बुधवार, 24 अगस्त 2011
अन्ना के शोर में शांत ४१ समाधियाँ
जिनके कंधे को
मजबूत होने की प्रतीक्षा
करते तरस गयी बूढ़ी ऑंखें
आज उनके लाशो को
अपने कमजोर हाथो में
ढोने को विवश बाहें
टेलीविजन पर देखता
आँखों से आसुओं के जेहाद को रोकता
सोचता बेशक कसूर नहीं
उन अबोधों का कुछ भी
पर नियति का खेल है कुछ और ही
दिल से क्या क्या सपने लेकर
सत्ती माई के दर्शन के लिए
निकले होगे वो घर से
पर उन्हें क्या पता कि
जिस रास्ते वो जा रहे है
मौत का दरवाजा खटखटा रहे है
यह उनकी अंतिम यात्रा होगी
फिर अपनों से भेट न होगी
१८ महिलाएं २३ बच्चों के साथ
जिन्दी समाधि में परवर्तित हो जाएगी
भीतर तक भेद गया
उनकी अंतिम यात्रा का कारुणिक दृश्य
आँखों के सामने नाचता
पूरा मरघट का परिदृश्य
घाघरा की लहरे एक और जहाँ
उफान मार रही थी
बार बार अपने थपेड़ों से
किनारों को छूने का प्रयास कर रही थी
मानो उन अबोधों को अपने
बाँहों में लेकर चूमना चाह रही है
अंतिम बार उन्हें
अंगीकार करना चाह रही है
असफल होने पर उनकी भीषण गर्जना
मानों इस असफलता पर
जार जार रो रही थी
वही कतार से लगी महिलाओं की
चिताएं धूं धूं कर जल रही थी
ऊँची ऊँची उठ रही लपटें
हा हाकार कर रही थी
उस हृदयविदारक मंजर पर
मरघट भी चीत्कार कर रहा था
लपटों के उस पार श्मसान का
जर्रा जर्रा मानों काप रहा था
परंपरानुसार २३ बच्चों के शव जब
घाघरा में बहाए जा रहे थे
बादल गडगडाहट के साथ
तेजी से दहाड़ मार कर बरस रहे थे
मानो इस अनहोनी पर
बेकल विवश रो रहे थे
बीच बीच में उनकी निरापद शांति
ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो
मानो ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे
प्रकृति के इस प्रकोप पर
एक और जहाँ हर स्थानीय आमोखास
अन्दर तक हिल चुका था
पर अफ़सोस अन्ना की आंधी में
अधिकांश लोगों के पास
उन्हें श्रद्धांजली देने का
कहाँ वक़्त था
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2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता! दिल को छू गई हर एक पंक्तियाँ!शुभकामनाएं.
दिवंगतों को श्रद्धांजलि।
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