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मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

सपने

देख बचवा 
तोहार नाम  ईं 
कम्पूटर स्कूल मे 
लिखा देहली 
अब खूब मन लगा के 
तू पढ़ली 
कुछ पइसा देइ देहले हाई 
बाकी पगार पर
देवे का है कहीँ 

कहते कहते कुसुम 
अपने बच्चे के साथ 
घर वापस जा रही थी 
मैले आँचल से 
अपने आँख के कोरो से 
बह रहे आसुओं को 
पोछे जा रही थी 

जित्तन की 
असमय मौत उस उसे 
बेवा बना दिया था 
तीनो बच्चों के परवरिश की 
जिम्मेदारी को उसके 
कमजोर कन्धों पर 
डाल दिया था 
जित्तन के जीतेजी 
जिसे कभी बाहर 
निकलने की जरूरत तक 
नहीं पड़ी थी 
आज मजबूरी मे वह 
घर घर जाकर 
बर्तन माँज रही थी 

एक सुनहरे 
भविष्य की आस मे 
ज़माने से बेखबर 
अपने खून पसीने की कमाई को 
इन तथाकथित कुकुरमुत्ते 
की तरह गली गली मे 
उग आये 
नए नए सब्जबाग दिखाते 
कंप्यूटर संस्थानों को 
चढ़ा रही थी 

वरना नौवी मे पढ़ रहे 
एक बच्चे की बिसात ही 
इस दृष्टिकोण से क्या थी 
पर उसे लेकर 
इन संस्थानों के बिछाए 
बिसात पर वह 
फसी जा रही थी 
अपनी जमा पूँजी फूकते 
एक दिवास्वप्न देखते 
आँखों में एक 
अंतहीन सपने को 
पाले जा रही थी 

डा  रमेश कुमार निर्मेष 


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