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शनिवार, 17 सितंबर 2011

भगवन के ही बनाये इन जिन्दा बुतों में ..........


दादा टिकट
टिकट
रामदीन ने हाँ बाबु कहते हुए
कमर की धोती में खोसें
टिकट को निकला
जिसे देखते ही टीटी महोदय
का चढ़ गया पारा
चालू टिकट ले कर
शयनयान में सफ़र करते हो
शर्म नहीं आती तुम लोगों को
अरे कम से कम
भगवन से क्यों नहीं डरते हो

मै सामने वाली सीट पर
खिड़की के पास बैठा
अभी तक तेजी से भागते
बियाबान जंगल को देख रहा था
इस खटपट से तन्द्रा भंग हो उ
नकी तरफ मुखातिब हो गया था
रामदीन और उसकी कृशकाय वृद्धा पत्नी
दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए थे
टीटी से विनम्रता से विनती कर रहे थे

भैया तबियत ठीक ना रहा
केमै बैठा जावे हमन के
ठीक से पता ना रहा
हम जनित कि टिकट लई के
बस के माफिक पूरा गाड़ी में
कहियों बैठ सकित है
बाबू तनी दया करी के हमे बतईत
त अगला टेशन पर उतर हम
ओम बैठ जाईत

चुप बुढ़िया
बहुत नौटंकी आवत है
हमका बेवकूफ बनावत है
नव सौ रुपया पहिले
जुरमाना का निकालो
नहीं तो चलो जेल काटो

रामदीन गिरगिदा पड़ा
बाबू जब से हमरा बेटवा समुआ
दिल्ली बम कांड में गुजर गवा
एक साथ इतना पैसा देखे
न जाने कितना दिन गुजर गवा
अब कौउनो सहारा नहिनी
यहि वदे हम बिटिया के यहाँ जात रहा
हमका माफ़ कर देईब
अगला टेशन पर हम
जरूर उतर लेईब

बुढहू ढँर चालक बने का
कोशिश जिन करो
चलो अच्छा जो कुछ है
उसी को निकालो
कोई रास्ता न देख रामदीन ने
धोती के दूसरे कोने से
कुछ मुड़े हुए नोटों को निकाला
जिसे टीटी ने लपक कर
अपने जेब में डाला
शीघ्रता से आगे बढ़ गया

मन मेरा विचलित हो गया
इधर रामदीन अपने गंदे अंगोछे से
अपने आंसुओं को पोछने लगा
आगे सफ़र कैसे कटेगा
अपनी पत्नी से कह सिहर गया

सारे घटनाक्रम ने
एकबार पुनः मुझको हिला दिया
मेरी संवेदनशीलता ने मुझे
भीतर तक झकझोर कर रख दिया
तभी मैंने एक फैसला किया
डिब्बे में बैठे यात्रियों से चंदा लेकर
कुछ रूपये इकठ्ठा कर
उस वृद्धा दंपत्ति को
भेट कर दिया

अश्रुपूरित नेत्रों से
रुपये लेते समय रामदीन कृतज्ञता से
विह्वल हो गया
अचानक से बोल पड़ा
बाबू ये आज के इंसानों को
क्या हो गया है
भगवन के ही बनाये
इन जिन्दा बुतों में
कैसे और क्यों इतना अंतर
हो गया है

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

क्या से क्या हो गये हम...

editor : guftgu ने कहा…

अच्छी कविता के लिए बधाई.