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सोमवार, 12 जनवरी 2009

संक्रमण काल के दौर में युवा शक्ति

(स्वामी विवेकानंद का जन्म-दिवस:१२ जनवरी ''युवा-दिवस'' के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर देश की युवा शक्ति की संक्रमणकालीन स्थिति पर यह लेख प्रस्तुत करते हुए ''युवा'' ब्लॉग की तरफ से सभी को ''युवा-दिवस'' पर हार्दिक शुभकामनायें अर्पित करते हैं !!)

युवा किसी भी समाज और राष्ट्र के कर्णधार हैं, वे उसके भावी निर्माता हैं। चाहे वह नेता या शासक के रूप में हों , चाहे डॉक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, साहित्यकार व कलाकार के रूप में हों। इन सभी रूपों में उनके ऊपर अपनी सभ्यता, संस्कृति, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे ले जाने का गहरा दायित्व होता है। पर इसके विपरीत अगर वही युवा वर्ग उन परम्परागत विरासतों का वाहक बनने से इन्कार कर दे तो निश्चिततः किसी भी राष्ट्र का भविष्य खतरे में पड़ सकता है।

युवा शब्द अपने आप में ही उर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है। युवा को किसी राष्ट्र की नींव तो नहीं कहा जा सकता पर यह वह दीवार अवश्य है जिस पर राष्ट्र की भावी छतों को सम्हालने का दायित्व है। भारत की कुल आबादी में युवाओं की हिस्सेदारी करीब 70 प्रतिशत है जो कि विश्व के अन्य देशों के मुकाबले काफी है। इस युवा शक्ति का सम्पूर्ण दोहन सुनिश्चित करने की चुनौती इस समय सबसे बड़ी है। जब तक यह ऊर्जा और आन्दोलन सकारात्मक रूप में है तब तक तो ठीक है, पर ज्यों ही इसका नकारात्मक रूप में इस्तेमाल होने लगता है वह विध्वंसात्मक बन जाती है। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर किन कारणों से युवा उर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है? वस्तुतः इसके पीछे जहाँ एक ओर अपनी संस्कृति और जीवन मूल्यों से दूर हटना है, वहीं दूसरी तरफ हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी दोष है। इन सब के बीच आज का युवा अपने को असुरक्षित महसूस करता है, फलस्वरूप वह शार्टकट तरीकों से लम्बी दूरी की दौड़ लगाना चाहता है। जीवन के सारे मूल्यों के उपर उसे ‘अर्थ‘ भारी नजर आता है। इसके अलावा समाज में नायकों के बदलते प्रतिमान ने भी युवाओं के भटकाव में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्मी परदे और अपराध की दुनिया के नायकों की भांति वह रातों-रात उस शोहरत और मंजिल को पा लेना चाहता है, जो सिर्फ एक मृगण्तृष्णा है। ऐसे में एक तो उम्र का दोष, उस पर व्यवस्था की विसंगतियाँ, सार्वजनिक जीवन में आदर्श नेतृत्व का अभाव एवम् नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन ये सारी बातें मिलकर युवाओं को कुण्ठाग्रस्त एवम् भटकाव की ओर ले जाती हैं, नतीजन-अपराध, शोषण, आतंकवाद, अशिक्षा, बेरोजगारी एवम् भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ जन्म लेती हैं।

भारतीय संस्कृति ने समग्र विश्व को धर्म, कर्म, त्याग, ज्ञान, सदाचार और मानवता की भावना सिखाई है। सामाजिक मूल्यों के रक्षार्थ वर्णाश्रम व्यवस्था, संयुक्त परिवार, पुरूषार्थ एवम् गुरूकुल प्रणाली की नींव रखी। भारतीय संस्कृति की एक अन्य विशेषता समन्वय व सौहार्द्र रहा है, जबकि अन्य संस्कृतियाँ आत्म केन्द्रित रही हैं। इसी कारण भारतीय दर्शन आत्मदर्शन के साथ-साथ परमात्मा दर्शन की भी मीमांसा करते हैं। अंग्रेजी शासन व्यवस्था एवम् उसके पश्चात हुए औद्योगीकरण, नगरीकरण और अन्ततः पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने भारतीय संस्कृति पर काफी प्रभाव डाला। निश्चिततः इन सबका असर युवा वर्ग पर भी पड़ा है। आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद तो युवा वर्ग के विचार-व्यवहार में काफी तेजी से परिवर्तन आया है। पूँजीवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बाजारी लाभ की अन्धी दौड़ और उपभोक्तावादी विचारधारा के अन्धानुकरण ने उसे ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और शार्टकट के गर्त में धकेल दिया। कभी विद्या, श्रम, चरित्रबल और व्यवहारिकता को सफलता के मानदण्ड माना जाता था पर आज सफलता की परिभाषा ही बदल गयी है। आज का युवा अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से परे सिर्फ आर्थिक उत्तरदायित्वों की ही चिन्ता करता है। युवाओं को प्रभावित करने में फिल्मी दुनिया और विज्ञापनों का काफी बड़ा हाथ रहा है पर इनके सकारात्मक तत्वों की बजाय नकारात्मक तत्वों ने ही युवाओं को ज्यादा प्रभावित किया है। फिल्मी परदे पर हिंसा, बलात्कार, प्रणय दृश्य, यौन-उच्छश्रंृखलता एवम् रातों-रात अमीर बनने के दृश्यों को देखकर आज का युवा उसी जिन्दगी को वास्तविक रूप में जीना चाहता है। फिल्मी परदे पर पहने जाने वाले अधोवस्त्र ही आधुनिकता का पर्याय बन गये हैं। वास्तव में परदे का नायक आज के युवा की कुण्ठाओं का विस्फोट है। पर युवा वर्ग यह नहीं सोचता कि परदे की दुनिया वास्तविक नहीं हो सकती, परदे पर अच्छा काम करने वाला नायक वास्तविक जिन्दगी में खलनायक भी हो सकता है।

शिक्षा एक व्यवसाय नहीं संस्कार है, पर जब हम आज की शिक्षा व्यवस्था देखते हंै, तो यह व्यवसाय ही ज्यादा ही नजर आती है। युवा वर्ग स्कूल व काॅलेजों के माध्यम से ही दुनिया को देखने की नजर पाता है, पर शिक्षा में सामाजिक और नैतिक मूल्यों का अभाव होने के कारण वह न तो उपयोगी प्रतीत होती है व न ही युवा वर्ग इसमें कोई खास रूचि लेता है। अतः शिक्षा मात्र डिग्री प्राप्त करने का गोरखधंधा बन कर रह गयी है। पहले शिक्षा के प्रसार को सरस्वती की पूजा समझा जाता था, फिर जीवन मूल्य, फिर किताबी और अन्ततः इसका सीधा सरोकार मात्र रोजगार से जुड़ गया है। ऐसे में शिक्षा की व्यवहारिक उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। शिक्षा संस्थानों में प्रवेश का उद्देश्य डिग्री लेकर अहम् सन्तुष्टि, मनोरंजन, नये सम्बन्ध बनाना और चुनाव लड़ना रह गया है। छात्र संघों की राजनीति ने काॅलेजों में स्वस्थ वातावरण बनाने के बजाय महौल को दूषित ही किया है, जिससे अपराधों में बढ़ोत्तरी हुई है। ऐसे में युवा वर्ग की सक्रियता हिंसात्मक कार्यों, उपद्रवांे, हड़तालांे, अपराधों और अनुशासनहीनता के रूप में ही दिखाई देती है। शिक्षा में सामाजिक और नैतिक मूल्यों के अभाव ने युवाओं को नैतिक मूल्यों के सरेआम उल्लंघन की ओर अग्रसर किया है, मसलन-मादक द्रव्यों व धूम्रपान की आदतें, यौन-शुचिता का अभाव, काॅलेज को विद्या स्थल की बजाय फैशन ग्राउण्ड की शरणस्थली बना दिया है। दुर्भाग्य से आज के गुरूजन भी प्रभावी रूप में सामाजिक और नैतिक मूल्यों को स्थापित करने में असफल रहे हैं।

आज के युवा को सबसे ज्यादा राजनीति ने प्रभावित किया है पर राजनीति भी आज पदों की दौड़ तक ही सीमित रह गयी है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने जब मताधिकर की उम्र अट्ठारह वर्ष की थी तो उन्होंने श्इक्कीसवीं सदी युवाओं कीश् आहृान के साथ की थी पर राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेताओं ने युवाओं का उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में किया। विचारधारा के अनुयायियों की बजाय व्यक्ति की चापलूसी को महत्ता दी गयी। स्वतन्त्रता से पूर्व जहाँ राजनीति देश प्रेम और कत्र्तव्य बोध से प्रेरित थी, वहीं स्वतन्त्रता बाद चुनाव लड़ने, अपराधियों को सरंक्षण देने और महत्वपूर्ण पद हथियाने तक सीमित रह गयी। राजनीतिज्ञों ने भी युवा कुण्ठा को उभारकर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल किया और भविष्य के अच्छे सब्जबाग दिखाकर उनका शोषण किया। विभिन्न राजनैतिक दलों के युवा संगठन भी शोशेबाजी तक ही सीमित रह गये हैं। ऐसे में अवसरवाद की राजनीति ने युवाओं को हिंसा भड़काने, हड़ताल व प्रदर्शनों में आगे करके उनकी भावनाओं को भड़काने और स्वंय सत्ता पर काबिज होकर युवा पीढ़ी को गुमराह किया है।

आदर्श नेतृत्व ही युवाओं को सही दिशा दिखा सकता है, पर जब नेतृत्व ही भ्रष्ट हो तो युवाओं का क्या? किसी दौर में युवाओं के आदर्श गाँधी, नेहरू, विवेकानन्द, आजाद जैसे लोग या उनके आसपास के सफल व्यक्ति, वैज्ञानिक और शिक्षक रहे। पर आज के युवाओं के आदर्श वही हैं, जो शार्टकट के माध्यम से ऊँचाइयों पर पहुँच जाते हैं। फिल्मी अभिनेता, अभिनेत्रियाँ, विश्व-सुन्दरियाँ, भ्रष्ट अधिकारी, अपराध जगत के डाॅन, उद्योगपति और राजनीतिज्ञ लोग उनके आदर्श बन गये हंै। नतीजन, अपनी संस्कृति के प्रतिमानों और उद्यमशीलता को भूलकर रातों-रात ग्लैमर की चकाचैंध में वे शीर्ष पर पहुँचना चाहते हंै। पर वे यह भूल जाते हंै कि जिस प्रकार एक हाथ से ताली नहीं बज सकती उसी प्रकार बिना उद्य्म के कोई ठोस कार्य भी नहीं हो सकता। कभी देश की आजादी में युवाओं ने अहम् भूमिका निभाई और जरूरत पड़ने पर नेतृत्व भी किया। कभी विवेकानन्द जैसे व्यक्तित्व ने युवा कर्मठता का ज्ञान दिया तो सन् 1977 में लोकनायक के आहृान पर सारे देश के युवा एक होकर सड़कांे पर निकल आये पर आज वही युवा अपनी आन्तरिक शक्ति को भूलकर चन्द लोगों के हाथों का खिलौना बन गये हंै।
आज का युवा संक्रमण काल से गुजर रहा है। वह अपने बलबूते आगे तो बढ़ना चाहता है, पर परिस्थितियाँ और समाज उसका साथ नहीं देते। चाहे वह राजनीति हो, फिल्म व मीडिया जगत हो, शिक्षा हो, उच्च नेतृत्व हो- हर किसी ने उसे सुखद जीवन के सब्ज-बाग दिखाये और फिर उसको भँवर में छोड़ दिया। ऐसे में पीढ़ियों के बीच जनरेशन गैप भी बढ़ा है। समाज की कथनी-करनी में भी जमीन आसमान का अन्तर है। एक तरफ वह सभी को डिग्रीधारी देखना चाहता है, पर उन सभी हेतु रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाता, नतीजन- निर्धनता, मँहगाई, भ्रष्टाचार इन सभी की मार सबसे पहले युवाओं पर पड़ती है। इसी प्रकार व्यावहारिक जगत मंे आरक्षण, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, भाई-भतीजावाद और कुर्सी लालसा जैसी चीजों ने युवा हृदय को झकझोर दिया है। जब वह देखता है कि योग्यता और ईमानदारी से कार्य सम्भव नहीं, तो कुण्ठाग्रस्त होकर गलत रास्तों पर चल पड़ता है। निश्चिततः ऐसे में ही समाज के दुश्मन उनकी भावनाओं को भड़काकर व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित करते हंै, फलतः अपराध और आतंकवाद का जन्म होता है। युवाओं को मताधिकार तो दे दिया गया है पर उच्च पदों पर पहुँचने और निर्णय लेने के उनके स्वप्न को दमित करके उनका इस्तेमाल नेताओं द्वारा सिर्फ अपने स्वार्थ में किया जा रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि युवा वर्ग ही भावी राष्ट्र की आधारशिला रखता है, पर दुःख तब होता है जब समाज युवाओं में भटकाव हेतु युवाओं को ही दोषी ठहराता है। क्या समाज की युवाओं के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं? जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्ति जब सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों का सरेआम क्षरण करते नजर आते हैं, तो फिर युवाओं को ही दोष क्यों? क्या मीडिया ''राष्ट्रीय युवा दिवस'' को वही कवरेज देता है, जो ''वैलेंटाइन-डे'' को मिलता है? एक व्यक्ति द्वारा अटपटे बयान देकर या किसी युवती द्वारा अर्द्धनग्न पोज देकर जो (बद्) नाम हासिल किया जा सकता है वह दूर किसी गाँव में समाज सेवा कर रहे व्यक्ति को तभी मिलता है जब उसे किसी अन्तराष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जाता है। आखिर ये दोहरापन क्यों ? युवाओं ने आरम्भ से ही इस देश के आन्दोलनों में रचनात्मक भूमिका निभाई है- चाहे वह समाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक हो। लेकिन आज युवा आन्दोलनों के पीछे किन्हीं सार्थक उद्देश्यों का अभाव दिखता है। युवा आज उद्देश्यहीनता और दिशाहीनता से ग्रस्त है, ऐसे में कोई शक नहीं कि यदि समय रहते युवा वर्ग को उचित दिशा नहीं मिली तो राष्ट्र का अहित होने एवम् अव्यवस्था फैलने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। युवा व्यवहार मूलतः एक शैक्षणिक, सामाजिक, संरचनात्मक और मूल्यपरक समस्या है जिसके लिए राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक सभी कारक जिम्मेदार हैं। ऐसे में समाज के अन्य वर्गों को भी जिम्मेदारियों का अहसास होना चाहिए, सिर्फ युवाओं को दोष देने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि सवाल सिर्फ युवा शक्ति के भटकाव का नहीं है, वरन् अपनी संस्कृति, सभ्यता, मूल्यों, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने का भी है। युवाओं को भी ध्यान देना होगा कि कहीं उनका उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में न किया जाय।
कृष्ण कुमार यादव

23 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

yuva shakti har kaal me sarwopari rahi hai,tabhi to rajnaitik hathkande apnaye jaate hain.....yuva ko galat disha dikhanewale desh ke sankirn warg gain,warna unke liye to bas yahi sahi hai-
nahi hai naumeed ikbaal apni kishte veeran se,zara nam ho to ye mitti badee zarkhez hai saaki......

Unknown ने कहा…

इसके विपरीत अगर वही युवा वर्ग उन परम्परागत विरासतों का वाहक बनने से इन्कार कर दे तो निश्चिततः किसी भी राष्ट्र का भविष्य खतरे में पड़ सकता है।....Bade krantikari vichar hain.Aj aise hi vicharon ki jarurat hai.

Akanksha Yadav ने कहा…

युवा सोच को धार देता एक बेहतरीन आलेख.
स्वामी विवेकानंद जयंती और युवा दिवस की शुभकामनायें !!

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

इसमें कोई शक नहीं कि युवा वर्ग ही भावी राष्ट्र की आधारशिला रखता है, पर दुःख तब होता है जब समाज युवाओं में भटकाव हेतु युवाओं को ही दोषी ठहराता है। क्या समाज की युवाओं के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं?....लाजवाब विचारों की प्रस्तुति.स्वामी विवेकानंद जयंती की शुभकामनायें !!

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

सर्वप्रथम युवा दिवस की ढेरों बधाइयाँ. समकालीन समाज में युवाओं की स्थिति की पड़ताल करता के.के. जी का लेख पढ़कर अभिभूत हूँ.बहुत संजीदगी से लिखा गया है यह लेख..बधाई.

बेनामी ने कहा…

Yuva shakti par bada prabhavi lekh hai. Apne itni khubsurati se likh hai ki is lekh ko bar-bar padhne ka man karta hai.

बेनामी ने कहा…

''स्वामी विवेकानंद जयंती'' और ''युवा दिवस'' पर हार्दिक बधाइयाँ.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

कायल हूँ कृष्ण कुमार जी की सोच का.एक युवा का युवा वर्ग के प्रति बेहद संजीदा चिंतन.यदि कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस लेख को हर युवा को पढना चाहिए.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

''युवा दिवस'' और ''स्वामी विवेकानंद जयंती'' की हार्दिक बधाइयाँ !

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

युवाओं को भी ध्यान देना होगा कि कहीं उनका उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में न किया जाय।
..............आज युवा संक्रमण काल में जी रहा है. एक तरफ रोजगार की चिंता, दूसरी तरफ अपनी संस्कृति को बचाने की जद्दोजहद..पर राजनेता से लेकर सभी लोग उसे मात्र मोहरा के रूप में उपयोग करना चाहते है, बड़ी जटिल दुविधा है. kk ji जैसे युवा प्रशासक की कलम से ऐसा लेख युवाओं को राह दिखाता है...बधाई !!!

Bhanwar Singh ने कहा…

विवेकानंद जी के खूबसूरत फोटो के साथ इतना सारगर्भित विचार पढना रोचक एवं सामयिक लगा. ''युवा'' ब्लॉग दिनों-ब-दिन इसी तरह लोकप्रिय होता रहे और हमें अच्छे विचार मिलते रहें.

KK Yadav ने कहा…

एक बार फिर से आप सुधि जनों को ''राष्ट्रीय
युवा दिवस'' एवं ''स्वामी विवेकानंद जयंती'' पर हार्दिक बधाइयाँ.आपने मुझे सराहा, आभारी हूँ. अपना प्यार यूँ ही बनाये रखें !!

Vinay ने कहा…

बहुत प्रभावशाली लेख है, सबको पढ़कर इससे कुछ सीख लेनी चाहिए!

---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें

Prakash Badal ने कहा…

स्वागत है आपका। बहुत ही बढ़िया जानकारी। आशा है आपका यह ब्लॉग उन्नति के पथ पर अग्रसर हो।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

सब कुछ तो सबने कह दिया.....सब से अपन भी सहमत हुए....पर क्या है कि चिंगारी तो ख़ुद के भीतर से ही निकलती है....और ख़ुद ही उसे हवा भी देना होता है...चिंगारी कहाँ है भई...??

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

सचमुच यह संक्रमण का दौर है, और अगर आज का युवा चेत जाए, तो फिर इस देश को प्रगति पथ पर जाने से कोई नहीं रोक सकता।

गम्‍भीर एवं विचारपरक लेख के लिए बधाई।

बवाल ने कहा…

युवा वर्ग को इंगित कर रहा बेहतरीन लेख ।
स्वामी विवेकानंद जयंती और युवा दिवस की शुभकामनाओं सहित ।

अवाम ने कहा…

बहुत ही अच्छा और आशाओं भरा लेख है आपका पर मुझे लगता है आज के युवा भगत सिंह या विवेकानंद के आदर्शों पर चलने बजाय एमटीवी रोडीज़ बनाना ज्यादा पसंद कर रहे है.

रंजना ने कहा…

गम्‍भीर एवं विचारपरक लेख के लिए आभार ।

Shambhu Choudhary ने कहा…

आदरणीय यादव जी, नमस्कार।
आपका यह लेख http://manchsamachar.blogspot.com/
पर पोस्ट किया हूँ।
शम्भु चौधरी

Sachin ने कहा…

बहुत खूबसूरत आलेख है। सही बात है, युवा भटका हुआ है। लेकिन सिर्फ ये कहने भर से काम नहीं चलेगा। हमें उसे सही रास्ते पर लाना होगा। कैसे...यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है। लेकिन करना तो होगा ही। हम सब भी युवा हैं। आओ संकल्प लें कि अपने आस-पास के वातावरण को सुधारें, सकारात्मक तरीके से खुद को, अपने मित्रों को और हर संभव संपर्क में आने वाले युवाओं को देशहित में सोचने के लिए प्रेरित करें। इस साल को युवा वर्ष के तौर पर मनाएँ। क्योंकि ये दुनिया का ट्रांसीजन फेज है। भारत को हमारी जरूरत है।

सुशांत सिंघल ने कहा…

परसों गाज़ियाबाद के एक स्कूल में स्वामी विवेका्नंद का एक चित्र लगा देखा जिस पर लिखा था - "मैं उस प्रभु का सेवक हूं जिसे मूर्ख लोग मनुष्य कहते हैं।"

नर सेवा ही नारायण सेवा है। एक हमारे आजकल के नेता हैं। बेटे को टिकट मिल जाये इसके लिये गू भी चाटने को तत्पर हो रहे हैं। और यह सब कुछ समाज सेवा के नाम पर !

सुशान्त सिंहल