आलोचना होती रही है॥
राम ने राज्य का परित्याग किया,
पिता के वचन को उनकी आज्ञा मान-
कैकेयी का मान रखा,
१४ वर्ष का वनवास लिया..............
सीता के मनुहार में,
स्वर्ण-मृग का पीछा किया,
सीता हरण से व्याकुल रावण का संहार किया,
फिर प्रजा हितबध होकर ,
सारे सुखों का त्याग किया...........................
कृष्ण ने राम से अलग दिखाई नीति,
लीला के संग छल का जवाब दिया छल से
'महाभारत' के पहले-कुरुक्षेत्र का दृश्य दिखाया,
दुर्योधन से संधि-प्रस्ताव रखा,
स्वयं और पूरी सेना का चयन भीउसके हाथ दिया-
दुर्योधन ने जाना इसे कृष्ण की कमजोरी,
ग्वाले को बाँध लेने की ध्रिष्ठता दिखलाई...
कृष्ण ने विराट रूप लिया,
महाभारत के रूप में,
रिश्तों का रक्त तांडव चला...
फिर आया कलयुग!
१०० वर्षों की गुलामी का चक्र चला-
गाँधी का सत्याग्रह ,नेहरू की भक्ति,भगत सिंह का खून शिराओं में दौड़ा ......
एक नहीं,दो नहीं-पूरे १०० वर्ष,
शहीदों की भरमार हो गई,
जाने-अनजाने कितने नाम मिट गए-
'वंदे-मातरम्' की आन पर!
हुए आजाद हम अपने घर में,१०० वर्षों के
बादऔर जन-गण-मन का सम्मान मिला...........
सतयुग गया,गया द्वापर युग,हुए आजादी के ६० साल........
स्वर उभरे-
राम की आलोचना,
कृष्ण की आलोचना,
गाँधी की खामियां...दिखाई देने लगीं-
क्या करना था राम को,या श्री कृष्ण को,या गाँधी को.............
इसकी चर्चा चली!
आलोचकों का क्या है,
आलोचना करते रहेंगे...
आलोचना करने में वक्त नहीं लगता,
राम,कृष्ण,गाँधी बनने को,
जीवन का पल दूसरो को देना होता है,
मर्यादा,सत्य,स्वतन्त्रता कीराहों को सींचना होता है...
गर डरते हो आलोचनाओं से,
देवदार नहीं बन सकते हो,
नहीं संभव है फिर चक्र घुमाना-
सतयुग नहीं ला सकते हो!!!!!!!!!!!!
9 टिप्पणियां:
गर डरते हो आलोचनाओं से,
देवदार नहीं बन सकते हो,
नहीं संभव है फिर चक्र घुमाना-
सतयुग नहीं ला सकते हो!!!!!!!!!!!!
sahi hai aalochana se sahajta purvak gujarte hue hi bheed se alag manjil ko prapt kiya ja sakta hai.
''आलोचना होती रही है''....... बहुत शानदार रचना है ॰॰॰॰॰॰॰ धर्म ग्रंथों के कथानकों के अच्छे उदाहरण पेश करते हुवे आपने अच्छा संदेश दिया है ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ रश्मि जी शुभकामनायें॰॰॰॰॰॰॰॰॰
सतयुग, द्वापरयुग aur कलयुग ko saath lekar adboot ....
Aur aalochana se kon bacha hai ? na raam na Krishna aur na hi gaandhi ji ya bhagat singh...
अगर कुछ काम नहीं तो आलोचना ही सही..उसमे आनंद भी बहोत आता है और पैसे भी नहीं पड़ते...और दुनीया का नियम है जब उनके जितना हम न कर सके तो उनकी बुराईया शुरू कर दो...
एक आदमी को ३ बच्चे थे..माता पिता और बीवी और वो खुद..कुल मिलाकर ७ लोग..कमाने वाला एक..बेचारा सुबह घर से निकलता तो आते आते रात के १ बज जाता..दिन में कही भी थोडा आराम कर लेता और वापस कही और मजदूरी का काम मिल जाये तो वो कर लेता...उसका ही दोस्त आलसी था...उसकी बीवी उसको हर बार उसका उदाहरण देके समजाती..आखिर उसने एक काम किया अपने ही दोस्त के लिए बाते फैलानी शुरू कर दी की उसका तो अपनी बीवी से जमता ही नहीं इसलिए वो देरी से आता है..उसने बहार भी एक औरत रखी है..ये कलयुग की आलोचना...
दुनीया ने ना राम को छोडा है न कृष्ण को और ना आम आदमी को...दुनीया का काम ही आलोचना करना है..
जिसकी आलोचना होती जरुर समजना की वो कुछ ज्यादा ही अच्छा है..किसीकी आलोचना करने में खुद को कभी भी शामिल मत करना..
एक सही समस्या को लोगों तक पहुचाने के लिए आपने जिस तरह सभी युगों को कविता में बाँध दिया है ,अद्वितीय है .
आलोचना करना जन-जागरण का प्रतीक बनता जा रहा है ,अब वह दृष्टि विलुप्त होती जा रही है,जो अच्छाइयों को ढूंढती हो .
सदैव की भांति आपकी ये कविता भी कुछ कहती है ..............
Rashmi ji,
Gar darte ho alochnaon se,devdar naheen ban sakte ho,naheen sambhav hai fir chakra ghumana-satyug naheen la sakte ho..
Bahut achchha sandesh yuvaon ke liye.
Hemant Kumar
आलोचनाएँ प्रसिद्धी का पैमाना हैं । बहुत ही सुन्दर कविता है । कविता में जिन महान आत्माऒं की चर्चा की गई है, वे समाज के आदर्श हैं। उनके बारे में सबका अपना-अपना नजरिया है । वास्तव में गलत-सही, अच्छा-बुरा ये सब तुलनात्मक शब्द हैं और व्यक्तिगत दृष्टिकोण के हिसाब से परिभाषित होते हैं ।
क्या बात है.. सुदर कविता
और मैं बेचारा सोचता था कि आजकल हिन्दी में अच्छे लेखन के नाम पर केवल ’प्रगतिशील व जनवादी लेखन’ रह गया है ! रश्मि जी, आपकी इस सुंदर रचना हेतु आपको हार्दिक बधाई। ईश्वर आपको दीर्घायु करें व आपकी कलम को अधिकाधिक शक्ति प्रदान करें।
सुशान्त सिंहल
www.sushantsinghal.blogspot.com
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