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शनिवार, 30 जुलाई 2011

रचनाधर्मिता के विविध आयामों को सहेजतीं : आकांक्षा यादव

ब्लागिंग-जगत में बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो एक साथ ही प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी निरंतर छप रहे हैं. इन्हीं में से एक नाम है-आकांक्षा यादव जी का. आकांक्षा जी कॉलेज में प्रवक्ता के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लाॅगिंग के क्षेत्र में भी उतनी ही प्रवृत्त हैं।


इण्डिया टुडे, कादम्बिनी, नवनीत, साहित्य अमृत, वर्तमान साहित्य, अक्षर पर्व, अक्षर शिल्पी, युगतेवर, आजकल, उत्तर प्रदेश, मधुमती, हरिगंधा, पंजाब सौरभ, हिमप्रस्थ, दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, स्वतंत्र भारत, राजस्थान पत्रिका, वीणा, अलाव, परती पलार, हिन्दी चेतना (कनाडा), भारत-एशियाई साहित्य, शुभ तारिका, राष्ट्रधर्म, पांडुलिपि, नारी अस्मिता, चेतांशी, बाल भारती, बाल वाटिका, गुप्त गंगा, संकल्य, प्रसंगम, पुष्पक, गोलकोंडा दर्पण इत्यादि शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आकांक्षा यादव अंतर्जाल पर भी उतनी ही सक्रिय हैं. विभिन्न वेब पत्रिकाओं- अनुभूति, सृजनगाथा, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, वेब दुनिया हिंदी, रचनाकार, ह्रिन्द युग्म, हिंदीनेस्ट, हिंदी मीडिया, हिंदी गौरव, लघुकथा डाट काम, उदंती डाट काम, कलायन, स्वर्गविभा, हमारी वाणी, स्वतंत्र आवाज डाट काम, कवि मंच, इत्यादि पर आपकी रचनाओं का प्रकाशन निरंतर होता रहता है. विकिपीडिया पर भी आपकी तमाम रचनाओं के लिंक उपलब्ध हैं।


अपने व्यक्तिगत ब्लॉग 'शब्द-शिखर' के साथ-साथ पतिदेव कृष्ण कुमार जी के साथ युगल रूप में बाल-दुनिया, सप्तरंगी प्रेम, उत्सव के रंग ब्लॉगों का सञ्चालन उन्हें अग्रणी महिला ब्लागरों की पंक्ति में खड़ा करता है. इसके अलावा भी वे तमाम ब्लॉगों से जुडी हुयी हैं.

30 जुलाई, 1982 को सैदपुर, गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) के एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्मीं और सम्प्रति भारत के सुदूर अंडमान में हिंदी ब्लागिंग की पताका फहरा रहीं आकांक्षा जी न सिर्फ हिंदी को लेकर सचेत हैं बल्कि इसके प्रचार-प्रसार में भी भूमिका निभा रही हैं. दो दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित पुस्तकों/ संकलनों में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं तो आकाशवाणी से भी रचनाएँ तरंगित होती रहती हैं. नारी विमर्श, बाल विमर्श और सामाजिक मुद्दों से सम्बंधित विषयों पर आप प्रमुखता से लेखन कर रही हैं. कृष्ण कुमार जी के साथ "क्रांति-यज्ञ:1857-1947 की गाथा" पुस्तक का संपादन कर चुकीं आकांक्षा जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर चर्चित बाल-साहित्यकार डा. राष्ट्रबंधु द्वारा सम्पादित "बाल साहित्य समीक्षा (कानपुर)" पत्रिका ने विशेषांक भी जारी किया है।


विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थानों द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु उन्हें दर्जनाधिक सम्मान, पुरस्कार और मानद उपाधियाँ प्राप्त हैं. भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’भारती ज्योति’, ‘‘एस0एम0एस0‘‘ कविता पर प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा पुरस्कार सहित तमाम सम्मान शामिल हैं. आकांक्षा जी के पतिदेव श्री कृष्ण कुमार यादव भी चर्चित साहित्यकार और ब्लागर हैं, वहीँ इस दंपत्ति की पुत्री अक्षिता (पाखी) भी 'पाखी की दुनिया' के माध्यम से अभिव्यक्त होती रहती है. सहजता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति आकांक्षा यादव अपनी रचनाधर्मिता के बारे में कहती हैं कि-'' मैंने एक रचनाधर्मी के रूप में रचनाओं को जीवंतता के साथ सामाजिक संस्कार देने का प्रयास किया है. बिना लाग-लपेट के सुलभ भाव-भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य उभरें, यही मेरी लेखनी की शक्ति है.''

आशा की जानी चाहिए कि आकांक्षा जी यूँ ही अपने लेखन में धार बनाये रखें, निरंतर लिखती-छपती रहें और हिंदी साहित्य और ब्लागिंग को समृद्ध करती रहें.

जन्म-दिन पर असीम शुभकामनाओं सहित...!!
_______________________________________________________
रत्नेश कुमार मौर्य :
जन्म- 14 जुलाई, 1977 को. मूलत: उत्तर प्रदेश के मऊ जनपद के निवासी. आरंभिक शिक्षा-दीक्षा जवाहर नवोदय विद्यालय, जीयनपुर-आजमगढ़ और तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र में परास्नातक. सम्प्रति उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन कौशाम्बी जनपद में अध्यापन पेशे में संलग्न. अध्ययन, लेखन का शौक. फ़िलहाल इलाहाबाद में निवास. दर्शन शास्त्र का विद्यार्थी होने के चलते कई बार यह जीवन भी दर्शन ही लगने लगता है.अंतर्जाल पर ‘शब्द-साहित्य’ ब्लॉग के माध्यम से सक्रियता !!

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

सुक्खू चाचा की अंतिम थाली








माँ के बुलावे पर


पिछले दिनों मै गाँव गया था


सुबह अपनी बखरी में बैठा


चाय पी रहा था


बबलू दादी दादी चिल्लाते हुए


घर के अन्दर गया


मुझे लगा कि इसे क्या हो गया


तभी देखा पीछे से सुक्खू चचा


अपने कंधे पर झोला डाले


धीरे धीरे आ रहे थे


मुझे अपने बचपन में लिए जा रहे थे




हाँ तक़रीबन हर इतवार को ही


वह सिल बट्टे को कूटने


गाँव में चले आते थे


पैसे के साथ ही भरपेट भोजन पाते थे


एक गाँव कि खबर को


दूसरे गाँव पहुचाते थे


एक बेफिक्र अलमस्त जीवन के साक्षी बने


जो कुछ भी कमाते थे


उसी से संतोष कर ठीकठाक


परिवार चलाते थे


पर इधर काफी महीनो बाद


उनसे मुलाकात हुई


पास बैठने पर हाल चाल के साथ


तमाम तरह की बात भई


कहने लगे बिटवा तू त


द्विज क चाँद होई गवा


अइसन पढ़ लिख लिया कि हमन के


एकदमे भूल गवा


कहा दद्दा इ दाल रोटी क मजबूरी हौ


वरना इ कौन दूरिये हौ


शहर में तो हमरो दम घुटत है


यहाँ तो फिर भी साफ ताज़ी हवा मिलत है




तभी अम्मा बाहर निकली


बोली सुक्खू अब तोहर जरूरत नइखे


बडका बेटवा नॉएडा वाला


एक मिक्सी दीन है लाइके


उ बिजली से चलत है


सिलबट्टा से बढ़िया कम करत है


सब कम फटाफट समेटत है


अब तो सिल बट्टा वैसे ही पड़ा है


रुका आइल हौवा त खाना


कम से कमखायके जैया


आगे से तू भले ही मत आइय





सुन सुक्खू चचा को लगा कि जैसे


काठ मार गया


गिरते गिरते उन्होंने दीवाल थाम लिया


बोले सहूईन एहे त दू चार घर बचा रहा


जेकर हमका असरा रहा


जिनगी हत गयल ई पिसे वाली मशिनिया से


कैसे जियल जाई हमअन से


लगत आ कि इहो गाँव अब छूटिये जाई


कैसे जिनगी कटी हो माई


मेरी और देख बोले बेटवा


हमरे जिम्मे दस गाँव रहा


एक एक कर सब छुट रहा


ई मशीन त मारसकि पाहिले


खेत खलिहान क मजदूरी छुड़वा


थोड़ा जौन ई सब बचा रहा


ओहून में आग लगावा
कहते हुए सुक्खू चाचा


बैठ गए धम्म से जमीन पर


तभी माँ अन्दर से ले आयी दाल रोटी


और प्याज थाली में परोसकर



अनमने मन से सुखु ने


थाली को थाम लिया


कोरो से आंसुओं को रोकने कि


असफल चेष्टा करता रहा


अपने गंदे गमछे से उन्हें पोछता हुए


बेमन से खाना शुरू कर दिया


मै मौन पूरे घटना चक्र को


यंत्रवत देख रहा था


चूँकि मुझे भी आज शहर निकलना था


अतः माँ ने भोजन कि एक थाली मुझे


भी परोस दिया था


मै कभी सुखु चाचा को


कभी अपने घर में उनकी


इस अंतिम थाली को देख रहा था


उनकी भावनाओं में


उनके साथ बह रहा था


भोजन में तो जैसे मन ही


नहीं रम रहा था


किसी तरह उदरपूर्ति का प्रयास कर रहा था




साथ ही देख रहा था


मरते हुए इन गरीब


भारतीय कामगारों को


बाजारवाद के प्रभाव से


जो मार रहा था इन्हें बेभाव से


सोचता बेशक बाजारवाद ने जहाँ दिया


हमें बहुत कुछ है


पर बदले में छीना भी


हमसे काफी कुछ है






सोमवार, 25 जुलाई 2011

संवेदनशून्यता



किनारे सड़क के
पड़ा वह कराह रहा था
चोट इस कदर था कि
रह रह कर बिलबिला रहा था
संवेदना शून्य लोगो का
आवागमन अबाध जारी था
सबका हृदय मानो
पाषाण वत हो गया था
कुछ हिम्मत करके रुकते
देख आहें भरते
हमदर्दी जाहिर कर कुछ सोच
पुनः आगे बढते

एक आवश्यक कार्य से निकला
मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बना
रुक गए मेरे कदम
देख उसे बेदम
आरजू कितनो से की कि रुके
उसे अस्पताल पहुचाने में
मेरी सहायता करे
पर किसी के कान पर
देखा नहीं जू रेगते
तभी दो भिक्छुक यात्रियों ने
मेरा हाथ बटाया
उसे समय से अस्पताल पहुँचाकर
मेरे काम को आसान बनाया

उसकी जेब से मिले
डायरी कीसहायता से मैंने
उसके घर वालों को खबर कर दिया था
स्वयं इमरजेंसी के बाहर बैठ
उनकी प्रतीक्षा कर रहा था रहा
इस मूल्यहीनता का कारण खोजता रहा
कभी देवदत्त द्वारा एक पक्षी को
घायल करने व पुनः सिद्धार्थ द्वारा
उसे बचाने के इतिहास के निहितार्थ को
वर्तमान परिवेश से जोड़ता रहा
कभी एक भयाक्रांत आवाज पर
जहाँ रहबरों के भी पांव
ठिठक जाते रहे
आज वही राहगीरों के
कदम भी रुकने से रहे
मुंह में पान का दे नेवाला
कानूनी दांव पेच का दे हवाला
अपने नैतिक कर्तव्यों और
सामाजिक दायित्वों से
कर लिया किनारा

थामे विकास का दामन
आज मानव वैश्विक व्यावसायिक करण का
शिकार बन चुका है
निज स्वार्थ में इस कदर रम चुका है
कि उस विकास के नेपथ्य से दिखती
मानवीय मूल्यों की विनाशलीला
उसे दिखाई नहीं देती
ऐसी किसी भी घटना या दुर्घटना का
पड़ता नहीं उस पर कोई असर
सीना ताने विकास कि राह पर
चलता वह बेखबर
ऐसी घटनाओं या इनकी पुनरावृत्ति पर
निश्चित ही यह महानगरों की
भागती जीवनशैली का प्रभाव है
जहाँ येन केन एक दूसरे के सर पर
रख कर पैर आगे बढ़ना ही
मानव का स्वभाव है
छोडो कौन पड़े झमेले में के
जुमले का अनुगामी बनता है
सोचता नहीं कि कभी वह भी
ऐसी घटनाओ का पात्र बन सकता है
तब ऐसे जुमले कि आवृति के कारण
अपने परिवार को
अनाथ छोड़ सकता है
उपरांत इसके हमें आदत पड़ गयी है
हर मूल्यहीनता को मानते
पश्चिम कि देन
जबकि सच्चाई पश्चिम आज भी
हमारे संपन्न अतीत के कारण को
जानने को है बेचैन
जिसे हम त्याग करते है
विकसित होने का दावा
कवल गट्टेको त्याग
कमल डंडियों का कर चयन
देते स्वयं को छलावा

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

आज कि सावित्री


अपने मित्र सुमित के
डेल्ही बेल्ली देखने के आमंत्रण पर
शहर के एक मल्टी प्लेक्स के
भूतल पर
हम टिकट के लिए लाइन में थे
भाई साहेब प्लीज
दो टिकट हमारी भी ले ले
संबोधन सुन मै अचकचा गया
पास में एक नौजवान को
ह्वील चेयर पर पाया
साथ में निर्विकार भाव से
चेयर को संभालते हुए
उसके बालों को सवारते एक
सभ्य सुगढ़ युवती दिखी
सहानुभूति वस मैंने
उनकी टिकट लेली
इसी बीच कई अज्ञात आंखे
हमें घूरती रही

औपचारिक धन्यवाद् प्राप्त कर
हम दोनों हाल की ओर चल दिए
चाह कर भी आगे उनकी
सहायता करने से बचते रहे
पुनः भाई साहेब की आवाज आयी
उसने एक बार और
सहायता कि गुहार लगाई
विचलित पुनः मन यह देख कि
वह दोनों पैर से पंगु था
स्वयं से उठ तक नहीं पा रहा था
किसी तरह हमने उक्त युवक को
सहारा दे उसे उसकी
सीट पर बिठाया

इसी बीच पिक्चर
प्रारंभ हो गया था
पर मेरा चिंतनशील और खोजी मन
रह रह कर उन्ही पर जा रहा था
उनके बीच पति पत्नी का सम्बन्ध
उनके आपसी वार्तालाप से
स्पष्ट हो गया था
बड़े ही जतन से एक दूसरे के हाथो को
अपने हाथ में लिए
वे पिक्चर देखते
बड़े प्रेम से आपस में
परिचर्चा करते
परदे पर दी जा रही तथाकथित
हर गालीयों पर अपनी
प्रतिक्रिया व्यक्त करते
बीच बीच में पत्नी उसे
कोल्डड्रिंक और स्नेक्स बड़े प्यार से
अपने हाथों से सर्व करती
रह रह कर उसके बालों में
उंगलिया फिराते हुए
बालों को बुहारती
कहीं से भी बनावटी नहीं
लग रही थी
साक्षात् सत्यवान की
आधुनिक सावित्री दिख रही थी

एकबारगी तो मुझे भी लगा
कि कहीं मै स्वप्न तो नहीं देख रहा
आज के परिवेश में ऐसे पति के साथ
ऐसा सामंजस्य एक कल्पना ही तो रहा

मै भावुक हो पिक्चर कम
उन्हें ज्यादा देख रहा था
शुन्य में ताकता निमग्न सोच रहा था
क्या ये आधुनिका कल्पित
भारतीय नारी है
विकलांग पति पर लुटा रही
खुशियाँ सारी है
आखिर यह इसे कौन सा भौतिक
या दैहिक सुख दे रहा होगा
इसे तो बस कष्ट ही कष्ट
हो रहा होगा
तभी लगा कि अगर यह
मेरे द्वारा कल्पित कष्ट पा रही होती
तो घर में ही सीडी पर पति को
वांछित पिक्चर दिखा दी होती
न कि इतने समर्पित ढंग से
पति के बड़े परदे पर
पिक्चर देखने कि इक्षा को
साकार कर रही होती

मेरे सामने सागर सा शांत
धीर निश्छल निस्वार्थ अप्नत्वा से भरा
सच्चा प्यार आकार लेने लगता है
जो इन सब से कहीं दूर
केवल मन की ही बात सुनता है
व स्थापित मानको और मापदंडो से
ऊपर का अहसास होता है
जो किसी किसी को ही
नसीब होता है

बेशक है इतिहास का सत्यवान तो
फिर भी सर्वांगसुंदर था
आधुनिक सत्यवान विकलांग
मगर भाग्यवान बन
मेरे सामने विराजित था
इस आधुनिक सावत्री का आचरण
इतिहास कि सावित्री पर भारी था
अभी तक तो मै वर्तमान परिवेश में
आधुनिकता के नाम पर
वैभव विलास और स्वार्थ में
आकंठ डूबे रिश्तों को जहाँ
तार तार होते देख रहा था
पर आज उन्ही रिश्तों के मध्य
तपती रेत के बीच
वारिस कि फुहारों कि मानिंद
प्रोफेश्न्लिस्म मानसिकता के ज़माने के मध्य
उस आधुनिक नारी के भावों को देख
श्रद्धा से नतमस्तक हो गया था

इतने पश्चिमी विप्लव के उपरांत भी
अपने अतीत की बची हुई
संस्कृति पर एक बार
पुनः मुझे गर्व हुआ था

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

कैसे-कैसे शौक

दिन था इतवार का
आराम के इजहार का
मीठे सपनो संग सो रहे थे
टूटे ख्यालों मे खो रहे थे
तभी ग्रहमंत्री ने झकझोर दिया था
हमको उठने का जोर दिया था

बोली भोर भयी सोते ही रहोगे
क्या सपनो मे खोते ही रहोगे
घर का सारा काम बकाया
दिनकर कितना ऊपर चढ़ आया

जाओ चाहे लौट नहाना
कुछ गेहूं हैं आज पिसाना
हर दिन तो दफतर जाते हो
पर छुट्टी मे घर मे घुस जाते हो
हमको चाहे न ले जाना
पर बच्चों को है आज घुमाना
इतना सुनकर हम उठ जागे
झटपट शौचालय को भागे

दैनिक क्रिया से निपट चुके तब
मीठी वाणी मे हमसे बोले सब
मिलकर जोर बजाओ ताली
अब जायेंगे हम आम्रपाली

यही सोच कर कदम बढ़े
पड़ोसी के घर जा ठहरे
सोचा कुछ उन्हे बता डालें
पर वहां नही दिखे चेहरे

आवाज सुनी आई बाला
जिसे देख पड़ा लब पर ताला
पूंछा उससे सब गये कहां
तुम तड़प रही हो यहां वहां
वह बोली होकर मतवाली
सब गये आज आम्रपाली
कह गये मुझे तुम रूको यहीं
घर की मांजो जूठी थाली

घर लौटे हम बनकर भोले
ग्रहणी से हंस कर बोले
जल्दी भी करो हे भाग्यवान
न छोड़ो चितवन की कमान

ऐसा भी न सिंगार करो
जो दर्पण भी जाये हार
कितने तो छाती पीटेंगे
कितने झट मारेंगे कटार

ग्रहणी मुस्का कर बोली
अब अजी रहो तुम चुपचाप
मेरे मन का तो कर न सके
नित देते नये.- नये संताप
ग्रहणी के ऐसे बचन सुने
झटपट होठों को सी डाला
हम अक्स देख भये मूर्क्षित
जैसे देखी हो “मधुशाला ”

टैम्पो से जैसे ही उतरे
झट से सम्मुख आया माली
चाहे ले लो गलहार पुष्प
चाहे लो कानो की बाली
बाबूजी बीबी यदि पहनेगीं
तो लगेंगी जैसी मधुबाला
“मधुबाला” भी शर्मायेंगी
लगेंगी कोई सुरबाला


यह सुनकर रणचन्डी प्रगटीं
हुंकार भरी ली अंगड़ाई
बोली जा पामर भाग अभी
क्या तेरी है शामत आई
बोली जा पामर भाग-भाग
नही ऐसी खैर बनाऊंगी
निज पावों की ऊँची सैंडिल को
तेरे सिर पर सैर कराऊंगी


आम्रपाली के फाटक पर
दर्शक दीर्घा की भीड़ भयी
लम्बी लाइनो को देख-देख
हमारी गति तो अति क्षीण भयी
मौके का फायदा पा करके
बहती गंगा मे हाथ धुले
दर्शक दीर्घा मे समाय गये
और अन्दर बिना टिकट निकले
अन्दर अचरज मे डूब गये


तेजी से फड़क उठा गुर्दा
पल भर के लिये हम भूल गये
कि हम जिन्दा हैं या मुर्दा
चहुँ ओर रंगीन फौहारे थे
सुर बालायें थीं भीग रहीं
रंगीन नजारा देख देख
थीं श्रीमती जी खीझ रहीं

एक सुन्दर सी बेन्च पर
लिया श्रीमती ने आसन
लगा रहे थे वहीं पर
एक मोटे जी पद्मासन


बोले देवी जी दूर रहो
मैं हूँ ध्यान योग मे डूबा
चंचल चितवन को कैद करो
मुझपर नजर रखे महबूबा
उतार वस्त्र जब तरण ताल मे
सब बच्चे लगे नहाने
उछल-उछल कर कूद-कूद कर
लगे खुद पर ही इठलाने
सोचा कहीं आसन ग्रहण करें
दें दें तन को आराम
स्थान मिला पर कहीं नही
हम खड़े रहें विश्राम


तभी हमारी कमर पर
हुआ जोर से वार
विकराल विकट सम वार से
निज कमर गई थी हार
एक मोटी मोहतरमा ने
किया था एक्सीडेन्ट
कमर के एक ही वार ने
भू पर कर दिया परमानेन्ट

वो बोली क्या अन्धे हो
या सूरदासी औलाद
हम सोच रहे थे खड़े-खड़े
ये कमर है या फौलाद
मै बोला मोहतरमा जी
तुम क्यों खाती हो तैस
दूर से तुम लगती हो हिरनी
और पास से लगती भैंस

मेरी पतली सी कमर पर
तुमने किया अटैक
दिल की धड़कन भी तीव्र हुई
पर हुआ न हार्ट अटैक


वो बोली इस तरह से
हमे न दीजिये गाली
एड़ी चोटी के जतन से
हम पहुंचे आम्रपाली

हमारे घर के कोने मे
जितनी थी फूटी थाली
ढेर लगा कर झटपट ही
कल्लू कबाड़ी को दे डाली

उन थलियों के विक्रय से
जो रकम थी हमने पाई
आम्रपाली घूमने की थी
हमने स्कीम बनायी


इसीलिये सजना के संग
मै पहुंची आम्रपाली
तुमने तो आज बढ़ा डाली
मेरे गालों की लाली


हमने सोचा इस दुनिया मे
हैं कैसे-कैसे शौकीन
”भारती“ कैसा भी समय रहे
पर रहते हैं रंगीन !!

-एस.आर.भारती

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

Main aur Mera Idol


Navbharat Youth World Ne
12 Julye ke ank me Mujhe
Main aur Mera Idol
Ratan Tata ji ke saath Chuna hai.

सोमवार, 11 जुलाई 2011

मीडिया के लोगों का साथ मिले



हिन्दी जर्नलिस्ट असोसिएषन ने मुझे उत्तर प्रदेष का संयोजक मनोनीत किया है। मैं कोषिष करूंगा कि सभी मीडिया के लोगों का साथ मिले और हम अपने अधिकार को पा सकें।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

सम्मान



डा रमेश कुमार निर्मेश को हिंदी में उत्कृष्ट कार्य के लिए हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष प्रो नामवर सिंह द्वारा कुलपति कशी हिन्दू विश्वविद्यालय की उपस्थिति में सम्मानित किया गया