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सोमवार, 16 जनवरी 2012

एक विमान परिचारिका कि व्यथा

अधखुले अधरों पर
बरजोरी हंसी को लाते
अपनी दिल्ली की विमान यात्रा के दौरान
मैंने देखा उसे बड़ी सिद्दत से
अपने दर्द को छिपाते
आँखों की भाषा से अधरों का
कोई तालमेल नहीं था
दर्द का सैलाब आँखों में छिपाए
जुबान से उसका कोई मेल जोल नहीं था
हाँ वह भावनाओं पर कर्त्तव्य के
वरीयता की प्रतिमूर्ति ही तो थी
पर साथ ही चेहरे के नूर पर
चिंता की लकीर भी दृष्टिगत थी
यात्रिओं के हर बार
काल बल्ब जलाने पर
हसने का असफल प्रयास करते हुए
उनके दृष्टि वाणों को झेलती
हमें मंथित कर रही थी
उनका खैरमकदम करती
वो एक विमान परिचारिक ही थी

विमान की पिछली सीट पर होने से
मैंने अपने कानों को उसकी
उसके क्रू मेम्बरों से हो हो रही
बातचीत पर केन्द्रित किया
जो कुछ ह्रदय ग्राही हुआ
उससे मन एकदम से द्रवित हो गया

घर की एकमात्र संतान
लकवाग्रस्त पिता के ह्रदयघात की खबर ने
उसे विचलित कर दिया था
विदुर पिता की एक मात्र उम्मीद
पर लाचार उन्हें एक नौकर के सहारे
उसने छोड़ दिया था
पिता के देखभाल के लिए ही उसने
अभी तक विवाह भी नहीं किया था
नौकरी भी ऐसी की बस
हवा से बात ही करना था
चाह कर भी पापा की सेवा
करना आसान नहीं था
बेशक पापा की देखभाल
इलाज के लिए पैसे की भी
दरकार कम नहीं थी
वरना पापा की सेवा के लिए
इस नौकरी को छोड़ने का फैसला
वह पिछले सप्ताह ही कर चुकी थी
साथ ही अजेंसी की संविदा में
भी वह बधी थी
किसी तरह उसके आग्रह पर
उसकी छुट्टी कल से मंजूर हो गयी थी
पापा के करीब होने की ख़ुशी भी
उसके वार्तालाप में
रह रह कर दिख रही थी
बचपन में ही माँ की सामयिक मौत ने
पापा को तोड़ दिया था
लाख प्रयास करने के उपरांत
कैंसर के क्रूर हाथो ने माँ को
उनसे छीन लिया था
पापा कितना बिलख बिलख कर रोये थे
वह अबोध माँ को मृत्श्य्या पर लेटे देखती
घटना की गंभीरता से अनजान
माँ को सोता समझ
पापा के आंसुओं को अपने
नन्हे हाथो से पोछती
अतीत की घटनाओं से दो चार होते
समय अपनी अबाध गति से
अनवरत चलता रहा
अवसाद खुशियों के मध्य
जीवन कटता रहा
वह कब अनजान बच्ची से एक
युवती बन गयी पता ही नहीं चला
इसी बीच पापा ने कभी उसे
माँ की कमी खलने नहीं दिया
उसकी एक छोटी से इक्षा पर भी
पापा इतना बेचैन हो जाते
जब तक उसे पूरा नहीं कर लेते
चैन नहीं पाते
बुखार में तपते हुए अच्छी तरह
याद था उसे पूस की वह बात
पापा ने जागते पट्टी रखते काट दी थी
किस तरह रोते सुबकते पूरी रात
ऐसे कितने ही संस्मरणों और यादों ने
उसे झकझोर दिया था
पर पापा के प्रिवेट नौकरी से छुट्टी ने
उसे असमय ही बाहर निकलने को
मजबूर कर दिया था
कामयाबी की एक एक सीढिया चढ़ते
वह आज इस मुकाम तक पहुंची थी
पापा की एक एक इक्षा पर
अपनी हज़ार खुशियाँ अर्पित
करने को तत्पर थी

इसी बीच मेरी फ्लेट गंतव्य पर
पहुच चुकी थी
बाहर निकलते निकलते उसने हमारा
हर्ष विषाद मिश्रित अभिवादन से धन्यवाद् किया
तभी एक क्रू मेंबर ने उसे
रूचि रूचि पुकारते हुए आकर
उसके हाथों में एक टेली ग्राम दिया
मैंने जिज्ञासवस पलट कर पीछे देखा
एक अनिष्ट की आशंका से सिहर
उसके पास गया
टेलीग्राम की भाषा ने उसे पत्थर
और हमें अवाक् कर दिया

2 टिप्‍पणियां:

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर रचना

रचना ने कहा…

oh !!