कुम्भस्नान हेतु
सपरिवार मैं इलाहाबाद जा रहा था
रिजेर्वेशन कम्पार्टमेंट में भी
भीड़ बड़ा जा रहा था
बहुत सारे स्नानार्थी
और यात्री पुण्य कमाने
संगम में जा रहे थे
डुबकी लगाने
डिब्बे में सदा की भांति
चना मूंगफली वाल़े व
भिखारी आ जा रहे थे
अपनी अपनी तरह से
अपनी आजीविका कमा रहे थे
उसी भीड़ में हमें भीख
माँगते हुए दो बच्चियां मिली
एक की आंख थी बंद
शायद थी वो अंधी दुसरे की थी खुली
जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में
आवर्णित तन
व्यथित मन
बड़े हे करुण रस में
कर रही थी वो विलाप
दग्ध हो गया मन
देख उनका प्रलाप
विदेशी सैलानियों ने
उनके फोटो लिए
चाँद सिक्के के साथ
खाने को भी कुछ दिए
सभी की तरह मैंने भी
कुछ रुपये दिए उनको
देख उनकी करुण गाथा
समझा रहा था मैं
अपने व्यथित मन को
हाय ईश्वर ने
ये क्या किया
असमय ही इनके माँ बापू को
इनसे क्यों छीन लिया
यही सोचते सोचते
स्टेशन आया
नीचे उतरा मैं लेकर सारे सामान
चारो ओर बिखरी भीड़ देख
मन हो गया परेशान
एक किनारे खड़ा मैं
आगे के लिए सोच रहा था
तभी उन बच्चियों को
हंस हंस कर बातें करते
एक कोने मैं देख रहा था
उनके आँखों की
देख चमक
आवाज की खनक
माथा गया ठनक
वो कह रही थी
कितना मजा आया
ऑंखें बंद करके
खुली आँखों वालों को
कितनी खूबसूरती से
बेवकूफ बनाया
स्तब्ध
हो विचलित
कभी मैं आसमान की ओर
कभी उनको देखता रहा
उनके अतीत और भविष्य के
आकान्छाओं के बीच
मैं मूर्तिवत झूलता रहा
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
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3 टिप्पणियां:
रोचक कविता..बधाई.
बच्चों का बचपना इन सब में बहा जा रहा है, सुन्दर प्रस्तुति।
इलाहाबाद का जिक्र पढ़कर अच्छा लगा. ..सुन्दर कविता..बधाई.
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