दोपहरी थी
अपने शीर्षतम बिंदु पर
गरम हवा चल रही थी
सूरज क़ी तीव्रतम तपिश से
बदन तप रहा था
तन का एक एक
रोम झुलसा जा रहा था
परशान परिसर में
एक वृक्ष क़ी छाया पकड़
मै आराम फरमाने को
उत्सुक और व्यग्र
देख रहा था
अपनी अतिरेक हरियाली से
पूरे शहर को
जो कभी देती थी पोषण
बनाये रखती थी
पर्यावरण का संतुलन
परिसर क़ी उस हरियाली का
हो रहा था तेजी से शोषण
देख रहा था
नित एक नए भवन क़ी
नीव पड़ते हुए
महामना क़ी बगिया को
कंक्रीट के जंगल में
बदलते हुए
सामने ही खेल के एक मैदान में
एक नूतन भवन सम्पूर्ण
साकारता क़ी और अग्रसर था
तेजी से वह काम
चल रहा था
बेदम कर देने वाली
इस जलती धूप में
दो तीन आधुनिक विशाल और
विकासशील भारत क़ी स्यामवार्ण
मगर सुगढ़ ललनाये
गोद में इस आर्यावर्त के
भविष्य को छिपाए
नंगे पाव ईट ढो रही थी
शिक्षा के मंदिर में
बरबस शिक्षविदो के सर्व शिक्षा
अभियान के दावे क़ी
हसी उड़ा रही थी
साथ ही बड़े हसरत से
स्कूटी पर सवार
पूरे बदन को ढके
जींस पैंट के साथ
शानदार काला चश्मा चढ़ाये
इसी आधुनिक भारत क़ी ही
आधुनिक ललनाएं
एक मोहक खुशबू बिखेरते हुए
एक एक कर
उनके पास से गुजरती जा रही थी
स्वयं को कोसते हुए
गर्मी से निढाल हो कभी
वह बैठ जाती
कभी ठीकेदारों के डर से
बिना सुस्तायें काम पर
पुनः लग जाती
संभवतः
उन्हें इंतजार किसी तरह
दिन ढले
गर्मी से रहत मिले
साथ ही पूरी मजदूरी क़ी चाह
पेट भरने के आस लिए वह भी
इसी आधुनिक आर्यावर्त क़ी ललनाये थी
सनातनी संस्कृति के दृष्टिकोण से
एक और दूसरे गाँधी को अपने उद्धार हेतु
अपने आंचल में छिपाए
शायद अपने पिछले जन्मो के
कर्मो का फल ही तो
भोग रही थी
डा रमेश कुमार निर्मेश
2 टिप्पणियां:
बढिया
बहुत सुंदर
बहुत खूब..
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