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गुरुवार, 17 जुलाई 2014

बौद्धिक आतंकवाद

कल की
अनचाही बातों और 
घटनाओं ने मुझे रात में 
बेचैन करने का प्रयास किया 
पर मैंने हमेशा की तरह 
एक बार फिर अपने आप को 
सर झटक कर समझा लिया 
ईश्वर को साक्ष्य मान 
दूसरे के अपराध को भी
आत्मसात कर लिया 

चल पड़ा है 
बौद्धिक आतंकवाद का 
यह सिलसिला 
कि नीति हमेशा 
छद्म शक्ति का गुलाम रहा 
कुछ लोग स्वयं को 
सर्वशक्तिमान समझते है 
पर शायद उन्हें पता नहीं कि 
अति आत्मविश्वास और 
अति आत्ममुग्धता के 
अन्तस्तल में ही 
विनाश के बीज पनपते है 

एक स्याह रात के उपरांत 
ऊर्जावान प्रात 
आसन्न होता है 
तन मन प्रफुल्लित और 
प्रसन्न होता है 
जिसमे धैर्यवान वीर्यवान 
बुद्धिवान शीलवान और विवेकी 
व्यक्तित्व ही फलता है 
लम्बा रास्ता तय करता है 
तभी तो भौतिक जीवन के उपरांत भी 
राम कृष्ण और गांधी को 
समय सदियों सहेजता है 
पर उलट प्रवृत्ति को 
कौन याद रखता है 

अफ़सोस तब और होता है 
जब निरक्षरों को कौन कहे 
पढ़े लिखे लोग 
विवेकहीन व्यक्ति 
अपनी संस्कृति का वास्ता देकर 
साइत और अपशकुन की 
बात करता है

वस्तुतः ऐसे लोगो को 
अपने कर्म पर विश्वास नहीं होता 
भौतिक दांव पेंच से अगर 
कुछ पा लिया तो 
उसे खोने से डरते है 
दूसरे के कंधे के भरोसे 
आगे निकल कर उस कंधे को 
पीछे धकेल देते है 

बहुत दिनों के बाद 
माँ के स्पर्श का 
अनुभव मैंने पाया 
जब खिड़की से आती 
मंद पछुआ ने मुझे जगाया 
अपने शाश्वत लक्ष्य पर बढ़ने 
निडर कर्मपथ पर 
चलने को सुझाया 

याद आया 
पापा ने एक बार 
सत्य ही कहा था 
कि कभी कभी ऐसे दिन भी 
अच्छे होते है 
जो आत्ममंथन के साथ 
व्यक्ति के जीवन को 
पटरी पर रखने का 
काम करते है 

निर्मेष 


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