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गुरुवार, 28 जुलाई 2011

सुक्खू चाचा की अंतिम थाली








माँ के बुलावे पर


पिछले दिनों मै गाँव गया था


सुबह अपनी बखरी में बैठा


चाय पी रहा था


बबलू दादी दादी चिल्लाते हुए


घर के अन्दर गया


मुझे लगा कि इसे क्या हो गया


तभी देखा पीछे से सुक्खू चचा


अपने कंधे पर झोला डाले


धीरे धीरे आ रहे थे


मुझे अपने बचपन में लिए जा रहे थे




हाँ तक़रीबन हर इतवार को ही


वह सिल बट्टे को कूटने


गाँव में चले आते थे


पैसे के साथ ही भरपेट भोजन पाते थे


एक गाँव कि खबर को


दूसरे गाँव पहुचाते थे


एक बेफिक्र अलमस्त जीवन के साक्षी बने


जो कुछ भी कमाते थे


उसी से संतोष कर ठीकठाक


परिवार चलाते थे


पर इधर काफी महीनो बाद


उनसे मुलाकात हुई


पास बैठने पर हाल चाल के साथ


तमाम तरह की बात भई


कहने लगे बिटवा तू त


द्विज क चाँद होई गवा


अइसन पढ़ लिख लिया कि हमन के


एकदमे भूल गवा


कहा दद्दा इ दाल रोटी क मजबूरी हौ


वरना इ कौन दूरिये हौ


शहर में तो हमरो दम घुटत है


यहाँ तो फिर भी साफ ताज़ी हवा मिलत है




तभी अम्मा बाहर निकली


बोली सुक्खू अब तोहर जरूरत नइखे


बडका बेटवा नॉएडा वाला


एक मिक्सी दीन है लाइके


उ बिजली से चलत है


सिलबट्टा से बढ़िया कम करत है


सब कम फटाफट समेटत है


अब तो सिल बट्टा वैसे ही पड़ा है


रुका आइल हौवा त खाना


कम से कमखायके जैया


आगे से तू भले ही मत आइय





सुन सुक्खू चचा को लगा कि जैसे


काठ मार गया


गिरते गिरते उन्होंने दीवाल थाम लिया


बोले सहूईन एहे त दू चार घर बचा रहा


जेकर हमका असरा रहा


जिनगी हत गयल ई पिसे वाली मशिनिया से


कैसे जियल जाई हमअन से


लगत आ कि इहो गाँव अब छूटिये जाई


कैसे जिनगी कटी हो माई


मेरी और देख बोले बेटवा


हमरे जिम्मे दस गाँव रहा


एक एक कर सब छुट रहा


ई मशीन त मारसकि पाहिले


खेत खलिहान क मजदूरी छुड़वा


थोड़ा जौन ई सब बचा रहा


ओहून में आग लगावा
कहते हुए सुक्खू चाचा


बैठ गए धम्म से जमीन पर


तभी माँ अन्दर से ले आयी दाल रोटी


और प्याज थाली में परोसकर



अनमने मन से सुखु ने


थाली को थाम लिया


कोरो से आंसुओं को रोकने कि


असफल चेष्टा करता रहा


अपने गंदे गमछे से उन्हें पोछता हुए


बेमन से खाना शुरू कर दिया


मै मौन पूरे घटना चक्र को


यंत्रवत देख रहा था


चूँकि मुझे भी आज शहर निकलना था


अतः माँ ने भोजन कि एक थाली मुझे


भी परोस दिया था


मै कभी सुखु चाचा को


कभी अपने घर में उनकी


इस अंतिम थाली को देख रहा था


उनकी भावनाओं में


उनके साथ बह रहा था


भोजन में तो जैसे मन ही


नहीं रम रहा था


किसी तरह उदरपूर्ति का प्रयास कर रहा था




साथ ही देख रहा था


मरते हुए इन गरीब


भारतीय कामगारों को


बाजारवाद के प्रभाव से


जो मार रहा था इन्हें बेभाव से


सोचता बेशक बाजारवाद ने जहाँ दिया


हमें बहुत कुछ है


पर बदले में छीना भी


हमसे काफी कुछ है






7 टिप्‍पणियां:

सागर ने कहा…

bhaut hi mamrik post...

मनोज कुमार ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
मनोज कुमार ने कहा…

आपकी कविता जीवन के विरल दुख की तस्‍वीर है, इसमें समाई पीड़ा पारंपरिक कारीगरों की दुख-तकलीफ है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज मशीनीकरण के कारण कितने लोंग बेरोजगार हो रहे हैं इसका जीवंत वर्णन किया है

vidhya ने कहा…

bahut hi sundar

vidhya ने कहा…

आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें

लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

वाह! कितनी सादगी, सुन्दरता से और सूक्ष्म विश्लेषण किया है...
सुन्दर...
सादर...