्मसन की सिदियों से चदता
खानाबदोश की तरह
जीवन मरण की गुत्थियों से उलझता
पुनः सुलझाता
अंतस्तल में अंतर्द्वान्द्वा के दिए को जलाता बुझाता
गलियों से गुजरने को उद्यत
संभवतः रात्रि का द्वितीय पहर
आतिशबाजियों से पटा सन्नाटे को चीरता शहर
पास में मरघट
अपने अभीष्ट को साधता तांत्रिको का जमघट
कुल मिलकर समवेत में कह सकते है
हास्य और रुदन का मिश्रित स्वर
जीवन मरण का अद्भुत संगम
एक ओर घाट के ऊपर खुशियाँ जहा ले रही थी अग्डैया
सजी चहुँ ओर दीपो की लडिया
आधुनिक झालर और बत्तियां
वही दूसरी ओर गली के एक माकान में
दिखी कुछ स्याह परछियाँ
ध्यान से देखने पर पाया
मकान पर वृध्हाश्रम था लिखा
खिडकियों से झाकती दिखी
कुछ बुदी कातर और याचक निगाहें
झुकी कमर और कमजोर बाहें
उत्सुक्तावास अन्दर मैं प्रविष्ट हुआ
ख़ुशी के इस मौके पर मुझे देख
उनके अन्दर हुआ आशा का संचार
उनको लगा हूँ मैं कोई तारणहार
जो आया है उनके जीवन में
दीपावली की निशा में रौशनी जलाने
पर देख मेरे हाथ खाली
उनकी सोच लग गयी ठिकाने
मैं एकटक उनके बारे में अपनी उपयोगिता सोचता रहा
उनके लिए अपना अर्थ ढूढता रहा
उन किस्मत की मारी मों के बीच अपनी माँ को ढूढता रहा
जेब में मोबाइल लगातार घनघना रहा था
शायद घर से फोन आ रहा था
मनाने को त्यौहार
छोड़ने को पठाखे और अनार
कर उसे मैं स्विच ऑफ
उनके करीब बैठ गया लेकर लिहाफ
वस्तुतः मैं महाकाल के दर्शन के लिए आया था
इसीलिए विशेष कुछ साथ नहीं लाया था
चल्पदा उनसे बातों का दौर
टूटने लगा उनका मौन
कुछ ने अपनी व्यथा बेबाक सुनाई
अपने बहू बेटियों की बातें बताई
कुछ से उनके परिवार उनकी चेष्टाओं और उनके प्रति
उनके कर्तव्यों के बारे में पूछता रहा
घंटो उनके कष्टों से दो चार होता रहा
उनकी मौनता और उनके आसुओं में प्रतिउत्तर पता रहा
मैंने कहा माते ये कैसी है विवशता
चाह कर भी इन आँखों से आंसू नहीं है निकलता
देख ऐसी विपन्नता
शायद ये सूख चुके है
अपना मायने खो चुके है
हो गया है क्या इस आज की पिदी को
जीने पर चढ़ कर जो तोड़ती है सीदी को
क्यों परिचित नहीं वो इन बातो से
स्तन में दूध न होने पर भी लगाई रही होगी उन्हें अपने तन से
शायद कई बार दूध के बदले में स्तनों से रक्त भी रिसता रहा हो
अपने उस रक्त को भी उतने ही प्रेम से श्रद्धा व स्नेह से
बिना दर्द के जिसने उन्हें पिलाया हो
पर शायद ही कभी उन्हें अपने से दूर किया हो
जिस माँ ने उन्हें अपने रक्त मिश्रित दूध से सीचा है
उन्हें क्यों इन्होने अपने जीवन से उलीचा है
सिहर गया तन
हा हकार कर उठा मन
मैंने अपने अप को संभालने का किया प्रयास
क्यों टूटते दिख रहे सब आस
चारो और देख अत्म्रता स्वार्थपरता
यद् आती हमें बरबस जीवनमूल्यों से युक्त
अपने अतीत की सम्पन्नता
मै जानता था
उन्हें मै भी दे पाउँगा नहीं सिवाय
मीठे कुछ सहानुभूति के बोल
अशई मन से अपनी जेबे रहा था टटोल
चाँद रुपयों ने मेरी लाज बचाई
मैंने कहा माई
रख ले इसे आप आज
कल होगा कुछ साधनों के साथ पुनः मिलाप
देखता हु मै आपके घाओं पर कितना मलहम लगा पता हूँ
क्योकि मै अक्सर अपने विचारों को किये आत्मसात
सिमित संसाधनों के साथ
स्वयं को नितांत अकेला पाता हूँ
बुदी आखों के झरझर
आंसुओं ने मुझे किया विदा
मुझे लगा मैंने
दीपावली मना लिया

5 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आपको साधुवाद, आपकी दीवाली सफल हुयी।

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

अंकल, आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं...बधाई.

KK Yadav ने कहा…

बहुत गहरे भाव लिए कविता..बधाई.

mridula pradhan ने कहा…

bahot achchi.

प्रेम सरोवर ने कहा…

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