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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

माँ और प्रकृति

 

माँ हर सुबह निकलती है,
आसमान के रंग संग।
एक बोझा लकड़ी का सपना,
एक विश्वास — जीवन का ढंग।

पगडंडियाँ पहचानती हैं उसके पाँव,
झरनों की भाषा समझती है।
वो जंगल से माँगती नहीं कुछ,
बस सूखी टहनी चुनती है।

पहाड़ लाँघती है सहज भाव से,
मानो धरती उसकी सहेली हो।
थकान नहीं, करुणा चलती,
उसके कदमों की रेली हो।

मैं पूछता हूँ — “माँ, क्यों इतना श्रम?”
वो मुस्कुराती, कहती नम्र स्वर में —
“जंगल छानती हूँ,
सिर्फ़ सूखी लकड़ियों के लिए।
कहीं काट न दूँ कोई ज़िंदा पेड़!”

उस क्षण लगा —
माँ ही तो धरती है,
जो जलती भी है,
पर जीवन बचाती भी है।

✍️- डॉ. सत्यवान सौरभ


7 टिप्‍पणियां:

Digvijay Agrawal ने कहा…

सुंदर रचना
आभार
सादर वंदन

Priyahindivibe | Priyanka Pal ने कहा…

माँ और प्रकृति की ममत्व शक्ति का सुंदर रुप

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

Anita ने कहा…

प्रकृति के मन को समझती है माँ, उसकी सहोदरा जो है

Sweta sinha ने कहा…

वाह अत्यंत कोमल ,ममत्व भाव लिए
सारगर्भित अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार 31 अक्टूबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
देर से सूचित करने के लिए क्षमा चाहते हैं।

विश्वमोहन ने कहा…

वाह! बहुत अर्थपूर्ण।

हरीश कुमार ने कहा…

बहुत सुंदर