शरद जरा
फ़ैल कर लेट रहो और
डब्बू तू भी ऊपर वाली बर्थ पर
जाकर फ़ैल रहो
हियन हम नीचे लेटा है
पता नहीं कहाँ कहाँ से
बिना रिजेर्वेशन के
सब चले आते है
थोड़ी सी जगह देखी नहीं कि
घुसक आते है
एक आधुनिक सी दिखनेवाली
महिला कि कर्कश आवाज दिल में
पिघलते शीशे कि तरह समाते है
दोपहर के दो बज रहे थे
कम्पार्टमेंट में भीड़ बहुत था
में अपने घर कानपुर
मम्मी को देखने जा रहा था
अचानक उनकी तबियत ख़राब होने से
नन्नू का बुलावा आया था
मै वही खड़े खड़े सब
तमाशा देख रहा था
पर्याप्त जगह होने के उपरांत भी
में खड़ा था
ऑफिस से सीधे स्टेशन के
लिए भागा था
लाइन में लग कर
किसी तरह टिकट पाया था
इस प्रक्रिया में
थक कर चूर हो गया था
इधर कुछ दिनों से ब्लड यूरिया
बढे होने से पैर भी सूज गया था
खड़े होने में अक्षम होने के कारण
वहीँ जमीन पर बैठ गया था
सामने कि बर्थ पर
उन तीनो को अकारण ही
दिन में लेटे हुए देख रहा था
कोई खाए बिना मरे कोई
खाय खाय कर मरे के
बारे में सोच रहा था
किसी तरह दोपहर के बाद
शाम भी ढलने लगी थी
ट्रेन भी काफी लेट हो चुकी थी
अब थकन के कारण कमर
सीधी करने कि इक्षा हो रही थी
मुझे जमीन पर ही लेटने दे
उक्त आशय का मैंने
उस महिला से अनुरोध किया
मगर उसने बिना किसी लाग लपेट के
सीधे मना कर दिया
बोली रिजेर्वेशन करवाया है
कोई हराम का बर्थ नहीं मिला है
तुम्हारे जैसे लोगो को मै
खूब पहचानती हूँ
हाथ पकड़ कर पंहुचा पकड़ने के
बारे में भी जानती हूँ
मै निराश एक हाथ में चादर
और एक हाथ में बैग लिए
दरवाजे की ओर बढ़ा
तभी एक वृद्ध व्यक्ति का
आवाज कानो में पड़ा
बेटा हिएन आ जाओ
अहिजे लेट जाओ
इस उमर में वैसे भी
नीद कहाँ आवत है
लेटे लेटे भी दिन कहाँ कटत है
काफी देर से हम तुमका देख रहे
तुम्हरी तबियत ठीक ना लगत है
तुम हमरी बर्थ पर हिएन लेट जाओ
हम किनारे पर बैठा है
कृतज्ञता से मै उस
वृद्ध को देख रहा था
अपने पिता की छबि
उसमे पा रहा था
पास बैठने पर उस वृद्ध ने कहा
बेटा क्या करोगे
तुम्हरी पीढ़ी की ही यह देन है
कोई किसी पर विश्वास नहीं करता
किसी कि मुसीबत में
कोई साथ नहीं देता
वह महिला भी कही से नहीं गलत है
आये दिने तो हम अख़बार में पढ़त है
बाकी हमार अनुभव से हम जानत है
सही और गलत को पहिचानत है
उस वृद्ध कि सुन बाते
मन हो गया उदास
मैंने भी ली एक गहरी साँस
सोच रहा था कि क्या हम
इसी को इक्कीसवी सदी कह रहे है
इस कदर विकसित और आधुनिक हो रहे है
कि अपनों का ही विश्वास खो रहे है
ऐसे विकास का क्या है दावा
वस्तुतः यह तो स्वयं को
देना है एक छलावा
ऐसा विकास तो सिर्फ
अब लगता है एक दिखावा
बुधवार, 4 मई 2011
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3 टिप्पणियां:
विकास की अट्टालिकाओं के नीचे विश्वास दफन हो दया है।
वस्तुतः यह तो स्वयं को
देना है एक छलावा
ऐसा विकास तो सिर्फ
अब लगता है एक दिखावा ...satik bat kahi kavita ke madhyam se..badhai.
वस्तुतः यह तो स्वयं को
देना है एक छलावा
ऐसा विकास तो सिर्फ
अब लगता है एक दिखावा ...satik bat kahi kavita ke madhyam se..badhai.
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