किनारे सड़क के
पड़ा वह कराह रहा था
चोट इस कदर था कि
रह रह कर बिलबिला रहा था
संवेदना शून्य लोगो का
आवागमन अबाध जारी था
सबका हृदय मानो
पाषाण वत हो गया था
कुछ हिम्मत करके रुकते
देख आहें भरते
हमदर्दी जाहिर कर कुछ सोच
पुनः आगे बढते
एक आवश्यक कार्य से निकला
मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बना
रुक गए मेरे कदम
देख उसे बेदम
आरजू कितनो से की कि रुके
उसे अस्पताल पहुचाने में
मेरी सहायता करे
पर किसी के कान पर
देखा नहीं जू रेगते
तभी दो भिक्छुक यात्रियों ने
मेरा हाथ बटाया
उसे समय से अस्पताल पहुँचाकर
मेरे काम को आसान बनाया
उसकी जेब से मिले
डायरी कीसहायता से मैंने
उसके घर वालों को खबर कर दिया था
स्वयं इमरजेंसी के बाहर बैठ
उनकी प्रतीक्षा कर रहा था रहा
इस मूल्यहीनता का कारण खोजता रहा
कभी देवदत्त द्वारा एक पक्षी को
घायल करने व पुनः सिद्धार्थ द्वारा
उसे बचाने के इतिहास के निहितार्थ को
वर्तमान परिवेश से जोड़ता रहा
कभी एक भयाक्रांत आवाज पर
जहाँ रहबरों के भी पांव
ठिठक जाते रहे
आज वही राहगीरों के
कदम भी रुकने से रहे
मुंह में पान का दे नेवाला
कानूनी दांव पेच का दे हवाला
अपने नैतिक कर्तव्यों और
सामाजिक दायित्वों से
कर लिया किनारा
थामे विकास का दामन
आज मानव वैश्विक व्यावसायिक करण का
शिकार बन चुका है
निज स्वार्थ में इस कदर रम चुका है
कि उस विकास के नेपथ्य से दिखती
मानवीय मूल्यों की विनाशलीला
उसे दिखाई नहीं देती
ऐसी किसी भी घटना या दुर्घटना का
पड़ता नहीं उस पर कोई असर
सीना ताने विकास कि राह पर
चलता वह बेखबर
ऐसी घटनाओं या इनकी पुनरावृत्ति पर
निश्चित ही यह महानगरों की
भागती जीवनशैली का प्रभाव है
जहाँ येन केन एक दूसरे के सर पर
रख कर पैर आगे बढ़ना ही
मानव का स्वभाव है
छोडो कौन पड़े झमेले में के
जुमले का अनुगामी बनता है
सोचता नहीं कि कभी वह भी
ऐसी घटनाओ का पात्र बन सकता है
तब ऐसे जुमले कि आवृति के कारण
अपने परिवार को
अनाथ छोड़ सकता है
उपरांत इसके हमें आदत पड़ गयी है
हर मूल्यहीनता को मानते
पश्चिम कि देन
जबकि सच्चाई पश्चिम आज भी
हमारे संपन्न अतीत के कारण को
जानने को है बेचैन
जिसे हम त्याग करते है
विकसित होने का दावा
कवल गट्टेको त्याग
कमल डंडियों का कर चयन
देते स्वयं को छलावा
पड़ा वह कराह रहा था
चोट इस कदर था कि
रह रह कर बिलबिला रहा था
संवेदना शून्य लोगो का
आवागमन अबाध जारी था
सबका हृदय मानो
पाषाण वत हो गया था
कुछ हिम्मत करके रुकते
देख आहें भरते
हमदर्दी जाहिर कर कुछ सोच
पुनः आगे बढते
एक आवश्यक कार्य से निकला
मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बना
रुक गए मेरे कदम
देख उसे बेदम
आरजू कितनो से की कि रुके
उसे अस्पताल पहुचाने में
मेरी सहायता करे
पर किसी के कान पर
देखा नहीं जू रेगते
तभी दो भिक्छुक यात्रियों ने
मेरा हाथ बटाया
उसे समय से अस्पताल पहुँचाकर
मेरे काम को आसान बनाया
उसकी जेब से मिले
डायरी कीसहायता से मैंने
उसके घर वालों को खबर कर दिया था
स्वयं इमरजेंसी के बाहर बैठ
उनकी प्रतीक्षा कर रहा था रहा
इस मूल्यहीनता का कारण खोजता रहा
कभी देवदत्त द्वारा एक पक्षी को
घायल करने व पुनः सिद्धार्थ द्वारा
उसे बचाने के इतिहास के निहितार्थ को
वर्तमान परिवेश से जोड़ता रहा
कभी एक भयाक्रांत आवाज पर
जहाँ रहबरों के भी पांव
ठिठक जाते रहे
आज वही राहगीरों के
कदम भी रुकने से रहे
मुंह में पान का दे नेवाला
कानूनी दांव पेच का दे हवाला
अपने नैतिक कर्तव्यों और
सामाजिक दायित्वों से
कर लिया किनारा
थामे विकास का दामन
आज मानव वैश्विक व्यावसायिक करण का
शिकार बन चुका है
निज स्वार्थ में इस कदर रम चुका है
कि उस विकास के नेपथ्य से दिखती
मानवीय मूल्यों की विनाशलीला
उसे दिखाई नहीं देती
ऐसी किसी भी घटना या दुर्घटना का
पड़ता नहीं उस पर कोई असर
सीना ताने विकास कि राह पर
चलता वह बेखबर
ऐसी घटनाओं या इनकी पुनरावृत्ति पर
निश्चित ही यह महानगरों की
भागती जीवनशैली का प्रभाव है
जहाँ येन केन एक दूसरे के सर पर
रख कर पैर आगे बढ़ना ही
मानव का स्वभाव है
छोडो कौन पड़े झमेले में के
जुमले का अनुगामी बनता है
सोचता नहीं कि कभी वह भी
ऐसी घटनाओ का पात्र बन सकता है
तब ऐसे जुमले कि आवृति के कारण
अपने परिवार को
अनाथ छोड़ सकता है
उपरांत इसके हमें आदत पड़ गयी है
हर मूल्यहीनता को मानते
पश्चिम कि देन
जबकि सच्चाई पश्चिम आज भी
हमारे संपन्न अतीत के कारण को
जानने को है बेचैन
जिसे हम त्याग करते है
विकसित होने का दावा
कवल गट्टेको त्याग
कमल डंडियों का कर चयन
देते स्वयं को छलावा
4 टिप्पणियां:
BAHUT KUCH DIKHATI HAI APKI YE RACHNA
JAI HIND JAI BBHARAT
बहुत बढिया
सम्राट बुंदेलखंड
bhaut sarthak rachna...
खूबसूरत प्रस्तुति.. बधाई.
एक टिप्पणी भेजें