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सोमवार, 26 नवंबर 2012

ब्रेनवाश

बस के लिए लाइन में
खड़े खड़े इधर कुछ दिनों से
उसे मैं उसके दुधमुंहे बच्चे के साथ
फटी साडी में किसी तरह
अपने युवा तन को समेटे
सड़क के उस पार
बरगद के पेड़ के नीचे
हाथ से बने मिटटी के कुछ
देहाती खिलौने के साथ
दिये और कुल्हड़
बेचते देखता था
उसके अतीत से अज्न्जन
मगर पता नहीं क्यों
उसके भविष्य के बारे में भी
अक्सर मै सोचता था

कभी कभी उसके पति के साथ
उससे होती बहस पर भी
मेरी नजर पड़ जाती थी
दोनों के बीच बाते बढ़ते बढ़ते
मर पीट पर उतर जाती थी
बड़ी मुश्किल से
बिक्री से प्राप्त सारे पैसे को
जबरन छीन वह
चम्पत हो जाता
बच्चे के साथ उसे
बिलखते छोड़ जाता
सिलसिला यह लगभग
अनवरत था

आज एकाएक वह मुझे
खामोश नजर आ रही थी
बच्चे पर नजर पड़ी तो
उसमे भी कोई हलचल
नहीं दीख रही थी
थक कर सो रहा होगा
मई सोचता रहा
बस के आने की
प्रतीक्षा करता रहा

तभी लाइन में आगे
खड़े व्यक्ति से पता चला
जेड की अंगड़ाई को
शायद वह नवजात
सही नहीं पाया था
आज सुबह ही भगवान को
प्यारा हो गया था

तभी अचानक उसका पति
गिरते भाहराते नशे में
धुत आ गया
उससे पैसे की अपनी मांग को
एक बार पुनः दोहरा गया
उसकी पथरीली बेबस और
लाचार आँखों ने
आंसुओं का साथ
छोड़ दिया था
नैन के कोरो से आंसुओ ने
पथ अपन बना लिया था
संग्याशून्य उसने बच्चे की और
हाथ से पैसे के अभाव में
उसके मर जाने का ईशारा किया
सामान बन बिक पाने के कारन
उसे पैसा देने में अपनी
असमर्थता जताया
बदले में एक लत के साथ
गलिओयों के सौगात पाया
बच्चे के अवसान से पीड़ित
उसका थका और कमजोर शरीर
कुल्हड़ और दिया पर
आशियाना बनाते हुए
कटे पेड़ की तरह भहरा गया
इस दिशा में तमाम चल रहे
प्रयासे के उपरांत
आज भी एक लाचार
ट्रडिशनल भारतीय नारी के
इतिहास को दोहरा गया
पान का पीक उसके ऊपर
थूकते वह बोला
साली कल शाम से
धंधा कर रही है
उसमे से मैंने कुछ मांग लिया तो
पंगा और नाटक कर रही है

मुझे उसके पान के रक्त सी
पीक में उस बच्चे को
लहूलुहान अक्स दिखा
मै विचलित हो गया था
निसंदेह आगामी एक
सप्ताह के लिए मेरा
ब्रेनवाश हो गया था

निर्मेष

1 टिप्पणी:

Pallavi saxena ने कहा…

बहुत ही मार्मिक एवं संवेदनशील रचना...