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बुधवार, 29 सितंबर 2010

विचलित है मन

कृष्ण कराओ पुनः
अपने विराट स्वरुप का दर्शन
विचलित है मन
आसन्न एक परिवर्तन
गीता का भाष्य
पठनीय पाठ्य
पूरित परिपथ
निश्चित दर्शनीय
एक और अग्निपथ
पिटती परंपराओं की लकीरें
क्या खोल पायेगी
उन शहीदों की तकदीरें
जिन्होंने सहर्ष
किया था जीवन अर्पण
उनकी विधवाएं मांजती
आज इन नेताओं के घर बर्तन
बच्चे जिनके चाटते
इनके आज जूठन
सरकारी अनुदानों हेतु
लगाते चक्कर
खाते टक्कर पे टक्कर
भूखे भेड़ियों का बन गयी शिकार
अस्मत हो गई तार -तार
बिक गए घर-द्वार
आज भी जोहती निराला की वह तोड़ती पत्थर
अपना पालनहार !!

3 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.

Akanksha Yadav ने कहा…

आज भी जोहती निराला की वह तोड़ती पत्थर
अपना पालनहार !!
...बहुत गहरे भाव छिपे हैं इस रचना में...बधाई.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

शब्दों का आवेश व आक्रोश दोनो ही दिख रहा है।