माँ हर सुबह निकलती है,
आसमान के रंग संग।
एक बोझा लकड़ी का सपना,
एक विश्वास — जीवन का ढंग।
पगडंडियाँ पहचानती हैं उसके पाँव,
झरनों की भाषा समझती है।
वो जंगल से माँगती नहीं कुछ,
बस सूखी टहनी चुनती है।
पहाड़ लाँघती है सहज भाव से,
मानो धरती उसकी सहेली हो।
थकान नहीं, करुणा चलती,
उसके कदमों की रेली हो।
मैं पूछता हूँ — “माँ, क्यों इतना श्रम?”
वो मुस्कुराती, कहती नम्र स्वर में —
“जंगल छानती हूँ,
सिर्फ़ सूखी लकड़ियों के लिए।
कहीं काट न दूँ कोई ज़िंदा पेड़!”
उस क्षण लगा —
माँ ही तो धरती है,
जो जलती भी है,
पर जीवन बचाती भी है।
✍️- डॉ. सत्यवान सौरभ
गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025
माँ और प्रकृति
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