अमाँ किस वतन के हो?
किस समाज का ज़िक्र करते हो?
जहाँ समानता के नाम पर,
फैशन की अंधी दौड़ में,
बेटियाँ नग्नता की सीमा पार कर गयीं...
पुरूष की बराबरी में,
औंधे मुंह गिरी पड़ी हैं!
शर्म तो बुजुर्गों को आने लगी है,
और चन्द उन युवाओं को -
जिनके पास मान्यताएं बची हैं.......
कौन बहन है,कौन पत्नी,
कौन प्रेयसी,कौन बहू !
वाकई समानता का परचम लहरा रहा है!
समानता की आड़ में
सबकुछ सरेआम हो गया है!
झुकी पलकों का कोई अर्थ नहीं रहा,
चेहरे की लालिमा बनावटी हो गई!
या खुदा!
ये कहाँ आ गए हम?!?
शनिवार, 3 जनवरी 2009
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10 टिप्पणियां:
समानता की आड़ में
सबकुछ सरेआम हो गया है!
झुकी पलकों का कोई अर्थ नहीं रहा,
चेहरे की लालिमा बनावटी हो गई!
या खुदा!
ये कहाँ आ गए हम?!?
..Vah kya bat kahi hai.Kathya men tikhapan hai, par sachhai hai !!
शर्म तो बुजुर्गों को आने लगी है,
और चन्द उन युवाओं को -
जिनके पास मान्यताएं बची हैं.......
समाज को उसका चेहरा दिखता दिखाती कविता. दाद देता हूँ.
Ati sundar.
वाकई समानता का परचम लहरा रहा है!
समानता की आड़ में
सबकुछ सरेआम हो गया है!
...महिलाएं अच्छा लिख रही हैं, उसकी यह kavita एक बानगी है.
बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति और भाव..बधाई.
...एक सार्थक और प्रेरणास्पद कविता हेतु साधुवाद.
Rashmi ji,
Bilkul sahee likha hai apne ..Aj hamare desh,samaj ka yuva apne sanskar,apnee sabhyata,sanskriti..sabhee kuchh bhoolta ja raha hai.sirf fashan kee andhee daud men.
Hemant Kumar
सुंदर बिम्ब और बढ़िया भावाभिव्यक्ति !!
uvaashakti ko apni yahi sanskriti bachaane ke liye hi to sangharsh karnaa hai bahut badiyaa badhaai kisi ko to ye girte mulya kachot rahe hain
बिल्कुल सामयिक प्रसंग है, समानता और स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग सकारात्मक हो तो बेहतर रहेगा वरना अपसंस्कृति को ही बढ़ावा मिलेगा ।
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