बुधवार, 22 जून 2011
मौन आमंत्रण
विगत दस दिनों की
भीषण तपिश के उपरांत
आज सुबह मानसून कि पहली फुहारें
बलजोरी खिड़की से प्रवेश कर
मुझे भिगो रही थी
मुझे भिगोते हुए वह नितांत
सुख दे रही थी
चाहकर भी अपने को भीगने से बचाने का
असफल प्रयास कर रहा था
हलकी फुहारों से भीगना एक
असीमित सुकून दे रहा था
इसी बीच उन फुहारों ने मुझे
नीद से न चाहते हुए भी जगाया
तभी बालों में उँगलियों के
कोमल स्पर्श ने मुझे चौकाया
पलट कर देखा तो चाय लिए
पत्नी को सिरहाने पाया
बच्चे स्कूल जा चुके थे
हाथों में चाय की प्याली लिए
हम भी छत पर आ गए थे
वहां अपने किचेन गार्डेन का दृश्य
अतिशय मनोरम लग रहा था
कई दिनों से शांत पड़ा झूला
पावन पुरवैये शीतल पवन के झोंकों से
झूमता हुआ हमें भी अपने साथ
झूलने का आमंत्रण दे रहा था
अहसास ऐसा कि
खुशगवार मौसम हमारे साथ
भीगने को मचल रहा था
बेला कि लताएँ
कुछ इस तरह इठला रही थी
मानो इस जज्बाती मौसम में
मेरी अंकशायिनी बनने को तरस रही थी
तभी गुलाब की टहनियों ने
उस हसीं मौसम का साक्षी
बनते हुए पत्नी के दामन को
कुछ इस तरह पकड़ा
मानो छोड़ेगे नहीं का जुमला जड़ा
वहा से छूटते ही मनीप्लांट की
लतायों ने हमें जा जकड़ा
मीठी नीम और तुलसी की
सुगंध पर्यावरण में जहाँ
पवित्रता घोल रही थी
वही गुलाब कि खुशबुओं से
फिजां मचल रही थी
ऊपर से प्रिया का सानिध्य
आग में घी का काम कर रही थी
फिंजा को रंगीन खुशगवार
और रोमांटिक बना रही थी
देखता तो रोज ही था मै उन्हें
पर सावनी फुहारों के बीच
सुर्ख गालों और घने बालों से गिरती
बरखा कि बूंदों के मध्य
अतीत कि तुलना में वह आज
कुछ अलग ही नजर आ रही थी
सौंदर्य और श्रृंगार रस के नए
प्रतिमान बना रही थी
तभी छत के मुंडेर पर बने घोसले से
निकला एक गौरैये का जोड़ा
छत पर जमे पानी में करती
उनकी अठखेलियों ने
अचानक हमारे ध्यान मोड़ा
मानसून कि पहली फुहार से उल्लासित
एक दुसरे पर परस्पर
पंखों से पानी उछालते
अपने चोचों के टकराहट से
प्यार का आदान प्रदान करते
हमसे कम आनंद नहीं ले रहे थे
रति और काम की
साक्षात् प्रतिमूर्ति लग रहे थे
फुदक फुदक कर वर्षाजल में भीगते
बीच बीच में घोसले में
जाकर दाना चुगते
अपने भीगे पंखों को झारते
और पुनः भीगने को
पानी में चले आते
ज्यादा भीगने पर
अपने चोचों से एक दूसरे के
पंखो को प्यार से बुहारते
पुनः बदन को जोर से हिलाकर
जल बिन्दुओं को हटाते
खूब इठलाते और मचलते हुए नहा रहे थे
उनके बच्चे घोसले में चहचहा रहे थे
संभवतः उस दृश्य को
देखते हुए अपने भविष्य के
सपने पाल रहे थे
उस दृश्य को देख
कदम हमारे भी बहकने लगे
प्रियतम कि शारीरिक भाषा भी
हमें मौन आमंत्रण देने लगे
बिना पल गवाए हम भी ब्रश करते हुए
अपने किचेन गार्डेन में कूद पड़े
और तबियत से देर तक भीगते रहे
बेजुबानों के प्यार की भाषा को
आपने प्यार से काम्पयेर करते हुए
उस नयनभिराम दृश्य का
आनंद लेते रहे
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर रचना..बधाई !!
एक टिप्पणी भेजें