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शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

शायद माँ को मौत ही मिलनी थी

पिछले कई दिनों से
मेरी आंखे चाहते हुए भी नहीं सो रही थी
डॉक्टर के अनुसार माँ की जीवन ज्योति
धीरे धीरे बुझ रही थी
यमदूत के रूप में अजेय कैंसर
मेरी बबासी पर अट्टहास कर रहा था
गौरांग माँ का उन्नत ललाट
क्रमशः स्याह पड़ रहा था
सिरहाने बैठा मै माँ के निस्तेज
होते चेहरे को बुझते निहार रहा था
चाह कर भी कुछ न कर पाने की
झुंझलाहट झेल रहा था
माँ के साथ बीते ममता के एक एक पल को
याद करते हताश मगर एक
चमत्कार की परीक्षा में उस अजेय बीमारी से
माँ के साथ मै भी लड़ रहा था
पिछले कई दिनों से माँ
वर्जित चीजो को ही मांग रही थी
पर माँ के हित में मेरी पत्नी चाह कर भी
उसे नहीं दे रही थी
खिजलाहट में माँ हमें कोसती
हमारे बेबसी पर भी रोती
दवाइयों को खा खा कर ऊब चुकी माँ
उन्हें हमारी नजर बचाकर फेक देती

आज सुबह चढ़ रहे ड्रिप के साथ
वेन्फ्लन को ही नोचते अनजाने में
असमय ही मौत को दावत देने लगी
सहसा मेरी ध्यान उस पर पड़ा
माँ का बाल सुलभ जिद के कारण
कभी ममता के पर्याय उन हाथों को
मुझे कलेजे पर रख पत्थर बाधाना पड़ा
उस व्यथा से बचाने के लिए मै
अपने बचपन में चला गया
बेशक उन हाथों से कभी चाटें भी पड़े थे
पर वह माँ द्वारा लुटाये गए प्यार दुलार
और ममता के आगे कुछ भी नहीं थे
माँ जब भी मेरी शैतानियों से ऊब जाती
थक कर मुझे इसी तरह बांध कर
निश्चिंत हो भोजन बनाती
उस दौरान हमें दुलारती भी रहती
मै रोता रहता पर वह बबुआ बबुआ कह
हमें पुचकारती रहती
जैसे ही कम समाप्त होता
अपनी गोद में भींच आंचल में ढक
मुझे जी भर कर दुलारती
इस प्रकिर्या में उसकी ऑंखें भी भर जाती

सोचता कितना अंतर था
दोनों बन्धनों में
माँ अपने बंधन के उपरांत मुझे
मिठाइयाँ दूध मेवे और मिश्री देकर
जहाँ हमें तृप्त करती
पर अफ़सोस मेरे बंधन के उपरांत तो
शायद माँ को मौत ही मिलनी थी

कल पड़ोस कि सरला अंटी
माँ को देखने आयी थी
माँ ने उनसे मेरी खूब शिकायत की थी
मुझे किनारे लाकर आंटी बोली
बबुआ देखो हम तुम्हरी भावना समझिते
पर एक बात कही बबुआ बुरा जिन मनियों
ऐसे ही हमरी बडकी बहिन रहीं
सब कुछ किया धवा गवा पर
अंत माँ इ जालिम कैंसरवा
उन्हें लेकर ही गवा
एही से हम त कहिबे कि
इनका घर लई चलो
वही मा रही के इनकी सेवा करयो
जऊँ कुछ कहे बढियां बढ़िया होई सके
इनका खीलाव पिलाव
बाकी सब भगवान पर छोड़ देओ
कम से कम सुकून से अपने परिवार में
रही के साँस तो लई सकिहे
एहनत डॉक्टरवा सब सुई कोच कोच
पाहिले ही मुये दीहें

मैं किंकर्तव्य वीमूद्ध
एक अनिर्णय की स्थिति में बना रहा
कभी माँ के साथ बिताये बचपन में खोता
तो कभी माँ को देख अपनी बेबसी पर रोता
सोचता मरना तो सबको है ही एक दिन
काश अभी माँ ठीक हो जाती तो मै
देखने से बच जाता ऐसे दुर्दिन
चाह थी एक बार पुनः माँ के गोद में
सर रख कर सोने की
पूरी रात चंदामामा की लोरियां सुनने की
हाथ बधने के एवज में माँ को खीर पूड़ी खिलाने की

आहा इन हाथों से खिलाये एक एक
निवाले याद आ रहे थे मुझको
जब मैं खाने से भागता वह
थाली लेकर दौड़ती हमको
आज मुझे उन्हें बाधना पड़ा
अतीत की इन मधुर यादों से विचलित हो
आंसू अनवरत आँखों से चल पड़ा
अचानक गो गो की आवाज सुन
मै माँ की और दौड़ा
तब तक माँ मुझे अनाथ छोड़
अपने अनंत यात्रा पर जा चुकी थी
कटे डाल की तरह मैंने धम्म से
जमीन थम ली थी

चाह कर भी माँ की इक्षित चीजे
न खिलाने की मजबूरी दिल में एक
भयंकर टीस दे गयी थी
शांत अपराधबोध से ग्रस्त निराश मैं
माँ के बन्धनों को खोल रहा था
श्रृष्टि पर प्रकृति की विजय को
ध्यान से देख रहा था
अपने आंसुओं से माँ के चेहरे को बुहारता
स्वयं को धिक्कारता
की इतने प्रयास के उपरांत क्यों नहीं
दे पाया वह सब अपनी माँ को
दिया था जिसने इतना वैभवशाली
जीवन मुझको

2 टिप्‍पणियां:

SAJAN.AAWARA ने कहा…

kuch samajh me nahi aa raha kya kahun...
ise padhkar dil dukh gaya hai...

bas itna janta hun ki jo is duniya me aata hai use ek din jana hi padta hai, ham insan chahakar bhi kuch nahi kar sakte,,,
yahi vidhi ka vidhan hai....

Asha Joglekar ने कहा…

ऐसे समय़ कितने बेबस हो जाते हैं हम सब । दर्द झेलते हुए सब कुछ जानते समझते वह नही कर पाते जो वे जाने वाले चाहते हैं ।
इस कविता में मन की सारी पीडा उभर कर आ गई है ।