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बुधवार, 6 अप्रैल 2011

छात्रावास की यादें

विश्वविद्यालय के पूर्व
छात्रो के समागम का पाकर निमंत्रण
बिह्वल हो गया आह्लादित मन
मन में अपार अकथ अव्यक्त विचार
और उदगार की संभावनाएं
लहरों की तरह उठ और गिर रही थी
किस किस से होगी मुलाकात
सोच तन मन सिहरित हो रही थी
कौन अब क्या कर रहा होगा
कौन अब कैसा दीख रहा होगा
कितनो के बाल सर पर होगे
कितनो के सर ख़ाली हो गए होगे
सभी अपने बच्चो को साथ लाये होगे
मिल कर सब मौज और मस्ती करेगे
अतीत की प्यारी बातें करेंगे
मन के किसी कोने में थी यह आस
करेंगे पुरानी यादें
जाकर अपने छात्रावास

निर्धारित तिथि पर मैं
सम्मेलन के लिए चल पड़ा
देखकर शानदार आयोजन
में हतप्रभ था खड़ा
परिसर के एक एक कोने से थी यादें जुडी
पर थी यहाँ किसको किसकी पड़ी
मित्रों से होती रही बस
औपचारिक मुलाकातें
होती रही बस कैरियर
और भविष्य की बातें
किसी को अतीत पर चिंता नहीं चर्चा की
देख सबका प्रोफेसनल व्यवहार
मैंने भी कोई परिचर्चा की नहीं
सब दावतें उड़ाने में व्यस्त
सूरज होने को था अस्त

मैं अकेले ही चल पड़ा
अपने छात्रावास की ओर
वहां भी दीख रहा था काफी शोर
थोड़ी ही देर में था मैं
अपने कमरे के पास
वह कमरा मेरे लिए था खास
बाहर पड़ रहा था पाला
कमरे पर लटक रहा था ताला
बरामदे में खड़ा मैं उसमे
रहने वाले छात्र की राह देख रहा था
खड़ा खड़ा मैं अतीत में खो गया था
इतने अन्तराल के उपरांत भी
छात्रावास परिसर को कुछ परिवर्तन के बाद
भी तक़रीबन जस का तस पा रहा था
कोने वह बरगद का पेड़ आज भी
अविचल खड़ा लहरा रहा था
उस पर आज भी पंछियों का बसेरा
स्पष्ट दिख रहा था
जब भी कभी हम उदास होते
सुकून के लिए उसकी छावं में होते
गाँव से जब माँ बापू की आती
प्यार और सीख भरी पाती
उसी के नीचे बैठ उसे पदते
साथ में भेजे गए मेवे और
आचार का वही बैठ स्वाद चखते
माँ की बार बार की सीख और प्यार देख
जब कभी उसकी याद में आंसू चलते
उसकी छाव को हम माँ का आंचल समझ
उसकी गोद गोद में लेटे होते
माँ से दूर होते हुए भी माँ के करीब होते
यहाँ आकर माँ की याद पुनः ताजी हो गयी थी
जो की अब इस दुनिया में नहीं थी
न चाहते हुए भी आँखों के कोरो से
आंसुओं की बगावत चल रही थी

स्वयं को पुनः संभाल कर देखा
दूसरी और सेमर का विशाल वृक्ष
आज भी झूम रहा था
उससे गिरते हुए नाव प्रतीको को
छात्रावास के फुहारे में चलाना याद आ रहा था
सामने पंछियाना पेडो के समूह
जिसके नीचे कभी हम खेलते थे हु तू तू
उनके लाल लाल फूलो से पूरा
परिसर भरा हुआ था
मानो मेरे स्वागत को मेरा
इंतजार कर रहा था
सामने की क्यारियों में आज भी
गेंदा और गुलाब था खिला हुआ
उसकी खुशबू से सारा
परिसर था गमका हुआ
लान में आज भी मोरो के समूह
निर्भय विचरण कर रहे थे
भौरों के झुण्ड इस समय तक भी
फूलो पर मंडरा रहे थे
पंछियों के झुण्ड भी पेडो पर
स्थित अपने बसेरे पर जा रहे थे
खेल के मैदान से पसीना पोछते हुए छात्र
अपने छात्रावासों को जा रहे थे
दूर सड़क उस पर भगवान भाष्कर भी
क्रमशः अस्त हो रहे थे
सारा दृश्य ही मुझे परिचित लग रहा था
मानो सब मुझे पहचान मेरे
स्वागत को इच्छुक हो रहे थे
लान में पड़े बेंच पर बैठकर
मै आह्लादित था पूरा परिसर देखकर
पर साथ ही सोच रहा था कि
आज के मानव का हो गया है
कितना व्यावसायिक और मशीनीकरण
इमोशन और भावनाओ का हो गया है क्षरण
वह भूल गया है अतीत की समृद्ध
आधारशिला पर खड़ा करना
अपने भविष्य का महल
येन केन करना चाहता है बस
अपनी महत्वाकांछाओं का वरण
भूल चूका है समृद्ध यादों और
छोटी छोटी बातो में करना
खुशियों की तलाश
ढूढता रहता है पागलों की तरह
तीव्र ग्रीष्म में पलाश
झरोखों से आती प्यारी शीतल
पवन को छोड़ कर
समुद्री तुफानो में उड़ना पसंद करता है
लगातार और ऊँचा उड़ने की ख्वाइश में
असमय अपनी मृत्यु को आमंत्रण देता है
इन चलते फिरते बुद्धिजीवी लोगो से
बेहतर इन मूक प्राकृत उपादानो के
स्वागत से मै निरुत्तर और
निर्जीव सा हो गया था
खोकर अतीत की यादों में
इतने सजीवो के बीच में
अपने आप के निर्जीव होने पर
भी इतर रहा था

3 टिप्‍पणियां:

S R Bharti ने कहा…

वाकई यादगार पल...अच्छी रचना..बधाई.

S R Bharti ने कहा…

वाकई यादगार पल...अच्छी रचना..बधाई.

Amrita Tanmay ने कहा…

Yaden aisi hi hoti hai..achchha laga..