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शनिवार, 3 सितंबर 2011

अहसानों का कर्ज



प्रबल बेग से
वरुण देव बरस रहे थे
सावन से भादों दुब्बर नहीं है को
सिद्ध कर रहे थे
लग रहा था कि आज
पूरे बनारस को डुबो कर
ही दम लेगे

खेतों की निगरानी कर
में सीवान से लौट रहा था
वर्षा का आनंद लेते हुए एक
पारंपरिक बनारसी कजरी की
धुन गा रहा था कि
मिर्जापुर कईला गुलजार
कचौड़ी गल्ली सून कईला बलमू
दूर दूर तक कोई भी पशु पक्षी
दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था
सहसा खेत के मेड़ के किनारे
मेरा निगाह गया था
एक कबूतर अपने पंखों को फैलाये
लगा जैसे मरणासन्न पड़ा था
घायल समझ कर मैंने
उसे हाथ लगाया
मेरी सहायता लेने के बजाय
वह और घबराया
मैंने प्रयास कर जब उसे उठाया
उसके पंखों के नीचे
उसके दो बच्चों को पाया
अवाक् रह गया मै
हृदय दग्ध हो हाहाकार कर उठा
एक बेजुबान मां की विशाल ममता देख
मेरा कलेजा भर गया
उसके प्रतिरोध के बावजूद भी
किसी तरह उनको अपने गमछे में लपेट
मै घर लौट आया
दालान में मचान के ऊपर एक
कृत्रिम घोसला बना कर
उस पर मैंने उन्हें ठहराया

दिन बीतते गए
बच्चे शिशु से क्रमशः युवा होने लगे
पर मेरे प्रयास के उपरांत भी
मेरा आवास छोड़ने को वे सब
किसी कीमत पर तैयार नहीं थे
मैंने भी उनसे समझौता कर लिया
उनसे एक अंजना रिश्ता बना लिया
जब भी मै भोजन करता
निडर मेरे पास वो चले आते
मेरे भोजन से वे निःसंकोच
अपन हिस्सा पाते

भादों की स्याह रात
मै दालान में चारपाई पर लेटा था
विविध भारती के गानों को
अपने रेडियो पर सुनते हुए सो गया था
एकाएक उन कबूतरों की आवाज से
नीद मेरा भंग हो गया
बैठ कर सिरहाने देखा
दंग रह गया
एक सर्प मेरे तकिये के पास
करीब पहुँच ही गया था
निकट पास में ही लाश
मादा कबूतर का पड़ा था
चीत्कार कर उठा मन मेरा
मौत को इतने करीब देख
झंकृत हो गया तन
सारा खेल देख

तभी निकट उपलों के ढेर में
वह सर्प ओझल हो गया था
बेशक उस माँ कबूतर ने
मेरे प्राणों की रक्षा के लिए
अपने प्राणों को सहर्ष न्योछावर कर दिया था
मेरे उपकारों का पूर्ण समर्पण से
बदला चुका दिया था
अपने को इस सृष्टि की श्रेष्ठतम
योनिओं से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया था
बेशक उसे पूर्ण विश्वास के साथ
गुमान होगा इस बात का
अपने बच्चों की सम्पूर्ण सुरक्षा
और उनके सुरक्षित भविष्य का
निसंदेह वह अपने परिवार को
मेरे सानिध्य में अत्यधिक ही सुरक्षित
पा रहा था
पर उसके बलिदान ने मुझे
बुरी तरह मंथित कर
अन्दर तक हिला दिया था
उसका इस तरह मेरे अहसानों का
कर्ज चुकाना मुझे भीतर तक
साल रहा था

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की लगाई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।