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मंगलवार, 28 जून 2011

अपराध बोध




पापा की पूरी
रिपोर्ट आ चुकी थी
डाक्टर के चेहरे पर चिंता की लकीरें
स्पष्ट दीख रही थी
मुझको अन्दर आने का
इशारा करते हुए डाक्टर शाह
अपने केबिन में गए
मैंने भी उनका अनुगमन किया
पापा को धीरज देते हुए

रमेशजी स्थिति बहुर नाजुक है
आपको तुरंत एम्स जाना होगा
अर्टेरीज में तीन जगह रुकावट है
अन्जियोप्लास्टी तुरंत कराना होगा
खर्च की बात पर
लगभग पाँच से सात लाख
रुपये व्यय होने का
अनुमान उन्होंने बताया
सुनकर मुझे मेरा सर तेजी से
घूमता नजर आया

अभी पिछले ही महीने
अक्षता का व्याह मैंने तय किया था
बड़ी मुश्किल से एक इंजीनिर लडके से
रिश्ता सात लाख में पक्का हुआ था
अभी तक मै उन्ही रुपये को
जुटाने में परेशान था
बड़े प्रयास के उपरांत
पाँच लाख रुपये इकठ्ठा करने में
किसी तरह सफल हुआ था
शेष के लिए में बीते कल तक
प्रयासरत था
कि तभी कोढ़ में खाज का
अहसास हुआ

एक और बेटी के विवाह के रूप में
अपना भविष्य और सामाजिक दायित्व
सामने दीख रहा था
दूसरी ओर पिता के रूप में
अपना अतीत मेरी बेबसी पर
खुलकर हस रहा था
अजीब अंतर्द्वंद्व में फ़सा अक्षम
मै कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था
रह रह कर पापा की याचना भरी
असहाय आंखे मुझे रुला रही थी
उनके भीगें चक्षुओं में
जीने की इच्छा निःसंदेह
स्पष्ट नजर आ रही थी

एक ओर जहाँ बेटी के साथ
बिताये बचपन की एक एक यादें
चलचित्र कि तरह सामने
घूमती नजर आ रही थी
कागज की कश्ती और
बारिस के पानी के साथ
उसके गुड्डे गुड़ियों कि शादी भी
हमें खूब रुला रही थी

वही सिद्दत से याद आ रहा था
किस तरह पापा के कंधे पर चढ़
गाँव से दस मील दूर
मेला देखने जाया करता था
क्या पापा कभी थकने नहीं थे
या कि थकने के बावजूद मुझे दर्द न हो
इसलिए कभी कहते नहीं थे
पहली में नाम लिखाने के लिए
जो मै उनके कंधे पर चढ़ा
तो कम से कम पाचवी तक नहीं उतरा
याद आने लगे
मुफलिसी के ओ दिन भी
जब सूखे ने सब कुछ छीन लिया था
पर पापा पर मुझे पढ़ाकर
बड़ा आदमी बनाने का भूत
एक संकल्प के रूप में सवार था
इस राह में आये कितनी भी कठिनाई
उन्हें कोई परवाह नहीं था
मेरे लिए कर चावल और दाल के साथ
सब्जी का इंतजाम
स्वयं खाते थे चावल को
माड़ में सान
दूध और फल तो उनके लिए
दूर की बात थी
फिर भी मौका मिलते ही
मेरे लिए क्या बात थी

यही सब सोचते सोचते
अतीत में डूबते उतराते
ऑंखेंबरबस भर आयी
अंतर्मन से पहले अतीत के रूप में
पापा को बचाने कि आवाज आयी
अक्षता के विवाह को फ़िलहाल
भगवान् की इच्छा पर छोड़कर
अतीत कि सुदृढ़ नीव पर
भविष्य का भवन बनाने का
दृढ निश्चय कर लिया
चल पड़ा स्टेशन को
दिल्ली के रिजर्वेसन के लिए
लाइन में खड़ा हो गया

अपनी बारी का बेसब्री से
इंतजार करता रहा
एकाएक मोबाइल की घंटी बजने से
में घबरा गया
उधर से पत्नी कि रुआंसी भयमिश्रित
हलकी खनकती सी
दिल को चीरती आवाज आयी
पापा अब नहीं रहे की बात बताई
मै यंत्रवत शून्य में देखता रहा
अपने गालों को स्वतः पीटता रहा
रोऊँ या हसू सोचता रहा

किसी तरह अपने को संयत कर
भारी कदमो से वापस घर को लौट चला
एक तरफ पापा को बचाने में
असफल होने पर स्वयं को जी भर कर
जहाँ कोसता रहा
वही दूसरी और मुझे लगा कि
एकबार पुनः पापा का स्नेह
मुझ पर भारी रहा
पापा की अभावग्रस्त मौत ने
मरते दम तक एक पिता अपने पुत्र को
कभी विपदाग्रस्त देख नहीं सकता
की लोकोक्ति को पुनः सिद्ध कर दिया था
पर पापा का मुझे मेरे इस
दुविधा और अंतर्द्वंद्व से इस तरह मुक्त करना
बेशक मुझे एक अपराध बोध से
ग्रस्त कर दिया था
साथ ही जीवन भर के लिए
एक न भरने वाली
टीस दे गया था

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काल का यह खेल सारा,
हम खड़े साक्षी बने हैं।