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शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

दायित्वबोध

महुए 
के पत्तल का 
सबसे बड़ा  गठ्ठर 
सर पर लिए
गमछा और गंजी पहने 
लछमनवा आगे आगे 
जा रहा था 
उसके पीछे उसका बापू
सुक्खू सर पर 
छोटा गठ्ठर लिए
हाथ में लाठी टेक 
फटी धोती और नंगे  बदन 
चल रहा था 
उसकी धोती का
एक टुकड़ा  पकड़े 
उसकी तीसरी पीढी का 
नेतृत्व करता हुआ 
मंटू हाफ पैंट  पहने 
नंगे पाँव सड़क पर 
दोनों ओर देखते 
शहर की चकाचौंध में 
अचकचा रहा था

मैं छत पर खड़ा 
सामने नीचे 
पान की दुकान पर
उनके पत्ते के 
खरीदफरोख्त  के 
नयनाभिराम  दृश्य को 
सम्मोहित सा 
देख रहा था

थोड़ी  देर उपरांत 
लछमन के गठ्ठर का 
सौदा हो गया 
सुक्खू के बोझ को 
लछमन ने पुनः 
अपने सर पर  जैसे ही लिया 
सुक्खू भी मंटू को कंधे पर 
बिठा नए ठौर को 
चल दिया 

मंटू 
बिक्री के उपरांत 
सुक्खू द्वारा खरीदे गए 
एक केले को बड़े चाव से 
खा रहा था 
जिसे खोलते खोलते ही 
सुक्खू पहले ही 
आधा खा चुका था
सुक्खू के कंधे पर 
बैठा मंटू 
अपने आप को 
असीम सुख से सिंचित
सबसे बड़ा शहंशाह 
समझ रहा था 

मै भी अपने 
समाज में तेजी से 
विलुप्त हो रहे 
पोते पिता और 
दादा के मध्य 

बदलते  सामाजिक 
मूल्यों के मध्य 
रिश्तों की ऐसी मिठास 
मर्यादा दायित्वबोध को 
जिसे आज के
आधुनिक समाज को
समझने और महसूस 
करने की फुर्सत नहीं है 
को अपनी ही संस्कृति के 
एक समुदाय में पाकर 
अपने आप को निहाल 
समझ रहा था  


निर्मेष 

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