जब -जब देश में गलत का फैलाव हुआ
हमारा अपनी जमीर से अलगाव हुआ
बेचा खुद के अहसासों को
चांदी के टुकडों की खातिर
गरीबो के पैसों से शेयर
बेचते बाजार के शातिर
हल्का से एक झटका लगा
बड़ा पेड़ कट कर गिरा
हमारी अर्थ जगत की चूल हिल गई
गुरु की गुरुतई काम न आई
तब चेलो की की कैसी प्रभुताई !
फिर भी हम चिल्लाते
अपना गाल बजाते
देश के चंद अमीरों में
खुद को अमीर जतलाते
सोने को जमीं के लाले
चाँद पे जाने का गौरव गाते
खाने को अन्न नहीं पर
अरबों में नेता चुन कर लाते
धन्य हमारा लोकतंत्र
है धन्य हमारा देश स्वतंत्र
है धन्य हमारी जनता
हैं धन्य हमारे नेता
अब, बस बहुत हो चुका
अब भी जागो युवा
जगाओ अंदर के शिवा को
खोलो मन के द्वार
हो जाने दो
एक बार फिर इस जग का उद्धार !!
जयराम चौधरी
jay.choudhary16@gmail.com
बुधवार, 8 अप्रैल 2009
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5 टिप्पणियां:
अब, बस बहुत हो चुका
अब भी जागो युवा
जगाओ अंदर के शिवा को
खोलो मन के द्वार
हो जाने दो
एक बार फिर इस जग का उद्धार !!
.....वाणी में ओज है, शब्दों में धार है. बहुत सुन्दर कविता.
बहुत खूब..अलख जगाये रखिये.
amit ji ka shukriya ki aapne meri rachna ko jagah di . aupcharik rup se ye meri pahli kavita hai . aap sabon ke utsahwardhan ne likhne ko prerit kiya hai aage bhi aise hi likhta rahunga ....
सुन्दर कविता.
bahut hi sundar bhaav hai aapki kavita ke...yuvaon me josh jgati hai ye...
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