फ़ॉलोअर

सोमवार, 27 सितंबर 2010

आज भी धन्नी नहीं बिक सका

लेबरो की मंडी में
सुबह से शाम हो गयी
दिन तक़रीबन ढल गयी
पर आज भी धन्नी नहीं बिका
एक भी पैसा नहीं वो कमा सका
सामने मुनिया का
बुखार से तपता चेहरा हूम रहा था
जिससे सुबह hi उसने कहा था
आज वो जरुर दावा लेकर आयेगा
और पपू की फ़ीस भी दे पायेगा
ताकि वो पढ़ कर बड़ा आदमी बनेगा
हमरे दुखो को वो हारेगा
सोचते सोचते उसकी अखे भर आई
wah रे किस्मत की माई
काम के तलश में साथ लायी
रोटिय भी सुख चुकी थी
शाम एकदम ढल चुकी थी
थका हरा वो चल pada घर की और
तन में तनिक भी नहीं था जोर
सूखे pero की माफिक वो
रस्ते से बेखबर चला जा रहा था
उधर से एक ट्रक तेजी से आ रहा था
उसने समाप्त कर दिया धन्नी का जीवन
उसके बच्चो को कर गया
अनाथ आजीवन

5 टिप्‍पणियां:

S R Bharti ने कहा…

गलत शब्दों के प्रश्तुतिकरण से कविता ने अपना वास्तविक भाव खो दिया है
कृपया सुधर करें

S R Bharti ने कहा…

गलत शब्दों के प्रश्तुतिकरण से कविता ने अपना वास्तविक भाव खो दिया है
कृपया सुधार करें

vandana gupta ने कहा…

कविता तो मार्मिक है बस शब्दो मे सुधार कर लें।

Nirmesh ने कहा…

Basically I feel problem to type in Hindi, that's why I have to changed some words, whom I also did not like. Can u tell me the means through which some devices can be occured

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मार्मिक।