स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। आजादी का अर्थ सिर्फ राजनैतिक आजादी नहीं अपितु यह एक विस्तृत अवधारणा है, जिसमें व्यक्ति से लेकर राष्ट्र का हित व उसकी परम्परायें छुपी हुई हैं। कभी सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत राष्ट्र को भी पराधीनता के दौर से गुजरना पड़ा। पर पराधीनता का यह जाल लम्बे समय तक हमें बाँध नहीं पाया और राष्ट्रभक्तों की बदौलत हम पुनः स्वतंत्र हो गये। स्वतंत्रता रूपी यह क्रान्ति करवटें लेती हुयी लोकचेतना की उत्ताल तरंगों से आप्लावित है। यह आजादी हमें यूँ ही नहीं प्राप्त हुई वरन् इसके पीछे शहादत का इतिहास है। लाल-बाल-पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह व आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खिलाफ दिया गया इन्कलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजों की हिंसा पर भारी पड़ी और अन्ततः 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत किया और 26 जनवरी 1950 को भारत एक गणतंत्र राष्ट्र के रूप में अवतरित हुआ।
इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। लोकलय की आत्मा में मस्ती और उत्साह की सुगन्ध है तो पीड़ा का स्वाभाविक शब्द स्वर भी। कहा जाता है कि पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे की शहादत से उठी ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया। मंगल पाण्डे के बलिदान की दास्तां को लोक चेतना में यूँ व्यक्त किया गया है- जब सत्तावनि के रारि भइलि/ बीरन के बीर पुकार भइल/बलिया का मंगल पाण्डे के/ बलिवेदी से ललकार भइल/मंगल मस्ती में चूर चलल/ पहिला बागी मसहूर चलल/गोरनि का पलटनि का आगे/ बलिया के बाँका सूर चलल।
1857 की क्रान्ति में जिस मनोयोग से पुरुष नायकों ने भाग लिया, महिलायें भी उनसे पीछे न रहीं। लखनऊ में बेगम हजरत महल तो झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने इस क्रान्ति की अगुवाई की। बेगम हजरत महल ने लखनऊ की हार के बाद अवध के ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर क्रान्ति की चिन्गारी फैलाने का कार्य किया- मजा हजरत ने नहीं पाई/ केसर बाग लगाई/कलकत्ते से चला फिरंगी/ तंबू कनात लगाई/पार उतरि लखनऊ का/ आयो डेरा दिहिस लगाई/आसपास लखनऊ का घेरा/सड़कन तोप धराई। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये। झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चैहान उनकी वीरता का बखान करती हैं, पर उनसे पहले ही बुंदेलखण्ड की वादियों में दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है- खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।
बंगाल विभाजन के दौरान 1905 में स्वदेशी-बहिष्कार-प्रतिरोध का नारा खूब चला। अंग्रेजी कपड़ों की होली जलाना और उनका बहिष्कार करना देश भक्ति का शगल बन गया था, फिर चाहे अंग्रेजी कपड़ों में ब्याह रचाने आये बाराती ही हों- फिर जाहु-फिरि जाहु घर का समधिया हो/मोर धिया रहिहैं कुंआरि/ बसन उतारि सब फेंकहु विदेशिया हो/ मोर पूत रहिहैं उघार/ बसन सुदेसिया मंगाई पहिरबा हो/तब होइहै धिया के बियाह। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता व नृशंसता का नमूना था। इस हत्याकाण्ड ने भारतीयों विशेषकर नौजवानों की आत्मा को हिलाकर रख दिया। गुलामी का इससे वीभत्स रूप हो भी नहीं सकता। सुभद्राकुमारी चैहान ने ‘जलियावाले बाग में वसंत’ नामक कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की है-कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर/कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर/आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं/अपने प्रिय-परिवार देश से भिन्न हुए हैं/कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना/करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना/तड़प-तड़पकर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर/शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर/यह सब करना, किन्तु बहुत धीरे-से आना/यह है शोक-स्थान, यहाँ मत शोर मचाना।
कोई भी क्रान्ति बिना खून के पूरी नहीं होती, चाहे कितने ही बड़े दावे किये जायें। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में एक ऐसा भी दौर आया जब कुछ नौजवानों ने अंग्रेजी हुकूमत की चूल हिला दी, नतीजन अंग्रेजी सरकार उन्हें जेल में डालने के लिये तड़प उठी। उस समय अंग्रेजी सैनिकों की पदचाप सुनते ही बहनें चैकन्नी हो जाती थीं। तभी तो सुभद्राकुमारी चैहान ने ‘बिदा’ में लिखा कि- गिरफ्तार होने वाले हैं/आता है वारंट अभी/धक्-सा हुआ हृदय, मैं सहमी/हुए विकल आशंक सभी/मैं पुलकित हो उठी! यहाँ भी/आज गिरतारी होगी/फिर जी धड़का, क्या भैया की /सचमुच तैयारी होगी। आजादी के दीवाने सभी थे। हर पत्नी की दिली तमन्ना होती थी कि उसका भी पति इस दीवानगी में शामिल हो। तभी तो पत्नी पति के लिए गाती है- जागा बलम् गाँधी टोपी वाले आई गइलैं..../ राजगुरू सुखदेव भगत सिंह हो/तहरे जगावे बदे फाँसी पर चढ़ाय गइलै।
सरदार भगत सिंह क्रान्तिकारी आन्दोलन के अगुवा थे, जिन्होंने हँसते-हँसते फासी के फन्दों को चूम लिया था। एक लोकगायक भगत सिंह के इस तरह जाने को बर्दाश्त नहीं कर पाता और गाता है- एक-एक क्षण बिलम्ब का मुझे यातना दे रहा है/तुम्हारा फंदा मेरे गरदन में छोटा क्यों पड़ रहा है/मैं एक नायक की तरह सीधा स्वर्ग में जाऊँगा/अपनी-अपनी फरियाद धर्मराज को सुनाऊँगा/मैं उनसे अपना वीर भगत सिंह मांँग लाऊँगा। इसी प्रकार चन्द्रशेखर आजाद की शहादत पर उन्हें याद करते हुए एक अंगिका लोकगीत में कहा गया- हौ आजाद त्वौं अपनौ प्राणे कऽ /आहुति दै के मातृभूमि कै आजाद करैलहों/तोरो कुर्बानी हम्मै जिनगी भर नैऽ भुलैबे/देश तोरो रिनी रहेते। सुभाष चन्द्र बोस ने नारा दिया कि- ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठे - हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी/कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा/ हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।
महात्मा गाँधी आजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातने द्वारा उन्होंने स्वावलम्बन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नौजवान अपनी-अपनी धुन में गाँधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानते और एक स्वर में गाते- अपने हाथे चरखा चलउबै/हमार कोऊ का करिहैं/गाँधी बाबा से लगन लगउबै/हमार कोई का करिहैं। 1942 में जब गाँधी जी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का आह्वान किया तो ऐसा लगा कि 1857 की क्रान्ति फिर से जिन्दा हो गयी हो। क्या बूढ़े, क्या नवयुवक, क्या पुरुष, क्या महिला, क्या किसान, क्या जवान...... सभी एक स्वर में गाँधी जी के पीछे हो लिये। ऐसा लगा कि अब तो अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना ही होगा। गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ ने इस ज्वार को महसूस किया और इस जन क्रान्ति को शब्दों से यूँ सँवारा- बीसवीं सदी के आते ही, फिर उमड़ा जोश जवानों में/हड़कम्प मच गया नए सिरे से, फिर शोषक शैतानों में/सौ बरस भी नहीं बीते थे सन् बयालीस पावन आया/लोगों ने समझा नया जन्म लेकर सन् सत्तावन आया/आजादी की मच गई धूम फिर शोर हुआ आजादी का/फिर जाग उठा यह सुप्त देश चालीस कोटि आबादी का।
भारत माता की गुलामी की बेड़ियाँ काटने में असंख्य लोग शहीद हो गये, बस इस आस के साथ कि आने वाली पीढ़ियाँ स्वाधीनता की बेला में साँस ले सकें। इन शहीदों की तो अब बस यादें बची हैं और इनके चलते पीढ़ियाँ मुक्त जीवन के सपने देख रही हैं। कविवर जगदम्बा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ इन कुर्बानियों को व्यर्थ नहीं जाने देते- शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले/वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा/कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे/जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमाँ होगा।
देश आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय की बेला में विजय का आभास हो रहा था। फिर कवि लोकमन को कैसे समझाता। आखिर उसके मन की तरंगें भी तो लोक से ही संचालित होती हैं। कवि सुमित्रानन्दन पंत इस सुखद अनुभूति को यूँ सँजोते हैं-चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन्, जय गाओ सुरगण/आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन/नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण/ तरुण-अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन/सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन/ आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन/शांत हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण/मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण! देश आजाद हो गया, पर अंग्रेज इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक- आर्थिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर गये। एक तरफ आजादी की उमंग, दूसरी तरफ गुलामी की छायाओं का डर......गिरिजाकुमार माथुर ‘पन्द्रह अगस्त’ की बेला पर उल्लास भी व्यक्त करते हैं और सचेत भी करते हैं-आज जीत की रात, पहरुए, सावधान रहना/खुले देश के द्वार, अचल दीपक समान रहना/ऊँची हुई मशाल हमारी, आगे कठिन डगर है/शत्रु हट गया, लेकिन उसकी छायाओं का डर है/शोषण से मृत है समाज, कमजोर हमारा घर है/किन्तु आ रही नई जिंदगी, यह विश्वास अमर है। उल्लास और सचेतता के बीच अन्ततः 26 जनवरी 1950 को भारत एक गणतंत्र राष्ट्र के रूप में अवतरित हुआ।
स्वतंत्रता की कहानी सिर्फ एक गाथा भर नहीं है बल्कि एक दास्तान है कि क्यों हम बेड़ियों में जकड़े, किस प्रकार की यातनायें हमने सहीं और शहीदों की किन कुर्बानियों के साथ हम आजाद हुये। यह ऐतिहासिक घटनाक्रम की मात्र एक शोभा यात्रा नहीं अपितु भारतीय स्वाभिमान का संघर्ष, राजनैतिक दमन व आर्थिक शोषण के विरूद्ध लोक चेतना का प्रबुद्ध अभियान एवं सांस्कृतिक नवोन्मेष की दास्तान है। जरूरत है हम अपनी कमजोरियों का विश्लेषण करें, तद्नुसार उनसे लड़ने की चुनौतियाँ स्वीकारें और नए परिवेश में नए जोश के साथ आजादी के नये अर्थों के साथ एक सुखी व समृद्ध भारत का निर्माण करें।
आकांक्षा
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17 टिप्पणियां:
स्वतंत्रता की कहानी सिर्फ एक गाथा भर नहीं है...........bahut sahi kaha aur jo lay aapne baandhaa hai lok chetna me , wah prashansniye hai
विचारक लेख लिखा है आपने ..गणतन्त्र दिवस की बहुत बहुत बधाई आपको शुक्रिया
गणतंत्र दिवस की शुभकानाएं और सुंदर लेख के लिए बधाई
इतिहास को जानने की जरुरत है या नही ,ये मुद्दा हम अखबारी लोगों के बीचअक्सर बहस का विषय होता है।आए दिन किसी न किसी से तो इतिहास पढने और अतीत को जानने-समझने की सलाह मिल ही जाती है। वैसे भी हमारे यहाँ मुफ्तकी नसीहत कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाया करती है। लगता है हम मसले से दूर जा रहे हैं ,चलिए वापस इतिहास के मुद्दे पर लौट जायें । यूँ देखें तो हम-आप में से हर कोई इतिहासकार है । प्रत्येक को किसी न किसी तरह का समय बोध होता ही है। कोई पढ़ कर जानकारी ग्रहण करता है ,कोई वर्षों पुरानी श्रुति-स्मृति की परम्परा के माध्यम से सीखता है। हाँ ,यह बात गौर करने योग्य है कि आम इंसान हो या फिर इतिहासविद ,सबों का मत एक जैसा नही होता । इसके पीछे भी तर्क दिया जाता है- हर इंसान का नजरिया अलग-अलग होता है।
अब बात है , इतिहास को किस स्तरपर जानना चाहिए ? क्या ख़ुद के बारे में जान लेना काफी होगा ? नही , हमें इतिहास को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में सोचने का प्रयास करना चाहिए । हालाँकि आजकल लोगो को इतनी फुर्सत कहाँ होती है । शहरमें न जाने कितने ऐसे लोग हैं जिन्हें अपने दादा-परदादा का नाम तक मालूम नही होता ! परन्तु, निराश होने की बात नही है। मानव स्वाभाव ही कुछ ऐसा है किहम जाते तो हैं निरंतर भविष्य कीओर लकिन हमारा अतीत हमें अनवरत आकर्षित करता रहता है । हम अपने दैनिक जीवन में जब भी कोई ऐसी वास्तु पा जाते हैं जिनका भुत से सम्बन्ध हो तो हमारी आँखें चमक उठती है। अतीत को जानकर-समझ कर और उससे सीख लेकर वर्तमान तथा भविष्य दोनों को बेहतर किया जा सकता है । साथ ही इतिहास जानने का एक अन्य कारण है ,सदियों भारत पर विदेशी आक्रान्ताओं का शासन । किसी ने कहा है -"जिस जाति के पास अपने पूर्व-गौरव की ऐतिहासिक स्मृति होती है वो अपने गौरव की रक्षा का हर सम्भव प्रयत्न करती है। " अफ़सोस की आज हमारे अन्दर वो स्मृति गायब होती जा रही है! बंकिमचंद्र चटर्जी को भी यही दुःख था -'साहब लोग अगर चिडिया मरने जाते हैं तो उसका भी इतिहास लिखा जाता है'। वैसे ये नई बात नही ,अंग्रेज साहबों से सक्दो साल पहले का इतिहास भी शासकों के इशारों पर कलमबद्ध होता रहा है । अनगिनत काव्य और ग्रन्थ चाटुकारिता के आदर्श स्थापित करने हेतु लिखे गए । कलम के पुजारियों ने निजी स्वार्थ या दवाब में आकर डरपोकों को शूरवीर , गदारों को देशभक्त ,जान-सामान्य के पैसो से मकबरा बनने वाले को मुहब्बत का देवता बना डाला । मुगलों से अंग्रेजो तक आते -आते हमारा वास्तविक इतिहास कहाँ चला गया ,पता भी नही चल पाया। कविश्रेष्ठ रविन्द्रनाथ ने इस सन्दर्भ में एक बार कहा था कि "एक विशेष कोटि के इतिहास द्वारा सांस्कृतिक उपनिवेश्ता इस देश के वास्तविक इतिहास का लोप कर देना चाहती है। हम रोटी के बदले ,सुशासन , सुविचार ,सुशिक्षा - सब कुछ एक बड़ी.............. दूकान से खरीद रहे हैं- बांकी बाजार बंद है.................जो देश भाग्यशाली हैं वे सदा स्वदेश को इतिहास में खोजते और पते हैं। हमारा तो सारा मामला ही उल्टा है। यहाँ देश के इतिहास ने ही स्वदेश को ढँक रखा है। "
चर्चा तो आगे भी होगी । अगर कोई पूछे कि इस इतिहास को पढने से क्या मिला ? परीक्षाओं के अलावा इस तरह के इतिहास का कोई और फायदा ढूँढना मेरे \बस का नही । नुक्सान अवश्य बता सकता हूँ - विदेशी सभ्यताओं -संस्कृतियों को आदर्श मानकर हमारा ह्रदय स्वदेश,स्वसंस्कृति से विमुख हो चुका है। हमारी नक़ल हर दिन चलती रहती है मानो पाश्चत्य सभ्यता से बढ़ कर इस दुनिया में और कुछ है ही नही।
....बहुत खूब आकांक्षा जी, आपने तो गागर में सागर भर दिया.गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें.
गणतंत्र दिवस पर सुबह से वही रटी-रटाई चीजें देखते-पढ़ते हुए बोर हो गया था, पर आपकी यह रचना पढ़कर बड़ी राहत महसूस हुई. यदि कहूं की बड़ी ही खूबसूरती से इसे आपने संजोया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
इस तरह के रचनात्मक आलेख कम ही पढने को मिलते हैं, बहुत सारगर्भित लिखा है आपने आकांक्षा जी. ६० वें गणतंत्र दिवस की ढेरों शुभकामनायें !!
आकांक्षा जी आपने देश भक्ति का ऐसा बिगुल बजाया कि रोएँ खड़े हो गए. गौर करें जरा-
एक-एक क्षण बिलम्ब का मुझे यातना दे रहा है/तुम्हारा फंदा मेरे गरदन में छोटा क्यों पड़ रहा है/मैं एक नायक की तरह सीधा स्वर्ग में जाऊँगा/अपनी-अपनी फरियाद धर्मराज को सुनाऊँगा/मैं उनसे अपना वीर भगत सिंह मांग लाऊँगा।
भारत माता की गुलामी की बेड़ियाँ काटने में असंख्य लोग शहीद हो गये, बस इस आस के साथ कि आने वाली पीढ़ियाँ स्वाधीनता की बेला में साँस ले सकें। इन शहीदों की तो अब बस यादें बची हैं और इनके चलते पीढ़ियाँ मुक्त जीवन के सपने देख रही हैं। कविवर जगदम्बा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ इन कुर्बानियों को व्यर्थ नहीं जाने देते- शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले/वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा/कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे/जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमाँ होगा। .....Behatrin alekh.Congts to Akanksha Ji.
खड़ी बोली के साथ-साथ भोजपुरी और अंगिका में प्रस्तुत गीत इस लेख को विशिष्ट बनाते है.60 वें गणतंत्र दिवस की ढेरों शुभकामनायें !!
एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह व आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खिलाफ दिया गया इन्कलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजों की हिंसा पर भारी पड़ी और अन्ततः 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत किया और 26 जनवरी 1950 को भारत एक गणतंत्र राष्ट्र के रूप में अवतरित हुआ। स्वतंत्रता रूपी यह क्रान्ति करवटें लेती हुयी लोकचेतना की उत्ताल तरंगों से आप्लावित है।....देश के विभिन्न अंचलों की बोलियों-भाषाओँ के गीतों को सहेजे यह लेख एक सुन्दर भविष्य की तरफ भी संकेत करता है !!
लोक चेतना के बहाने स्वाधीनता का आपने अच्छा प्रवाह किया. लाजवाब प्रस्तुति के लिए बधाई.
60 वें गणतंत्र दिवस की ढेरों शुभकामनायें !!
आकांक्षा जी ! आपका यह आलेख इतिहास के बिखरे पन्नों के बहाने आज के समाज को जीवंत करता है.
इस सुंदर विस्तृत आलेख के लिए आभार.
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सुंदर लेख के लिए बधाई.....
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