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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

मुखियाजी

भैयाजी
कल मेरा ऑपरेशन है
मुखियाजी की सुन आवाज मैं
अतीत से वर्तमान में आया
मैंने उनको बैठक में बिठाया
कुछ व्यस्तता ऐसी थी की
कई दिनों से उनसे
मुलाकात हो नहीं पाया

वस्तुतः मुखियाजी एक युवा वृद्ध थे
पूरी जीवटता व तन्मयता से
सुरक्षा गार्ड का कार्य करते हुए
खुद्दारी से काफी दिनों से हमारे
आवास के पास ही रह रहे थे
कई वर्षों से गाँव को छोड़
शहर में ही बस गए थे
गाँव घर की चर्चा आने पर
एकाएक उदास हो जाते थे
मानो किसी ने रख दिया हो
उनकी दुखती राग पर हाथ
अचानक छोड़ हमारा साथ
बैठक से उदास चले जाते थे
मोहल्लेवालों के हर सुख दुःख में
बड़े ही लगन से अपनी
उपस्थिति दर्ज कराते थे
न जाने कौन सा अनकहा दर्द
उन्हें अनवरत सालता था
जिससे उन्हें गाँव से दूर
रहना ही भाता था
माँ की याद आने पर अचानक
ही उदास हो जाते थे
परिवार और बच्चो के बारे में
सोच अतीत में खो जाते थे
कुल मिलकर अपने आप में
एक अजीम सख्सियास थे
मानवीय सभ्यता और भारतीय
संस्कृति को समेटे हमें
अत्यंत ही प्रिय लगते थे

इधर कई दिनों से उनका
स्वास्थ्य ख़राब चल रहा था
कभी पेट तो कभी पैर
परेशान किया करता था
मेरे भी काफी दावा आदि करने पर
परेशानी कम नहीं हो रही थी
जाँच कराने पर डाक्टर ने
आंत उतरने की बीमारी कह
ऑपरेशन की सलाह दी थी
किसी तरह जुगाड़ कर उनके सुपरविजर ने
उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया
कुछ आर्थिक सहयोग हमने भी कर दिया

ऑपरेशन के उपरांत उनका पहला फोन
मेरे पास ऑफिस में आया
भैया आइबा न का हमके देखे
कहते उनका आवाज भर्राया
शाम को ऑफिस से सीधे मैं अस्पताल गया
देख बिस्तर पर एक छोटे बच्चे के साथ
उनको खेलते मेरा दिल भर आया
मुझे देख उनकी बाछें खिल गयी
आ गए भैया कहते
उनकी आंखे भर गयी

कितने लोग यहाँ भर्ती है
सबको नित्य कितने ही
देखने आते होगें
साथ में फल मेवे और
मिठाइयाँ भी साथ लाते होंगे
पर यहाँ कौन आया होगा
कौन इन्हे भाया होगा
घरवालों को तो पता ही नहीं होगा
कि मुखियाजी ने ऑपरेशन करवाया होगा

दुसरे बिस्तरों पर देख भीड़ क्या
इनका दिल भर नहीं आया होगा
पर अपने मिलनसारिता से उन्होंने
पूरे वार्ड को अपना परिवार बना डाला था
मुझे देख आँखों के कोरो से
ढुलकते आंसुओं ने
उनकी सारी व्यथा कह डाला था
दिल के अनकहे दर्द को
दिल में ही छिपा लिया था
सभी लोगो से एक अंजान
रिश्ता बना लिया था
दूसरों के बच्चे दादा दादा कह
उनकी गोद में उछलते थे
मिलाजुला कर सभी
उनका ख्याल रखते थे

पर इस सच्चाई से भी सभी परिचित थे
कि गैर रख ले कितना भी ख्याल
पर अपने तो अपने ही होते है
इस बात को मुझे देख
उनकी भाव भंगिमाओं ने दर्शाया
जिसने मुझे मेरे कुछ और
दायित्वों का अहसास कराया
कुछ देर बैठ वहां धीरे से
उनकी मुठ्ठी में कुछ थमाया
पुनः इस अपरिभाषित रिश्तों के
बारे में सोचते थके कदमो और
भारी मन से मैं घर लौट आया

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