रेत का ढेर है
यह जिन्दगी
जिसमें अनगिनत
सपनों के घरौंदें
रेत से, रेत पर
बनते और ढहते हैं
पलभर में
हकीकत की दुनियां से
बेहद परे
अपनी कल्पना लोक में
सपने सारे
सच ही तो लगते हैं
इस छोटी सी
समय सीमा के भीतर
सच्चाई के सामने आने तक
इन नाजुक सपनों को
क्या पता कि
रेत कभी भी अपना
साकार रुप धारण नहीं करता
बल्कि जितनी ही जतन से
रखों उन्हें समेटकर
मुट्ठी में
वह उतनी ही तेजी से
फिसलता चला जाता है
मुट्ठी से
और कर जाता है खाली
मुट्ठी को
एक बार फिर
टुटे हुए
सपनों के साथ...
प्रकाश यादव "निर्भीक"
अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा, तिलहर शाखा,
जिला शाहजहाँपुर, उ0प्र0 मो. 09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in
सोमवार, 3 जनवरी 2011
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
4 टिप्पणियां:
सुन्दर कविता, समय रेत की तरह बह जाता है।
achcha bhaw par jeevan ke prati sakaratmak hone chahiye
प्रकाश अंकल ने तो बहुत अच्छी कविता लिखी है..बधाई.
______________
'पाखी की दुनिया' में 'जाड़ा भागे अंडमान' से...
खूबसूरत अभिव्यक्ति..बधाई.
एक टिप्पणी भेजें