शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
हे नूतन वर्ष तू ठहर जरा
पुनः धन्यवाद् के साथ सादर
निर्मेश
हे नूतन वर्ष तू ठहर जरा
क्यों ठिठक रहे है पावँ तिहारे
क्यों उदास तुम आज लग रहे
निर्भय आओ तुम पावँ पसारे
भरी आज क्यों आंख तिहारी
तन तेरा निस्तेज है क्यों
मस्तक पर चिंता की लहरे
मुख मंडल खामोश है क्यों
बेशक असुरों की बढ़ी बाढ़ है
आसुरी प्रवृतियाँ है हमें डराती
निसंदेह सहमती आज धरा भी
पर तुम मानवता की हो थाती
ये असुर भटकते अधियारों में
हो चुके कर्म मर्यादाहीन
लक्ष्य दीखता इन असुरों का
बने धरा सौन्दर्यविहींन
देखे कितने विनाश है तुमने
कितनो युद्धहों के तुम गवाह हो
साक्षी रहे प्रलय के तुम भी
नई श्रृष्टि के तुम प्रवाह हो
पनप रही दैवी प्रवृतियाँ भी
लिए हाथ में इनकी गर्दन
होगी अतीत की पुनरावृत्ती
होगा इनका मान मर्दन
सदा रही विनाश से दूर धरा
आजीवन इसने वरदान दिया
हर तन का अवसाद छीन
हर चेहरे पर मुस्कान दिया
ये स्वयं रही अनभिज्ञ मधु से
जीवनभर विषपान किया
इस माँ ने झेले लाखो कष्ट
अविरल श्रृष्टि को पनाह दिया
शश्य श्यामला आर्य भूमि पर
होगा तेरा शत शत वंदन
नई श्रृष्टि की चादर तान
प्रकृति करे तेरा अभिनन्दन
होगा पुनः अमृत का वर्षण
हे नूतन वर्ष तेरे नेतृत्व में
मुखरित होगी पावन प्रकृति
हम अर्याजानो के कृतित्व से
निर्भय आओ तुम सौगात लिए
होती नहीं अब और प्रतीक्षा
करो दानवों का तुम नाश
पूरित मानव की हर इक्क्षा
पथ में बिछा दूब चांदनी
कर युवाशक्ति का आह्वाहन
दूर क्षितिज तक बूंद ओंस की
नयनाभिराम दर्शन पावन
ले अतीत से नूतन सीख
कर पावन भविष्य का निर्माण
नहीं चाहिए और किसी
अपनी जीवन्तता का प्रमाण
अभिनन्दन शत शत वंदन
हे पावन प्रकृति हे वसुंधरा
लिए अंक में चारो पुरुषार्थ
है नमन तुम्हे पावन धरा
बुधवार, 29 दिसंबर 2010
वेदना से नवोन्मेष की शिखर यात्रा
देख सामने एक नाव
एक वृद्ध को को तमाम बच्चो के साथ
करते देख अटखेलिया
करते गलबहिया
अरे ये तो वही है
जिसे मेंटल अस्पताल में
देखा था कुछ महीने पहले
चीखते जोर जोर से
पूछने पर नर्से ने बताया
हाल कुछ इस तरह सुनाया
इसके दोनों बेटें निकट भूत में
सीमा पर हो गए शहीद
नाम इसका है अब्दुल वाहिद
पत्नी पहले ही चल बसी थी
यही इनकी आखिरी उम्मीद बची थी
इसी सदमे ने कर दिया इसे पागल
सुन मन हो गया बेकल
दिल दहल उठा था
मैं मौन निस्तब्ध बस
उसे ही देखे जा रहा था
अंत में संवेदना व्यक्त करते
साथ लाये फलो को
उसे ही अर्पित करते
अपने मरीज को देख
मैं बाहर हो गया था
समय के साथ उस घटना को
भी भूल गया था
पर आज वह घाव
पूजने के बजाय हरी हो गयी
आंखे पुनः भर गयी
मुझे लगा की शायद
वह पूरा पगला गया था
क्योकि जिसे देखा था
भीषण दुःख और अवसाद से ग्रसित
वह तो खुल कर आज हस रहा था
जिज्ञासवास मैं उसके करीब आया
उसका देख व्यवहार आंख भर आया
मैंने कहा चाचा आप कैसे है
बोला पहले से बेहतर है
बच्चो के जाने के बाद
जीवन में भर गया था अवसाद
एकबारगी लगा था
जीवन हो गया समाप्त
पर अंतर्मन में जो शक्ति थी व्याप्त
उससे मुझे मिले निर्देश
जीवन में करने है अभी और कुछ शेष
पुनः एक दृढ संकल्प के साथ
तैयार हो गया जीवन से करने दो दो हाथ
बेशक मैंने अपने दो लाल है खोये
पर हमारे पारम्परिक मूल्य
वसुधैव कुटुम्बकम ने
ये अनेक लाल है मुझको दिए
बेटा अब इन अनाथ बच्चो की
देखभाल करता हूँ
अपने पेंसन के सभी पैसे
इन्ही पर खर्च करता हूँ
देश पर मर मिटने हेतु
इन्हें ही प्रेरित करता हूँ
ताकि इन्हें रोजी रोटी के साथ साथ
देश की सेवा का अवसर भी मिल सके
बेटा यह इस देश का है पराक्रम
जहाँ लाइन लगाकर
फौज में भर्ती होकर
जान देना ही है इन कर्णधारों का
प्रारब्ध और उपक्रम
देश की वर्तमान स्थिति से तो
आप हो ही परिचित
इन नेताओं और नौकरशाहों से
हो नहीं आप अपरिचित
देश कैसे रहेगा सुरक्षित सत्रुओं से
इन्हें तो फुर्सत है नहीं
अपनी जेबे भरने से
मची है चारों ओर जो मारा मारी
ऐसे परिवेश में मेरा
छोटा सा प्रयास रहेगा जारी
मरना तो सभी को है ही एक दिन
कम से कम ये देश को बचायेगे
इस आर्यावर्त के इतिहास को दोहरायेगे
अपलक खामोश मैं
उस वृद्ध को देख रहा था
उसके जीवन का फलसफा
समझने का प्रयास कर रहा था
देख रहा था उसके जीवन की
कामना और लालसा
वेदना से नवोन्मेष की शिखर यात्रा
उसके जीवन की जिजिविषिका को
अपने से कम्पयेर कर रहा था
उसके सामने अपने को
बहुत ही तुक्ष
महसूस कर रहा था
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
स्तब्ध मैं विचलित .....
सपरिवार मैं इलाहाबाद जा रहा था
रिजेर्वेशन कम्पार्टमेंट में भी
भीड़ बड़ा जा रहा था
बहुत सारे स्नानार्थी
और यात्री पुण्य कमाने
संगम में जा रहे थे
डुबकी लगाने
डिब्बे में सदा की भांति
चना मूंगफली वाल़े व
भिखारी आ जा रहे थे
अपनी अपनी तरह से
अपनी आजीविका कमा रहे थे
उसी भीड़ में हमें भीख
माँगते हुए दो बच्चियां मिली
एक की आंख थी बंद
शायद थी वो अंधी दुसरे की थी खुली
जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में
आवर्णित तन
व्यथित मन
बड़े हे करुण रस में
कर रही थी वो विलाप
दग्ध हो गया मन
देख उनका प्रलाप
विदेशी सैलानियों ने
उनके फोटो लिए
चाँद सिक्के के साथ
खाने को भी कुछ दिए
सभी की तरह मैंने भी
कुछ रुपये दिए उनको
देख उनकी करुण गाथा
समझा रहा था मैं
अपने व्यथित मन को
हाय ईश्वर ने
ये क्या किया
असमय ही इनके माँ बापू को
इनसे क्यों छीन लिया
यही सोचते सोचते
स्टेशन आया
नीचे उतरा मैं लेकर सारे सामान
चारो ओर बिखरी भीड़ देख
मन हो गया परेशान
एक किनारे खड़ा मैं
आगे के लिए सोच रहा था
तभी उन बच्चियों को
हंस हंस कर बातें करते
एक कोने मैं देख रहा था
उनके आँखों की
देख चमक
आवाज की खनक
माथा गया ठनक
वो कह रही थी
कितना मजा आया
ऑंखें बंद करके
खुली आँखों वालों को
कितनी खूबसूरती से
बेवकूफ बनाया
स्तब्ध
हो विचलित
कभी मैं आसमान की ओर
कभी उनको देखता रहा
उनके अतीत और भविष्य के
आकान्छाओं के बीच
मैं मूर्तिवत झूलता रहा
शनिवार, 11 दिसंबर 2010
नया जीवन
कोशिश के बाद अस्पताल के
विस्तर पर मै पड़ा था
बगल में ही एक और मरीज
गंभीर रोग से पीड़ित था
असाध्य रोग से ग्रस्त
पर देखा उसके अन्दर
जीने की प्रबल लालसा
एक मै था की स्वस्थ होकर भी
स्वयं को काल के गाल में
भेजने को उद्यत था
एक खिडकी थी
ठीक उसके पीछे
रोज उसके पास बैठता था
वो आंखे मीचे
मै अक्सर कई बार उससे
बिस्तर बदलने को कहता
करके नए बहाने
वो हर बार टाल जाता
मै उदास उससे ही
बाहर के हाल चाल पूछता
वो हर बार मुझे
कुछ सुन्दर बताता
मेरे अन्दर जीने की
एक नई इच्छा भरता
प्रकृति के तमाम
सौंदर्य का दे हवाला
मेरी इक्षाशक्ति बढाकर उसने
मेरी मृत्यु को लगभग टाला
मुझे ठीक होते देख उसकी
खुशियों का नहीं था पारावार
जबकि उसकी तबियत
बिगड़ रही थी लगातार
एक दिन सुबह उठकर मैंने
आवाज सुनी नहीं उसकी
मेरे नीचे से जमीन सरकी
जिग्यासवास धीरे से उठकर
गया जब उसके बिस्तर
पर उसे मौन पाया
उसके खिड़की के पीछे
बस एक सख्त दीवाल पाया
हतप्रभ मैं कभी उसे
कभी उस दीवाल को देखता
सोचता
बेशक वो जीवन की जंग
भले ही हार गया
पर जाते जाते
अनजाने में ही सही
मुझे नया जीवन
वो दे गया
गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
आज का भारत
चहुँ ओर प्रगति दिखलाई पड़े
अथाह-प्रगति के सागर में
अविराम प्रगति के खम्ब जडे
है लुटेरों का राज यहाँ
पग-पग फैला भ्रष्टाचार
अपराधों की प्रगति हो रही
हर दिन होता अत्याचार
कुछ वर्ष पूर्व हम जीते थे
व्यवस्थित मतवाली लहरों संग
है अस्त-व्यस्त जीवन अब तो
होती भोर अभावों संग
सब कुछ कागज पर होता है
सड़क नालियों का निर्माण
लूट-लूट सरकारी पैसा
रचते नित ’’भ्रष्टाचार-पुराण’’
गुलाम समय में ‘चालीस’ थे
आजादी में सौ आजाद हुए
अब अर्धशतक के पहले ही
एक सौ दस ‘आबाद’ हुए
सरेआम लुटती है अबला
जीवन की गूंजे चित्कार
निशदिन ऐसा फैल रहा है
मानवता पर अत्याचार
जनसंख्या में उन्नति जारी है
अवनति ने कदम बढ़ाये हैं
अभावों की भीषणता ने
पग-पग ध्वज फहराये हैं
फिर भी भाषण में होता है
प्रखर-प्रगति का ही गुणगान
पाश्चत्य सभ्यता में खोकर के
‘‘कहते मेरा भारत महान’’
नेता के भाषण-प्रवाह में
जन-मानस यूँ बह जाता है
मिथ्या वादों की गम्भीर मार से
सारे दुःख सह जाता है
भारत की सोयी जनता जागे
गद्दारों का हो प्रतिकार
तभी देश का भाग्य जगेगा
माँ-‘भारती’ का हो सत्कार
कहीं-कहीं पर अन्न नही है
कहीं-कहीं मिलता न पानी
कहीं-कहीं न घर रहने को
कहीं सदा तड़पी जिन्दगानी !!
एस. आर. भारती
शनिवार, 4 दिसंबर 2010
पापा का प्यार
खो गए थे हम
मन में लिए उच्च शिछा के सपने
दो बहन और एक भाई के साथ
बड़े हो रहे थे हम
पापा के सिमित आय में ही
मजे से चल रहा था गुजरा
एक दुसरे की तकलीफे
थी नहीं हमें गवारा
बड़ी होने के कारण मैं
माँ बापू की थी दुलारी
हर छोटे बड़े घरेलु निर्णयों में
मेरा होता था पलड़ा भारी
पापा चाहते थे
मुझे जान से भी ज्यादा
कितनी बार कहा था
तुमसे दूर होना हमें
तनिक भी नहीं भाता
अचानक पापा के हृदयाघात ने
हमें झकझोर दिया
मेरे सारे सपने को
तक़रीबन ही तोड़ दिया
हृदयाघात के उपरांत
स्वास्थ्यलाभ कर रहे पापा को
मम्मी समझा रही थी
मेरे विवाह की चिंता ही
उन्हें खा रही थी
मैंने अपने सारे सपने को
पापा की खातिर दे दी तिलांजलि
विवाह के लिए भर हामी
शायद भर दी थी उनकी अंजलि
विवाह के उपरांत भरे मन से
दे दी गयी मुझे विदाई
पापा मम्मी के साथ
भाई बहनों की आंखे भी
रो रो कर सूज आयी
देख सबका प्रेम इतना सारा
मेरा भी कलेजा मुह को आया
बरबस आसुओं के सैलाब के साथ
अपने को अनजान लोगो के बीच
ससुराल में पाया
रास्ते भर सोचती रही की
अब पापा का क्या होगा
सोच कर मन काप गया
की मेरे बिना उनका जीवन
कितना सूना होगा
समयचक्र के खेल ने मुझे
ससुराल में व्यस्त कर दिया था
बेशक मोबाइल ने दूरियों को
कम कर दिया था
फिर भी रह रह कर कलेजे में
हूक उठती रही
पापा से मिलने की इक्छा
बलवती होती रही
सोचती पता नहीं पापा कैसे होगे
कैसे उनके दिन और रात कटते होगे
चाय और डिनर पर पापा अब
किसका इंतजार करते होगे
पारवारिक फैसले पर अब
किसकी मुहर लगती होगी
और किससे अपने दिल की बात
शेयर करते होगे
सोचते सोचते मैं अतीत में
इतना खो जाती
तभी अतीत और वर्तमान के बीच
सेतु के रूप में सुमित को
अपने करीब पाती
एक सहचर के रूप में सुमित को पाकर
निश्चिन्त और निशब्द हो जाती
उसकी बाँहों में झूलकर
उनके सानिध्य में कमी कम
खलती थी अपनों की
अफसोस नहीं होता
अपने अपूर्ण सपनों की
संयोग
दीपावली पर भाई के टीका हेतु
सुमित के साथ पीहर पहुची
देख अपनों का व्यवहार
पैरो की जमीं खिसकी
किसी को मेरी परवाह नहीं
मेरे लिए सबके पास वो गर्मजोशी दिखी नहीं
लगा सबके लिए मैं एक अनचाही
वस्तु बन गयी
जब भी मैंने अपने पूर्वाधिकार के साथ
कोई बात कहनी चाही
अपने को उन लोगो से उपेक्षा और
अवहेलना का शिकार ही पाई
पापा ने भी हाल चाल और
बातचीत की खानापूरी ही की
कही भी वो गर्मजोशी नहीं दिखी
हमें तो लगा था की सब
हमें देखते ही हाथो हाथ उठा लेगे
मेरे तो पाव ही जमीं पर नहीं पड़ेगे
लगा लोगो को हो क्या गया
की सब हमसे कन्नी काट रहे
मेरी हर बात जान बूझ कर टाल रहे
मैं हूँ एक अवांछित वस्तु
इसका अहसास करा रहे
मन मेरा जार जार रोना चाहा
तभी बैठक में पापा को
मम्मी से बाते करते पाया
जल्दी से कुमकुम के बाद
गुडिया का कर विवाह
जल्दी से गंगा नहाने की
थी उन्हें चाह
बाद में बबलू की करेंगे
धूम धाम से शादी
करेंगे पूरे अरमान अपने बाकी
बहू को घर में लाने की बेताबी
उनकी बातो में प़ा रही थी
उनके शब्दों में एक
नई खनक प़ा रही थी
जहाँ अपने बिना पापा के निराधार
व शुन्य की थी कल्पना
अफसोस मेरे विछुडाना उनके लिए
बस हो गया था एक सपना
सत्य ही लगा
कर ले बेटी आज भी
त्याग चाहे जितना
बेटे का स्थान उसके लिए
है एक सपना
और आज भी है वो
एक पराये वस्तु जितना
मै जडवत सुनती रही
बातें उनकी सारी
लगा कहाँ गया पापा का
प्यार वो भारी
जिस घर के संस्कार पर था
हमें स्वाभिमान इतना
अपने जिस परिवार पर गुमान था इतना
तरस आयी देख उनकी सोच अदना
हृदय की उग्र पीड़ा ले आंसुओं का समुन्दर
पी लेना चाहा सारे दर्द को अन्दर ही अन्दर
मेरी सिसकियों ने छोड़ दिया
मेरी हिचकियो का साथ
तभी महसूस हुआ कंधे पर
कोई भारी हाथ
पलट कर देखा सुमित मुझे
पीछे से सहला रहे थे
भर बाँहों में मुझे जी भर समझा रहे थे
चलो जल्दी से टीका कर
आओ चले अपने घर
उनके समझाने के साथ ही साथ
मेरी सिसकियाँ बदती जा रही थी
अपने घर की परिभाषा
अब समझ में आ रही थी
जो बातें कभी माँ बापू के बाँहों में
हुआ करती थी
वो आज पती के बाँहों में प़ा रही थी
एक बार पुनः आंचल में दूध
और आखों में है पानी को
चरितार्थ होते देख प़ा रही थी
एक लड़की की व्यथा को
पुनः अपारभाषित प़ा रही थी
भर ले समाज चाहे
कितना भी दम
एक नए सूर्योदय की और
बढेगा बस बातो के सहारे ही
हमारा कदम
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
खुशियाँ
खुशिओं की तलाश में रहते है हम
समृधि में ही खुशिओं को तलाशते है हम
रोज एक नया लक्ष्य बनाते है
उनके प्राप्ति के उपरांत खुशियाँ मनाते है हम
पर पुनः एक नए लक्ष्य की चाह
उन खुशिओं को छणिक बना देती है
सागर क़े करीब ही प्यास का
अहसास करा देती है
पुनः जीवन में वही नीरसता
खालीपन और उतकाहट भर देती है
जहाँ से प्रारंभ किया होता है सफ़र
फिर वही पंहुचा देती है
पुनः एक सच्ची खुसी की चाहत
बेचैन बना देती है
वैसे भी एक भ्रम
पाले हुए है हम
की जितना वैभव और सुविधा जुटायेगे हम
उतना ही संपन्न सुखमय और
खुशियों से भरा जीवन बितायेगे हम
जबकि सच्चाई है ये
उतना ही परेशां होते है हम
अपने वैभव और स्वार्थ को पूरा करने हेतु
अनेक अनचाहे और असामाजिक कदम
उठाकर स्वयं आत्मग्लानी में हो रत
दुसरे को दुःख देते है हम
तभी तो पश्चिम के देश
तमाम शानो शौकत
और वैभव के उपरांत भी रहते है उदास
आज भी उनको रहती है सच्चे सुख
और खुशिओं की तलाश
जिनकी खोज में उन्हें भाते है
हमारे अध्यात्मिक फूलों और
समृधि संस्कृति के विरासत के पलाश
पंचंत्र की छोटी सी कहानी
कर देती है दूध का दूध
और पानी का पानी
एक योगी हरिद्वार के गंगातट पर
अपने लक्ष्य हेतु तल्लीन
तप में लीन
अपनी छुदा हेतु कर रहा था भिक्षाटन
उसके पास आकर रुका नगरसेठ का टमटम
सेठ ने कहा अरे करो कुछ उद्योग
इससे फिर क्या होगा योग
कमाओगे पैसा ढेर सारा
फिर क्या करूँगा मैं किस्मत का मारा
कर लेना विवाह लेकर एक अच्छा घर
होगा क्या पर
घर में कूलर पंखा और टीवी लगवा लेना
खूब बढ़िया बिस्तर सजवा लेना
और ठाठ से बिस्तर पर लेटकर टीवी देखना
जीवन का मौज लेना
योगी ने kaha छान भर के लिए शुन्य में निहार
मैं तो उससे भी अच्छा कर रहा हूँ बिहार
जो इतना जतन के बाद पता
उससे कही ज्यादा मैं संतोष से कमाता
बिना इतना तत्मजाल किये
ठाठ से घाट पर रह रहा हूँ
आसमान को बना
छत तारो की तन चादर
जमीन का बना बिस्तर
खुशियों की भरी गागर लिए
अंतरीक्ष की टीवी देखता हूँ
दूर ही रहो ई सेठ मैं अपने को
तुमसे कही ज्यादा ही खुश पाता हूँ
सारांश आधुनिक बाजारवाद ने बेशक
कम कर दी है दिलो की दूरियां
पर सत्य ये भी है की
अन्तरंग संबंधो में अब नहीं रही
वो नजदीकियां
वस्तुतः इसने हमारे तमाम प्राचीन
मूल्यों को कर दिया है ध्वस्त
साथ में हमें किया है पस्त
हमें है गिला
की इन ध्वस्त मूल्यों का हमें
कोई विकल्प नहीं मिला
छीन कर हमारी खुशियाँ और चैन
हमको हद से ज्यादा कर दिया है बेचैन
दिनभर की भाग्दौर के बाद भी
हम अपने आपको खली हाथ पाते है
बेशक कमा लेते है मनचाहा पैसा
पर शरीर को रोगों का घर बना लेते है
तमाम खुशियों की चाह में
स्वयं को भुला बैठते है
रिश्तो को भी तार तार करने मैं
संकोच नहीं करते है
जब उन खुशियों को भोगने का समय आता है
शारीर साथ छोड़ जाता है
अस्तु इसबात को जाने
अपने अप को पहचाने
ख़ुशी अंतर्चेतना से जुडी होती है
अपने मन के भीतर बसी होती है
खुश होता है चित्रकार अपनी सुन्दरतम कृति पर
तो संगीतकार अपनी बेहतरीन धुन पर
सेठ अपनी माया पर
तो यौवना अपनी सुन्दर काया पर
खुश होता है कवी अपनी सुन्दर तम कविता पर
तो गंगा अपनी सविता पर
निर्पेक्ष्य सत्य ये है की
दुसरे के चहरे पर मुस्कराहट देने से
जो ख़ुशी मिलती है
तमाम खुशियों से बड़ी होती है
ख़ुशी महत्वाकंछओं का नहीं है हनन
हाँ बेशक है इक्छओं का परिसीमन
कर्मयोग की परिधि में संतोष जैसे
मानवीय मूल्यों का है मूल्याकन
भूल होगी की ख़ुशी को वैभव और
विलास क़े राह पर देखा जॉय
अच्छा है मन की बातें ही
ख़ुशी का सबब बन जाये
जरूरत है उन्हें पहचानने
व अहसास करने की तो
निर्मेश देर किस बात की
आओ खुशियों से इस संसार को भर दे
अपने एक एक कतरे से
कर परोपकार
इस धरा को उपवन कर दे ।
शनिवार, 20 नवंबर 2010
हिंदी ब्लागिंग से लोगों का मोहभंग
पोस्टें आती हैं, जाती हैं, पर कोई असर नहीं डालतीं. पढने के नाम पर इतना बड़ा मजाक कि टिप्पणियां उसकी गवाही देनी लगती हैं. इन टिप्पणियों पर कोई गौर करे तो अपने को दुनिया का सबसे बड़ा रचनाकार मानने की भूल कर बैठे. एक ही टिप्पणियां हर ब्लॉग पर विराजती हैं, फिर कहाँ से हिंदी ब्लोगिंग का विकास होगा. हिंदी ब्लागिंग के नाम पर लोग संगठन बनाकर और सम्मलेन कराकर अपनी मठैती चमका रहे हैं. यही कारण है कि कई पत्र-पत्रिकाओं ने बड़े मन से ब्लॉगों की चर्चा आरंभ की, पर फिर इसे बंद ही कर दिया. कई अच्छे ब्लॉग सरेआम पोस्ट लगाकर पूछ रहे हैं की क्या पोस्ट
न आने के कारण ब्लॉग बंद कर दिया जाय.
आज जरुरत हिंदी-ब्लागरों के आत्म विश्लेषण की है. हिंदी ब्लागिंग में अभी भी गंभीरता से देखें तो कुछ ही ब्लॉग हैं, जो नियमित अप-डेट होते हैं. ब्लॉग के नाम पर अराजकता ज्यादा फ़ैल रही है. यहाँ किसी पोस्ट का कंटेंट नहीं, बल्कि जान-पहचान ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है, फिर गंभीर लोग इससे क्यों जुड़ना चाहेंगें. सुबह उठकर ही पचासों ब्लॉग पर बढ़िया है, लाजवाब है, बहुत खूब जैसी टिप्पणियां देकर लोगों को भरमाने वाले अपने ब्लॉग पर उसके एवज में टिप्पणियां जरुर बटोर रहे हैं, पर इससे ब्लागिंग का कोई भला नहीं होने वाला. ब्लोगों पर जाति, क्षेत्र, रिश्तेदारी, संगठन, सम्मलेन, राजनीति, विवाद सब कुछ फ़ैल रही है, बस नहीं है तो गंभीर लेखन और रचनात्मकता. कहीं यह ब्लागिंग से लोगों का मोह भंग होने का संकेत तो नहीं ??
अमित कुमार यादव
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
दीपावली मैंने मना लिया
काशी के महाश्मसन की सिदियों से चदता
खानाबदोश की तरह
जीवन मरण की गुत्थियों से उलझता
पुनः सुलझाता
अंतस्तल में अंतर्द्वान्द्वा के दिए को जलाता बुझाता
गलियों से गुजरने को उद्यत
संभवतः रात्रि का द्वितीय पहर
आतिशबाजियों से पटा सन्नाटे को चीरता शहर
पास में मरघट
अपने अभीष्ट को साधता तांत्रिको का जमघट
कुल मिलकर समवेत में कह सकते है
हास्य और रुदन का मिश्रित स्वर
जीवन मरण का अद्भुत संगम
एक ओर घाट के ऊपर खुशियाँ जहा ले रही थी अग्डैया
सजी चहुँ ओर दीपो की लडिया
आधुनिक झालर और बत्तियां
वही दूसरी ओर गली के एक माकान में
दिखी कुछ स्याह परछियाँ
ध्यान से देखने पर पाया
मकान पर वृध्हाश्रम था लिखा
खिडकियों से झाकती दिखी
कुछ बुदी कातर और याचक निगाहें
झुकी कमर और कमजोर बाहें
उत्सुक्तावास अन्दर मैं प्रविष्ट हुआ
ख़ुशी के इस मौके पर मुझे देख
उनके अन्दर हुआ आशा का संचार
उनको लगा हूँ मैं कोई तारणहार
जो आया है उनके जीवन में
दीपावली की निशा में रौशनी जलाने
पर देख मेरे हाथ खाली
उनकी सोच लग गयी ठिकाने
मैं एकटक उनके बारे में अपनी उपयोगिता सोचता रहा
उनके लिए अपना अर्थ ढूढता रहा
उन किस्मत की मारी मों के बीच अपनी माँ को ढूढता रहा
जेब में मोबाइल लगातार घनघना रहा था
शायद घर से फोन आ रहा था
मनाने को त्यौहार
छोड़ने को पठाखे और अनार
कर उसे मैं स्विच ऑफ
उनके करीब बैठ गया लेकर लिहाफ
वस्तुतः मैं महाकाल के दर्शन के लिए आया था
इसीलिए विशेष कुछ साथ नहीं लाया था
चल्पदा उनसे बातों का दौर
टूटने लगा उनका मौन
कुछ ने अपनी व्यथा बेबाक सुनाई
अपने बहू बेटियों की बातें बताई
कुछ से उनके परिवार उनकी चेष्टाओं और उनके प्रति
उनके कर्तव्यों के बारे में पूछता रहा
घंटो उनके कष्टों से दो चार होता रहा
उनकी मौनता और उनके आसुओं में प्रतिउत्तर पता रहा
मैंने कहा माते ये कैसी है विवशता
चाह कर भी इन आँखों से आंसू नहीं है निकलता
देख ऐसी विपन्नता
शायद ये सूख चुके है
अपना मायने खो चुके है
हो गया है क्या इस आज की पिदी को
जीने पर चढ़ कर जो तोड़ती है सीदी को
क्यों परिचित नहीं वो इन बातो से
स्तन में दूध न होने पर भी लगाई रही होगी उन्हें अपने तन से
शायद कई बार दूध के बदले में स्तनों से रक्त भी रिसता रहा हो
अपने उस रक्त को भी उतने ही प्रेम से श्रद्धा व स्नेह से
बिना दर्द के जिसने उन्हें पिलाया हो
पर शायद ही कभी उन्हें अपने से दूर किया हो
जिस माँ ने उन्हें अपने रक्त मिश्रित दूध से सीचा है
उन्हें क्यों इन्होने अपने जीवन से उलीचा है
सिहर गया तन
हा हकार कर उठा मन
मैंने अपने अप को संभालने का किया प्रयास
क्यों टूटते दिख रहे सब आस
चारो और देख अत्म्रता स्वार्थपरता
यद् आती हमें बरबस जीवनमूल्यों से युक्त
अपने अतीत की सम्पन्नता
मै जानता था
उन्हें मै भी दे पाउँगा नहीं सिवाय
मीठे कुछ सहानुभूति के बोल
अशई मन से अपनी जेबे रहा था टटोल
चाँद रुपयों ने मेरी लाज बचाई
मैंने कहा माई
रख ले इसे आप आज
कल होगा कुछ साधनों के साथ पुनः मिलाप
देखता हु मै आपके घाओं पर कितना मलहम लगा पता हूँ
क्योकि मै अक्सर अपने विचारों को किये आत्मसात
सिमित संसाधनों के साथ
स्वयं को नितांत अकेला पाता हूँ
बुदी आखों के झरझर
आंसुओं ने मुझे किया विदा
मुझे लगा मैंने
दीपावली मना लिया
बुधवार, 3 नवंबर 2010
लो देख लो मेरी दुनिया
घर लौटने पर
छोटू ने सुनाया
ताई के फोन
आने की बात बताया
भैया बहुत बीमार है
तुरंत कानपुर है बुलाया
मैंने सोचा
भैया के चार बच्चे
सभी व्यवस्थित
लेकर पद अच्छे
ऐसे में मैं कहाँ से भाया
जेहन में सारा
अतीत नजर आया
की किस तरह भैया ने बच्चो के
शिक्षा दीक्षा की दे दुहाई
अम्मा बापू परिवार व
गाँव को ठुकराया
अपने पारिवारिक सामाजिक
जिम्मेदारियों से मुख मोड़ कर
कानपुर में एक आलीशान
मकान बनवाया
घर और गाँव को एकदम
से ही भुलाया
मुझे याद है बापू की तेरहवी के लिए भी
बड़ी मिन्नत के बाद समय निकाला
खैर बिना रुके शाम के ट्रेन से ही
मैंने कानपुर का किया रुख
वहां काप गया
देखकर भैया भाभी का दुःख
रुग्ण जर्जर और अशक्त भैया की
एक लम्बे अंतराल के बाद
मुझे देख बाछे खिल गयी
मानो जिसकी हो प्रतीक्षा
वो चीज मिल गयी
मै भी मूर्तिवत भैया के गले लग गया
अविरल आसुओं की धार
कोरो से बह चली
मैं यंत्रवत सोचता रहा
हैरान होकर कभी भैया
कभी भाभी को देखता रहा
भाभी को आंचल से अपने आसुओं को
पोछने की असफल चेष्टा को
अनदेखा करता रहा
भैया इ क्या हाल बना रखा है
कहते जब मैंने उनकी गोद में
अपना सर रखा
बापू को भैया के रूप में
मानो जीवित देखा
स्नेह से जब सर में मेरे वो उगलिया फिराने लगे
उनकी गोद में अमरुद और आम के
पेड़ों का बचपन देखा
सयंत होकर मैंने पूछा
विनोद अंकुर और मुन्ना हैं कहाँ
अभी तक आई नहीं क्यों मुनिया
भैया ने दो तिन छोटे पार्सल
और कुछ चिट्ठियां मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा
लो देख लो मेरी दुनिया
कापते हाथो से मै एक एक पत्र पढने लगा
विनोद ने लिखा
कार्यालयी कार्य से बाहर जा रहा हूँ
आपके बताये कर्मयोग के रस्ते पर चल रहा हूँ
कुछ रुपये भेज रहा हूँ
साथ में आपके स्वस्थ होने की कामना कर रहा हूँ
अंकुर ने भी अपनी असमर्थता कुछ इस तरह सुनाई
नेहा के परीक्षा की बात बताई
आगे लिखा पापा हम आ नहीं सकते
आपको है गुड विशेश भेजते
आगे का हाल भेजिएगा
कोई जरूरत हो तो निसंकोच कहियेगा
मुन्ना की व्यथा भी इनसे अलग नहीं थी
हम तो आने के लिए रहे ही थे सोच
अचानक मंजू के पैर में आ गयी मोच
कुछ रुपये भेज रहा हूँ
अंकुर को फोन कर रहा हूँ
उम्मीद है आप जल्द ठीक हो जायेगे
हम पुनः अच्छी खबर पाएंगे
मुनिया ने अपने पत्र में
अपने पति के ट्रान्सफर का दे हवाला
आने से ही कर लिया किनारा
मैं अपने को सँभालने का
करने लगा असफल प्रयास
धुम से बिस्तर पर बैठ
सोचने लगा कैसी होती है आस
सारा संसार मुझे घूमता नजर आया
लगा इतना खोने के बाद
भैया ने क्या पाया
भरी आँखों से भैया ने कहा
परिवार क्या होता है ये आज मैं जान पाया
पर सच जो मैंने बोया वही तो है पाया
भाभी ने कहा लल्ला
क्या करे बेटों की भी है
अपनी अपनी मज़बूरी
वर्ना है ही क्या ये दूरी
एक ओर जहा भैया के अन्दर
पश्चाताप के आंसू पा रहा
वही भाभी को आज भी
जहा का तहा पा रहा
मन अजीब अंतर्द्वान्दा में फस गया
जमाना आज की दस्ता कह गया
तभी भैया ने रखा मेरे सर पर अपना हाथ
निरीह नजरो से कहा
निर्मेश चाहिए तुम्हारा साथ
मुझे अपने वर्तमान पर
बेहद तरस आया
तुलना करने पर
अपने अतीत को बेहतर पाया
गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010
बचपन का जमाना
खुशियों का खजाना होता था,
चाहत चाँद को पाने की
दिल तितली का दीवाना होता था,
खबर न थी कुछ सुबह की
न शामों का ठिकाना होता था,
थक-हार के आना स्कूल से
पर खेलने भी जाना होता था,
दादी की कहानी होती थीं
परियों का फसाना होता था,
बारिश में कागज की कसती थी
हर मौसम सुहाना होता था,
हर खेल में साथी होते थे
हर रिश्ता निभाना होता था,
पापा की वो डांटें गलती पर
माँ का मनाना होता था,
कैरियर की टेंशन न होती थी
ना ऑफिस को जाना होता था,
रोने की वजह ना होती थी
ना हंसने का बहाना होता था,
अब नहीं रही वो जिन्दगी
जैसा बचपन का जमाना होता था
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
मानों विराट क्षितिज को दे दिया हो जैसे एक छोटा सा बसेरा
माँ को मै गाँव से शहर लाया
सोचा माँ के ममता की
बनी रहेगी मुझ पर छाया
काफी दिनों से दूर था
मुझसे मेरी माँ का साया
चूंकि बापू की बीमारी और
गाँव को न छोड़ने की चाहत ने
मुझे कई बार सिद्दत से तडपाया
टीस हमेशा थी की अपनी
इच्छानुसार मै उनकी
सेवा कर नहीं पाया
एक पिता की चाहत होती है
उम्र के इस मुकाम पर
हरदम रहे पुत्रो का साथ
जीवन की इस राह पर
पर रोजी रोटी के ठौर ने
इस जैविक चाह को
जी भर कर रुलाया
बापू को न चाहते हुए भी
मैंने है बहुत तरसाया
किसी तरह माँ को दे दिलासा
अपने साथ लाया
बेशक माँ तो गाँव छोड़ने को
नहीं थी तैयार
बापू के यादों से भरा था घर द्वार
पर अंत में यह समझ कर की
वह हो गयी है अब बेकार
पहले तो बापू की सेवा में
दिनरात गुजर जाता था
रात को भरपूर नीद आता था
पर कैसे कटेगे यहाँ दिन और रात
काटने को दौडेगे खेत
खलियान और बाग़
यह सोच कहीं बबुआ
चला चली अब तोहरे ही साथ
हमरे ऊपर ज रही तोहार हाथ
तो हमारो नैया हो जाई पार
स्टेशन से जी भर गाँव को देखा
पुनः माँ के माथे पर देख
चिंता की रेखा
मैंने कहा माँ कहे तू होए रहू उदास
ऐजेहा फिर आवा जायेगा
बापू का याद तजा किया जावेगा
ऐसा कह मै उन्हें हँसाने का
करने लगा एक असफल प्रयास
पर कभी विशाल खेत खलियान
और बखरी होते थे जिनके गवाह
शहर की संकीर्ण जिंदगी में
रुक गया उनके जीवन का प्रवाह
किसी के पास उनके करीब
बैठने के लिए समय नहीं
अकेले बालकनी में बैठी
रहती थी आपही
बस देखती सूरज को होते अस्त
पत्नी गृहकार्य और बच्चो के
होम्वोर्क में व्यस्त
शेष समय दूसरों से गप्पें
मारने में मस्त
बच्चे आधुनिक पदाई से पस्त
में भी हो चला था क्रमशः
अपराधबोध से ग्रस्त
शायद माँ सबके लिए बोझ बन गयी थी
लग रहा था किसी तरह
जिंदगी की गाड़ी को खीच रही थी
ऊपर से अपनी प्रेयसी के बार बार
माँ के आने से अन्पैठ
लगने की बात
पहुचाते बहुत ही ह्रदय पर आघात
में बेबस हो चला था लाचार
में चाह कर भी नहीं छेदता
अपने साले साली और सास
के आने की बात
जिनके आने पर घर में छा जाती थी
रौनक और खुशियों की बरसात
बच्चे भी उड़ाते बात बात में
माँ का उपहास
सबके मध्य मेरे समायोजन का प्रयास
माँ का देख चेहरा उदास
जी किया माँ को ले गाँव ही लौट जाऊ
छोड़ कर नौकरी घर वही बसौऊ
तभी दिखता मुझे
एक तरफ अतीत तो
दूसरी तरफ भविष्य करता परिहास
कार्यालय से आने पर
में माँ की गोद में रख सर
अपने बचपन की यादे ताजा करते हुए
माँ के साथ अपनी भी
पूरी करता इछ्छा
वह भी हर शाम बेसब्री से करती
मेरे कार्यालय से लौटने की प्रतीक्षा
सोचता हूँ कैसी
अभागी है आज की पीढ़ी
चढ़ाना चाहती है ऊपर
निचे गिरा कर सीढ़ी
ये जानेगे क्या माँ के आँचल
और गोद की ममता
सच तो यह है की जिन्सवाली माँ पर
आँचल कहाँ है फबता
आज का युवा तो बस
नौकरों के हाथ ही पलता
बरबस में सोचता की में
माँ को कौन सा सुख दे रहा हूँ
अपने स्वार्थ के लिए उन्हें
खेत खलिहानों से दूर कर
उसे दुःख ही तो दे रहा हूँ
जैसे एक स्वतंत्र गौरैया को
पिजड़े में डौल कर रख दिया
उसके पास चावल का कसोरा
मानों विराट क्षितिज को दे दिया हो
जैसे छोटा सा एक बसेरा
निर्मेश सच जहाँ हो अपने चाहनेवाले
वही होता है परिवार
खून के रिश्ते तो अब
लगने लगे है बेकार
बुधवार, 20 अक्टूबर 2010
बुधिया
आपाधापी से पस्त
फिर भी मस्त
बड़े ही अनुनय से एक
विवाह समारोह का बना मै गवाह
जहा जारी था अपने चरम पर
बारात का प्रवाह
युवाओ के मध्य तलाशता रहा मै
किंचित एक बूढ़ा
पर हमें ढूढ़ने से भी नहीं मिला
मै भूल गया की
ये है बीसवी कम इक्कीसवी सदी ज्यादा
आजका बुजुर्ग तो स्वयं
ऐसे अवसरों से दूर रह
बचाता है अपनी मर्यादा
तभी दिखा भीड़ मे उम्मीद का एक दिया
जिज्ञासवास पूछने पर
नाम बताया बुधिया
सर पर रखे प्रकाशपुंज का कलश
देखने मे लगता था एकदम
लचर और बेबस
अन्य मजदूरो के साथ प्रयासरत
मिलाता कदम से कदम
उर्जहीन बदन दिखता था बेदम
क्षुदा और उम्र से बेबस
व्यग्र दिखता लुटाने को सरवस
तभी आज मेरे यार की शादी की बजी धून
मदिरारत युवा नाचते
नाचते हो गए संग्यशुन्य
एक जाकर बुधिया से टकराया
पलट कर बुधिया को
एक घूसा भी जमाया
साले कायदे से नहीं चलते
हमें देख कर तुम भी मचलते
बुधिया गिर पड़ा
पर अपने रोशनी के गमले
पर पिल पड़ा
सोचा अगर ये टूट गया तो
मालिक कम से निकाल देगा
आज की मजदूरी भी कट लेगा
तो कल वो अपनी बीमार
लछिया की दवा और खाना
कहा से लायेगा
यह सोच उसे टूटने से
न केवल बचाया
वरन मुस्तैदी से उसे पुनः
अपने सर पर सजाया
इसी बीच वह युवक अन्य से
लड़ने मे हो गया तल्लीन
मेरा अच्छा खासा मन
हो गया मलीन
गृह स्वामी सबसे कहता
रहा भाई भाई
किसी को भी उस पर दया नहींआयी
उस युवक पर कई लोग पिल पड़े
पड़ने लगी उस पर जुटे चप्पले
तभी बुधिया अपना प्रकाश कलस
रख किनारे उस युवक के करीब आया
उसके ऊपर लेट कर
उसे मार से बचाया
लोगो से बोला पहले ही
कितनी देर हो गयी है
आपलोगों को क्या पड़ी है
यहाँ गृहस्वामी की मर्यादा
दाव पर लगी है कहकर लोगो को समझाया
बारात को आगे बढाया
मैंने पूछा चाचा ये कैसे हो गया
जिसने मारा आपको वही
आपका प्रिय हो गया
बुधिया बोला बेटा उसमे मुझे
आज से बीस वर्ष पहले
खो चुके बेटे की छबि पाया
किनारे खड़ा वह युवक शायद
पश्चाताप के आंसू बहा रहा
लहूलुहान हुए अपने किये की
सजा पा रहा
बुधिया स्नेह से उसे सहला रहा
रविवार, 17 अक्टूबर 2010
मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010
मीठी वाणी से पाला
पुरे दिन की माथापच्ची से त्रस्त
कार्य की अधिकता से पस्त
दूर होते ही सूरज की छाया
मैं घर को लौट आया
की तभी एकाएक मेरा
मोबाइल घनघनाया
थके हाथो से मैंने मोबाइल को
कान पर लगाया
उधर से बहूत ही शांत धीर
व एक मधुर स्वर को पाया
लगा कानो में किसी ने
शहद घोल दिया हो
मिश्री से पूरे
बदन को तौल दिया हो
पूरे दिन के थकन से
मनो निजात मिल गयी हो
न चाहते हुए भी मानो
कोई सौगात मिल गयी हो
वस्तुतः
वह एक इन्वेस्टमेंट कम्पनी
की मुलाजिम थी
एक पौलिसी के लिए
पीछे पड़ी थी
मैंने पैसे के अभाव का देकर वास्ता
बंद करना ही चाहा था उसका रास्ता
तभी उसने कहा सर
प्लीज़ मेरी बात पहले सुन ले
फिर आपको जो लगे
गुण ले
मुझे उसकी आवाज की मधुरता ने
पुनः उसमे छिपी व्यथा ने
पूरी पवित्रता से
तरंगित कर डाला
एक अवांछित अनिच्छा से ही सही
उससे पर गया पला
बातें करते करते मुझे
हलकी नीद ने आगोश में ले लिया
तभी मेरी भार्या ने मुझे हिलाया
लिए हाथ में गरम चाय का प्याला
तब तलक उसकी बातें थी jaree
मुझे लगा की किस्मत की है वो मरी
लगता है टार्गेट की है लाचारी
करती भी क्या बेचारी
में थोडा द्रवित हुआ
फोन कटते हुए कहा की
अच्छा कल बिचार करेंगे
उसने तुरंत ही कहा सर
हम आपके फोन का सकारात्मक
पहल के साथ इंतजार करेंगे
चाय पीकर में सोचने लगा
मीठी वाणी का प्रभाव
लगता था की सारी थकन का
हो गया आभाव
आया रहीम की वो पंक्ति
जिसमे थी ये उक्ति
मीठी वाणी बोलिए मन का आप खोय
औरन को सीतल करे आपहु सीतल होय
यह सोचते सोचते
मैंने उनसे कल मिलाने को
अपनी डायरी में सकारात्मक
तिप्परियों के साथ नोट कर डाला
बेशक मेरा भी पद गया था
मीठी वाणी से पाला
में लगा सोचने
की अगर इतनी ताकत है मीठी वाणी में
की कुछ ही मिनटों में
कर ले दुनिया मुठ्ठी में
तो फिर हम अपनी सर्दारीयत के लिए
कटु वचनों व कटु युद्धरत कर्मो का
लेते है क्यों सहारा
देकर दुहाई धर्मो का
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
जीवन सजीव !
नित टूट रहे संयुक्त परिवार
लगने लगे है बेमानी
पैत्रिक घर द्वार
मायने खोते जा रहे सिवान
बीमार हो रहे बखरी
और खलिहान
पप्पू तो उड़ चले अमेरिका
बबलू भी चले ब्रिटेन
अम्मा और बाबु को पूछता है कौन
बेबस वो चल पड़े गाँव की ओर
ले दादी की चटाई और दद्दा का लालटेन
ज्यादा चाहने की लालच मेंहै कुछ टूट रहा
मानवीय संवेदनाओ से साथ
पीछे छूट रहा
लुप्त हो रही क्रमशः रिस्तो की मिठास
वो गाँव के चौपालों के rasile अहसास
सहानुभूति परोपकार प्यार व मस्ती
अपनापन कही गूम हो गया
पश्चिम का प्रभाव हमारे समाज पर है
इस कदर हावी हो गया
की दम तोड़ते ओ गढ़ते नित
रिश्तो की नयी परिभाषा
जिनके बचने की दिखती
अब नहीं कोई आशा
संस्कारयुक्त शिछा के अभाव में
ये युवा नैतिक लछ्य से भटक जाते
अपने जनको को छोड़
देसी बिदेशी मेमो के साथ उड़ जाते
ऐश और भोग को जीवन का आदर्श बनाते
मनो अपने माँ बाप से
अपने खो चुके बचपन का बदला चुकाते
जिन्होंने बाजारवाद का दे वास्ता
छीन कर उनका बचपन
उनको दिखाया विकास का रास्ता
अपनी वन्छ्नाओ को उन पर लद्दा
सिखाया उनको कमाना ज्यादा
अस्तु अब हमारे दोनों ही
hatho में है जल भरा
कब तलक वो संभलेगा भला
आज हमें भी इस दिशा में सोचना होगा
नए सिरे से पुनः मंथन करना होगा
ऐसी स्थिति के लिए
हम भी कम नहीं जिम्मेदार
अपने बच्चे में पलते सपने हज़ार
और उन्हें किसी भी कीमत पर
पूरा करना चाहते है
बदले में उनके बचपन का बलिदान मागते hai
आज विज्ञानं भी इस बात को मानता
की प्रकृति किसी के साथ अन्याय नहीं करती
सबके अन्दर वो कोई एकगुण विशेष भारती
उन गुणों को विकसित करने के jagah
हम उन पर चलते है अपनी
जिसके बदले में वो हमें देते है सजा
बदल देते है एक सुसंगठित समाज की फिजा
अतःशिछा ही नहीं संस्कार भी
चाहियेविकास की इस अंधी दौड़में
नैतिक मूल्यों की पतवार चाहिए
निर्मेश तभी रख पायेगे हम
एक मजबूत समाज की नीव
बेशक वो भी जी पायेगे
हमारे साथ जीवन सजीव !
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
पूस का पाला
अभी कल की बात
मै था अस्सी घाट पर
मित्रो के साथ
पता चला बी एच यूं अ इ टी के
तिन छात्र डूब गए
हम सकते मै आ गए
पुरे घाट पर छात्रो और
अध्यापको की भीड़ भारी
किनारे पर बैठी उनके माएं बिचारी
रुदन से उनके वातावरण
गमगीन हो गया सारा
स्तब्ध गंगा को अपलक निहारता
पिता किस्मत का मारा
क्या क्या उम्मीदे थी उसे
की किस तरह बनेगे वे नौनिहाल
उनके बुदापे की लाठी ये लाल
पर बीच मै ही सफ़र जिंदगी का
छोड़ कर चले गए
न जाने किसके सहारे वे अपने
बूड़े माँ बाप को छोड़ गए
मन मेरा उद्वेलित हो गया
एकाएक आक्रोस से भर गया
की आखिर क्या समझते है
ये बच्चे अपने आपको
क्यों समझते नहीं
वो इस पापको
की क्या उनके माँ बाप ने
इसी दिन के लिए उन्हें पाला था
क्या अपने खाने का निवाला
इसीलिए पहले उन्ही के मुह में डाला था
तनिक भी अगर सोचे होते
बेजा मौज मस्ती से बचे होते
जिसे की होस्टल को चलते समय
बापू ने कम पर माँ ने बहुत
ज्यादा समझाया होगा
कितने अरमानो से आचार और मुरब्बे का
डब्बा थमाया होगा
और कितनी बलिया लेकर कहा होगा
बचवा जातां से रहियो
अपन ख्याल रखियो
मौज मस्ती के चक्कर मै
जीतेजी उनको मार डाला
इसके बूते वो सहेगे
अब पूस का पाला
क्या खूब ख्याल रखा उनका इन्होने
पाला था बारे अरमानो से उन्हें जिन्होंने
बुधवार, 29 सितंबर 2010
विचलित है मन
अपने विराट स्वरुप का दर्शन
विचलित है मन
आसन्न एक परिवर्तन
गीता का भाष्य
पठनीय पाठ्य
पूरित परिपथ
निश्चित दर्शनीय
एक और अग्निपथ
पिटती परंपराओं की लकीरें
क्या खोल पायेगी
उन शहीदों की तकदीरें
जिन्होंने सहर्ष
किया था जीवन अर्पण
उनकी विधवाएं मांजती
आज इन नेताओं के घर बर्तन
बच्चे जिनके चाटते
इनके आज जूठन
सरकारी अनुदानों हेतु
लगाते चक्कर
खाते टक्कर पे टक्कर
भूखे भेड़ियों का बन गयी शिकार
अस्मत हो गई तार -तार
बिक गए घर-द्वार
आज भी जोहती निराला की वह तोड़ती पत्थर
अपना पालनहार !!
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
हिंदी दिवस
एक और उत्सव
पूछता पुनः एक बार अपना भावार्थ
विस्मृत युगबोध का यथार्थ
कल्पित
स्तित्वाहिनता का आभास
निरंतर प्रसरित पावन प्रकाश
लक्षित
एक पुनर्जागरण
याकि करना वैराग्य का वरण
जागृत
चेतना की शिखार्यात्रा
यदि हो विवेक की लाघुमात्र
अलाम्बित एक नूतन प्रभात
विलंबित
राग्यमिनी से गुजित
धवल आकाश
होगी रंगीन पुनः
सुरमई शाम
चमकेगा छितिज पर
आर्यावर्त का क्या नाम
याकि छिरेगी
एक और बहस
es यथार्थ पर
सत्य से दूर
मद से चूर
प्रारंभ होगी
एक और नई
यात्रा अंतहीन
pidit दिन और मलिन
सोमवार, 27 सितंबर 2010
आज भी धन्नी नहीं बिक सका
सुबह से शाम हो गयी
दिन तक़रीबन ढल गयी
पर आज भी धन्नी नहीं बिका
एक भी पैसा नहीं वो कमा सका
सामने मुनिया का
बुखार से तपता चेहरा हूम रहा था
जिससे सुबह hi उसने कहा था
आज वो जरुर दावा लेकर आयेगा
और पपू की फ़ीस भी दे पायेगा
ताकि वो पढ़ कर बड़ा आदमी बनेगा
हमरे दुखो को वो हारेगा
सोचते सोचते उसकी अखे भर आई
wah रे किस्मत की माई
काम के तलश में साथ लायी
रोटिय भी सुख चुकी थी
शाम एकदम ढल चुकी थी
थका हरा वो चल pada घर की और
तन में तनिक भी नहीं था जोर
सूखे pero की माफिक वो
रस्ते से बेखबर चला जा रहा था
उधर से एक ट्रक तेजी से आ रहा था
उसने समाप्त कर दिया धन्नी का जीवन
उसके बच्चो को कर गया
अनाथ आजीवन
शनिवार, 25 सितंबर 2010
माँ की गोद
एक दिन माँ की गोद में
रख कर सर
मैं सो रहा था बाखबर
नीद के आगोश में
हो गया था तन
कल से ही था बेचन ये मन
माँ गुनगुना रही थी प्यारी लोरियां
मेरे सर पे घुमाती अपनी बहिया
एकाएक माँ के लोरियों में से
दर्द की आवाज आई
मैंने कहा क्या हुआ माई
उसने कहा कुछ नहीं बेटा
शायद किसी का है तोता
तभी मने देखा गोद दस निचे से
रक्त की धर
मई हो गया bajar
सोचा वह रे माँ
कैसी है तुम्हारी दुनिया
पर आज के बेटे क्या समझेगे
की क्या होती है पुरनिया
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
सृजनात्मक लेखन कार्यशाला हेतु ब्लॉगरों से प्रविष्टि आमंत्रित
संक्षिप्त ब्यौरा निम्नानुसार है-
प्रतिभागियों को 20 अक्टूबर, 2010 तक अनिवार्यतः निःशुल्क पंजीयन कराना होगा । पंजीयन फ़ार्म संलग्न है ।
प्रतिभागियों का अंतिम चयन पंजीकरण में प्राप्त आवेदन पत्र के क्रम से होगा ।
पंजीकृत एवं कार्यशाला में सम्मिलित किये जाने वाले रचनाकारों का नाम ई-मेल से सूचित किया जायेगा ।
प्रतिभागियों की आयु 18 वर्ष से कम एवं 40 वर्ष से अधिक ना हो ।
प्रतिभागियों में 5 स्थान हिन्दी के स्तरीय ब्लॉगर के लिए सुरक्षित रखा गया है ।
प्रतिभागियों को संस्थान/कार्यशाला में एक स्वयंसेवी रचनाकार की भाँति, समय-सारिणी के अनुसार अनुशासनबद्ध होकर कार्यशाला में भाग लेना अनिवार्य होगा ।
प्रतिभागी रचनाकारों को प्रतिदिन दिये गये विषय पर लेखन-अभ्यास करना होगा जिसमें वरिष्ठ रचनाकारों द्वारा मार्गदर्शन दिया जायेगा ।
कार्यशाला के सभी निर्धारित नियमों का आवश्यक रूप से पालन करना होगा ।
प्रतिभागियों को सैद्धांतिक विषयों के प्रत्येक सत्र में भाग लेना अनिवार्य होगा । अपनी वांछित विधा विशेष के सत्र में वे अपनी इच्छानुसार भाग ले सकते हैं ।
प्रतिभागियों के आवास, भोजन, स्वल्पाहार, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह की व्यवस्था संस्थान द्वारा किया जायेगा ।
प्रतिभागियों को कार्यशाला में संदर्भ सामग्री दी जायेगी ।
प्रतिभागियों को अपना यात्रा-व्यय स्वयं वहन करना होगा ।
प्रतिभागियों को 12 नवंबर, 2010 शाम 5 बजे के पूर्व कार्यशाला स्थल - बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में अनिवार्यतः उपस्थित होना होगा । पंजीकृत/चयनित प्रतिभागी लेखकों को कार्यशाला स्थल (होटल) की जानकारी, संपर्क सूत्र आदि की सम्यक जानकारी पंजीयन पश्चात दी जायेगी ।
प्रस्तावित/संभावित विषय एवं विशेषज्ञ लेखक
दिनाँक 13 नवंबर, 2010
रचना की दुनिया – दुनिया की रचना – श्री चंद्रकांत देवताले – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी – प्रभाकर श्रोत्रिय
रचना में यथार्थ और कल्पना – श्री राजेन्द्र यादव – नीलाभ – केदारनाथ सिंह
रचना और प्रजातंत्र – श्री अखिलेश – रघुवंशमणि – परमानंद श्रीवास्तव
रचना और भारतीयता – श्री नंदकिशोर आचार्य – श्री अरविंद त्रिपाठी – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
रचना : महिला, दलित और आदिवासी –– सुश्री अनामिका - कात्यायनी - मोहनदास नैमिशारण्य
रचना और मनुष्यता के नये संकट - श्री विनोद शाही- श्रीप्रकाश मिश्र – सीताकांत महापात्र
दिनाँक 14 नवंबर, 2010
रचना और संप्रेषण – श्री कृष्ण मोहन – ज्योतिष जोशी – मधुरेश
शब्द, समय और संवेदना – श्री नंद भारद्वाज - श्रीभगवान सिंह – ए.अरविंदाक्षन
कविता की अद्यतन यात्रा – श्री वीरेन्द्र डंगवाल – ओम भारती - अशोक बाजपेयी
कविता - छंद और लय – श्री दिनेश शुक्ल – राजेन्द्र गौतम – डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
कैसा गीत कैसे पाठक ? - श्री राजगोपाल सिंह – यश मालवीय – माहेश्वर तिवारी
कहानी-विषयवस्तु, भाषा, शिल्प – श्री शशांक – डॉ. परदेशीराम वर्मा – गोविन्द मिश्र
दिनाँक 15 नवंबर, 2010
कहानी की पहचान – सुश्री उर्मिला शिरीष - सूरज प्रकाश – सतीश जायसवाल
लघुकथा क्या ? लघुकथा क्या नहीं ? – श्री अशोक भाटिया – फ़ज़ल इमाम मल्लिक - बलराम
आलोचना क्यों, आलोचना कैसी? श्री शंभुनाथ – डॉ. रोहिताश्व - विजय बहादुर सिंह
ललित निबंध : कितना ललित-कितना निबंध – श्री नर्मदा प्रसाद उपा.-अष्टभुजा शुक्ल – डॉ.श्रीराम परिहार
(अंतिम नाम निर्धारण स्वीकृति/अस्वीकृति उपरांत)
संपर्क सूत्र
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी निदेशक
प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छत्तीसगढ़
एफ-3, छगमाशिम, आवासीय परिसर, पेंशनवाड़ा, रायपुर, छत्तीसगढ – 492001
ई-मेल-pandulipipatrika@gmail.com
मो.-94241-82664
बिलासपुर
श्री सुरेन्द्र वर्मा, मो.-94255-70751
श्री राजेश सोंथलिया, 9893048220
पंजीयन हेतु आवेदन पत्र फार्म नमूना
01. नाम -
02. जन्म तिथि व स्थान (हायर सेंकेंडरी सर्टिफिकेट के अनुसार) -
03. शैक्षणिक योग्यता –
04. वर्तमान व्यवसाय -
05. प्रकाशन (पत्र-पत्रिकाओं के नाम) –
06. प्रकाशित कृति का नाम –
07. ब्लॉग्स का यूआरएल – (यदि हो तो)
08. अन्य विवरण ( संक्षिप्त में लिखें)
09. पत्र-व्यवहार का संपूर्ण पता (ई-मेल सहित) –
हस्ताक्षर
(जयप्रकाश मानस द्वारा प्रेषित प्रेस-विज्ञप्ति)
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
हिंदी दिवस पर एक सन्देश...
रविवार, 12 सितंबर 2010
अंध विश्वाश और उसका प्रचार
एस. आर. भारती
शनिवार, 11 सितंबर 2010
नशे में डूबा युवा वर्ग...
भारतीय समाज हमेशा से ही पूरे विश्व के लिए एक आदर्श और कौतुहल रहा है !सयुइंक्त परिवार में रहने वाले बच्चे बहुत ही संस्कारशील होते है !इसी करण हमारे युवा काफी समय तक कुरीतियों से दूर रहे और अपने आप को नशे से बचाए रखा....परन्तु अब ऐसा नही रहा!सयुंक्त परिवार टूटने लगे है..बच्चे पढने और करियर बनाने बड़े शहरों में जाने लगे है !इन महानगरों में वे अपना सामजस्य नही बना सके,यहाँ की व्यस्त जीवन शैली ने उन्हें तोड़ के रख दिया!
ऐसे में वे विभिन्न प्रकार के नशों के जाल में उलझ कर रह गए !अनुभव की कमी और पहले के कड़े अनुशासन में रहे ये युवा अब अचानक आज़ाद हो गए!शहर की एकल जीवन शैली ने भी इन्हें बढ़ावा दिया जिसके चलते ये नशे की गिरफ्त में फंसते चले गए !अपने व्यस्त कार्यालय समय के बाद वे नशे को ही आराम समझने लगे !आज का युवा परम्परागत नशे नही करता...क्यूंकि शराब बीयर आदि की महक इनकी पोल खोल देती है,इसलिए इन्होने नए नशे तलाश लिए जो आसानी से उपलब्ध है और जिनके सेवन का किसी को पता भी नही चलता....जैसे-आयोडेक्स ,विक्स वेपोरब,व्हाइटनर,दीवारों के पेंट और कफ सिरप! ये नशे हर जगह और कम कीमत में मिल जाते है !इसके बाद नंबर आता है दुकानों पर मिलने वाली विभिन्न टेबलेट्स जो कई नामों से बेचीं जाती है !ये गोलियां बिना डाक्टर की पर्ची के सब जगह मिल जाती है !केमिस्ट भी कभी तनाव दूर करने तो कभी एकाग्रता बढ़ने के नाम पर इन्हें बेचते है !मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढाई करने वाले अधिकांश बच्चे इन्हें इस्तेमाल करते है !
इन छोटे मोटे नशों को करते करते ये नशे की उस अंधी दुनिया में पहुँच जाते है जहाँ से वापिस आना नामुमकिन है !शहर वसे दूर फार्म हॉउस में होने वाली रेव और कोकटेल पार्टियाँ इनकी मनपसंद जगह बन जाती है !शौक शौक में शुरू हुआ ये खेल अब इनकी आदत बन जाता है !नशे का बढ़ता प्रभाव आखिर एक दिन जान लेकर छोड़ता है !
इन सब से बचने का एकमात्र रास्ता है बच्चों को शुरू से ही नशे के दुष्प्रभाव बताये जाएँ ,टी वी पर नशे से सम्बंधित दृश्य और विज्ञापन प्रतिबंधित किये जाएँ !लगभग सभी शराब कम्पनियां सोडे के नाम पर शराब बेचती है !स्कूलों और कालेज में नशों की जानकारी के बारे में शिक्षा दी जाए तथा जरूरत पड़ने पर नशा मुक्ति केंद्र की भी व्यवस्था हो.......वरना युवाओं को नशे से बचाना मुश्किल हो जायेगा.....!
सोमवार, 6 सितंबर 2010
संपादक की ओर से
सब जन कहत कागज की लेखी । हम हैँ कहत आँखिन की देखी - महान संत कवि कबीर दास का यह कथन हमारा आदर्श है ।इस साइट को प्रारम्भ करने का उद्देश्य साहित्य . संस्कृति . कला . विज्ञान और अन्यान्य विधाओं के साम्प्रतिक रूप से पाठकों को अवगत कराना ही नही अपितु उनकी साझेदारी भी सुनिश्चित कराना है ।इन्कलाब एक खुला मंच है . इसमे प्रत्येक विधा और क्षेत्र के रचनाधर्मियों एवं समीक्षकों के लेखकीय सहयोग का स्वागत है । यह हमारा . आपका , सबका मंच है - जो जहाँ . जैसा . जिस तरह है . प्रस्तुत करने के लिए . और अच्छा बनाने के लिए ।
ईश्वर कहाँ मिलेगा... (कविता : एस. आर. भारती)
मन्दिर, मस्जिद ,गुरूद्वारे एवं गिरजाघर में
"ईश्वर"को खोजते हुए,
मन्नतों के लिए दर-दर भटकते हुए
वे जानते हैं कि "ईश्वर" वहाँ नहीं मिलेगा
’फिर व्यर्थ क्यों खोजते हैं तुष्टि के लिए’
एक यक्ष प्रश्न ने सिर उठाया
फिर ”ईश्वर“ कहाँ मिलेगा ’
सोचते-सोचते चिन्तन आगोश में खो गया
अचानक अन्र्तमन के पट पर
चलचित्र की तरह कुछ पात्र उभरे
मन ने माना कि ये ही ”ईश्वर“ के रूप हैं
किसान ,माँ ,डाक्टर ,
गिरते को उठाने वाला ,
मरते को बचाने वाला ,
सबकी प्यास बुझाने वाला ,
सबकी भूख मिटाने वाला ,
भटके को राह दिखाने वाला ,
बिछडे़ को मिलवाने वाला ,
गुणगान योग्य है ऐसा गुणवान
यही सुपात्र की नजर में ”भगवान“ है ।
रविवार, 5 सितंबर 2010
शुक्रवार, 3 सितंबर 2010
गाँधी जी पर आधारित हिन्दी फिल्म का शुभारम्भ पोर्टब्लेयर में
निर्देशक नरेश चंद्र लाल ने बताया कि सेलुलर जेल के बाद महाराष्ट्र के वर्धा स्थित गाँधी आश्रम सेवा ग्राम में भी इस फिल्म की शूटिंग होगी और यह फिल्म दिसम्बर, 2010 में रिलीज होगी।
नरेश चन्द्र लाल, निदेशक - अंडमान पीपुल थिएटर एसोसिएशन, पोर्टब्लेयर, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
बुधवार, 1 सितंबर 2010
अब टचस्क्रीन 3डी टीवी ...
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
रक्षाबंधन-पर्व की शुभकामनायें

रक्षाबंधन पर्व बहन की, समाज की, राष्ट्र की रक्षा हेतु बंधन से जुड़ने का प्रतीक त्यौहार है. यह धार्मिक स्वाध्याय के प्रचार का, विद्या विस्तार का पर्व भी है इस दिन यज्ञोपवीत बदला जाता है और द्विजत्व को धारण किया जाता है, वेद मंत्रों से मंत्रित किया जाता है. नारी जाति पर कोई कष्ट न आए, इसके लिये संकल्पित होने, संस्कृति की शालीनता को बचाए रखने हेतु संकल्पबद्ध होने का भी यह अनूठा पर्व है. इस पर्व को इसकी मूल भावना के साथ मनाएं... !! रक्षाबंधन-पर्व की शुभकामनायें !!
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
सेलुलर जेल भी पहुँची क्वींस बैटन रिले
19 अगस्त 2010 को राष्ट्रमंडल खेलों की क्वींस बैटन रिले भारत के दक्षिणतम क्षोर अण्डमान निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर में भी चेन्नई से पहुंची, जहाँ सवेरे 7.45 बजे पोर्टब्लेयर हवाई अड्डे पर बैटन रिले का भव्य स्वागत किया गया. रिले औपचारिक रूप से शाम को 3 बजे ऐतिहासिक राष्ट्रीय स्मारक सेलुलर जेल परिसर से आरंभ हुई, जहाँ उपराज्यपाल (अवकाश प्राप्त ले0 जनरल) भूपेंद्र सिंह द्वारा इसका शुभारम्भ किया गया. सेलुलर जेल में बैटन का आगमन एक तरह से उन तमाम क्रांतिकारियों के प्रति श्रद्धांजलि भी थी, जिन्होंने इन्हीं चहारदीवारियों में रहकर आजाद भारत और उसकी तरक्की का सपना देखा था. अंडमान-निकोबार ओलम्पिक असोसिअशन के अध्यक्ष जी. भास्कर ने राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के अतिरिक्त महानिदेशक (अवकाश प्राप्त ले0 जनरल) राज कड़ियान से क्वींस बैटन को प्राप्त कर इसे उपराज्यपाल को सौंपा और इसी के साथ विश्व-प्रसिद्ध ऐतिहासिक सेलुलर जेल और यहाँ एकत्र तमाम सैन्य व सिविल अधिकारी, खिलाडी और गणमान्य नागरिक इस पल के जीवंत गवाह बने. उपराज्यपाल ने प्रतीकात्मक रूप से कुछ देर दौड़ लगाकर इसे प्रथम धावक के रूप में मुख्य सचिव विवेक रे को सौंपा और फिर तो बढ़ते क़दमों के साथ कड़ियाँ जुडती ही गईं. वाकई इसे नजदीक से देखना एक सुखद अनुभव था. राष्ट्रीय स्मारक सेल्युलर जेल से शुरू होकर क्वींस बैटन रिले पोर्टब्लेयर के विभिन्न प्रमुख भागों - घंटाघर, माडल स्कूल, बंगाली क्लब, गोलघर, दिलानिपुर, फिनिक्स बे, लाइट हाउस सिनेमा, गाँधी प्रतिमा, अबरदीन बाजार, घंटाघर से होते हुए ऐतिहासिक नेताजी स्टेडियम पहुँचकर सम्पन्न हुई, जहाँ सांसद श्री विष्णुपद राय ने क्वींस बैटन को प्राप्त कर सक्षम अधिकारियों को सौंपा. इस शानदार अवसर पर बैटन रिले को यादगार बनाने के लिए जहाँ प्रमुख स्थलों पर तोरण द्वार स्थापित किये गए, वहीँ पोर्टब्लेयर के डा0 बी. आर. अम्बेडकर सभागार में सांस्कृतिक संध्या का भी आयोजन किया गया . यही नहीं अबर्दीन जेटी और रास द्वीपों के बीच जहाजों को रोशनियों से सजाया भी गया और पूरा पोर्टब्लेयर मानो रंगायमान हो उठा. रिले के दौरान भारी संख्या में स्कूली विद्यार्थी और नागरिक जन इसका स्वागत करते दिखे. रिले के दौरान द्वीपों के राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त खिलाड़ियों और अधिकारीयों के अलावा करीब 30 लोग बैटन धारक के रूप में इसे लेकर आगे बढ़ते रहे. पोर्टब्लेयर में क्वींस बैटन रिले का आगमन भारत की सांस्कृतिक विविधता को भी दर्शाता है, क्योंकि यहाँ देश के प्राय: सभी प्रान्तों के लोग बसे हुए हैं और इसका लोगों ने भरपूर लुत्फ़ उठाया. इसे नजदीक से देखना वाकई एक यादगार अनुभव रहा. क्वींस बैटन रिले के इस परिभ्रमण के साथ ही द्वीपवासियों और देशवासियों की शुभकामनायें भी इससे जुडती जा रही हैं और आशा की जानी चाहिए की 3 अक्तूबर, 2010 से दिल्ली में आरंभ होने वाले कामनवेल्थ गेम्स भी ऐतिहासिक होंगें और विश्व-पटल पर भारत को एक नई पहचान देंगें !!
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
कृष्ण कुमार यादव जी को जन्मदिन पर हार्दिक बधाई


रविवार, 1 अगस्त 2010
शनिवार, 31 जुलाई 2010
अग्नि मान
नारी जीवन को कबतक आत्महत्या की काली गर्द में फेंकते रहेंगे
पुरुष और लड़कियों की मानसिकता में बहुत अंतर होता है ! पुरुष अपनी भड़ास को औरतो पर चिल्ला कर निकाल लेता है! क्योंकि उसका काम है औरत के विचारो को दबाना ! पर एक लड़की अपनी सारी भड़ास अपने अन्तःकरण में समा लेती है, और अग्नि की तरह जलती रहती है ! हो सकता है सारे लोग इस विचार से इतफ़ाक रखते हो। पर यदि यह मत गलत होता तो आज के परिवेश में महिला आत्महत्या दर निरन्तर नहीं बढ़ता। आंकड़ों का सत्य कहता है महिला आत्महत्या दर पुरषों की अपेक्षा 10 गुना अधिक है ! यदि आंकड़ों पर द्रष्टि डालें तो देखेंगे की बहार काम करने वाली लड़कियां जो आत्मनिर्भर हैं तथा समाज में उनका अपना मुकाम है और वो अपने जीवन के सारे फैसले स्वयं ले सकती हैं! इसके बावजूद भी उन महिलाओं की आत्महत्या दर अधिक है चाहे वो आम लड़की हो या सेलेब्रिटी जब उन्हें प्यार में धोखा मिलता है तो वो धोखे का आघात बर्दाश्त नही कर पाती है ! तब वे अपने जीवन को समाप्त करना ही एक आसान रास्ता मानती है ! अभी हाल ही में प्रसिद्ध माडॅल विवेका बाबा ने आत्महत्या कर ली , कारण अपने प्रेमी का धोखा और तिरस्कार बर्दाश्त नही कर सकी तो उन्होंने आत्महत्या कर ली वाही मिसइण्डिया रही नफीसा जोसेफ ने भी अपने प्रेमी से धोखा खाकर कुछ समय पूर्व आत्महत्या कर ली थी। ऐसे ही यदि आंकड़ों पे दृष्टि डालें तो देखेंगे की रोजाना कोई न कोई लड़की प्रेम में आघात पाकर अपनी जीवन लीला समाप्त करती जा रही है ! मनोविज्ञानिको का मत्त है ‘आज के परिवेश में जहाँ लोगों को अपने जीवन निर्वहन के लिए अधिक परिश्रम करना पड़ रहा है घर और बाहर अत्यंत मानसिक तनाव झेलना पड़ रहा है वही प्यार में धोखा खाना उनके लिए असहनीय होता है और उनके लिए जीवन समाप्त करना एक आसान उपाय लोगों को दिखता है ’ चाहे कोई औरत पूरी तरह स्वतंत्र या आत्मनिर्भर क्यों न हो प्यार का धोखा उसके लिए असहनीय होता है क्योकि स्त्रियों में संवेदनशीलता एवेम भावुकता अधिक होती है। पुरुषमानसिकता स्त्रियों की मानसिकता से बिलकुल विपरीत होती है! पुरुष का आकर्षण स्त्रियों के शारीरिक सौन्दर्य पर केन्द्रति होता है ! उसका प्रेम शरीर से शुरू होकर उसी शरीर पे समाप्त हो जाता है और वो आसानी से एक को छोड़ कर दूसरे से जुड़ जाता है! उसके लिए प्रेम प्यार की बातें आम होती हैृ! परन्तु एक लड़की किसी भी पुरुष से आत्मा तथा मन से जुडती है और जब उसे आत्मिक आघात होता है , तो वो अघात उसके लिए असहनीय होता है और तब उसके सामने सबसे आसान विकल्प बचता है अपनी जीवन लीला को हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर दें ! स्त्री मानसिकता मतलब समय से पहले अपने आप को उम्र से बड़ा मान लेना ! इसका बड़ा कारण ईश्वरी बेइंसाफी भी है ! एक पुरुष 60 वर्ष की आयु में भी पिता बन सकता है पर एक स्त्री का 3५ से 3७ वर्ष की आयु के बाद उसका माँ बनना कठिन होता है! और आज जहाँ लोग अपना कैरियर बनाने के लिए 30 का आंकड़ा पार कर जाते हैं तो उस उम्र में प्यार में धोखा खाना उनके लिए असहनिय हो जाता ह। और उनका सारा आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है! तब या तो अपनी पूरी उर्जा को इन्साफ की गुहार के लिए लगा देती हैं! तब उन पर दूसरा आघात उनके चरित्र पर होता है जो उनकी आत्मा पर असहनीय प्रहार होता है! क्या किसी ने सोचा है कभी भी महिला हो या लड़की उनमे संवीदनशीलता होती है! क्या वो ऐसे ही मरती जाएँगी ? उन्हें भी जीने का हक्क है ! इन नपुंसक व का-पुरुषों को किसने हक्क दिया है रोज रोज लड़कियों एवम महिलाओं को ऐसे ही मारते जा रहे हैं!
उन्हें किसने हक दिया है कि झूठे प्रेम जाल में फंसाओ और जब सच सामने आता है तो वो इंसान भाग खड़ा हो ता है और जब उसका सच समाज के लोगों और उसके परिजनो व प्रियजनो को बताया जाए तो वे नारी चरित्र पर प्रहार करते है जान से मारने की भी धमकी देते है ! तब लड़की के पास दो रास्ते होते हैं या तो अपने सम्मान के लिए लड़ाई लड़े और अपने चरित्र पर प्रहार करने वाले को सबके सामने लज्जित करे और अपने स्वाभिमान की रक्षा करे। पर मै जानती हूँ की कोई भी लड़की किसी भी परुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती और वो जिस भी पुरुष से अपने इन्साफ की गुहार करेगी वो उसे इन्साफ नहीं दिला सकते क्यूंकि वो भी स्वयं पुरुष है तब लड़की मजबूर हो जाती है क्यूंकि उसका एक कदम उसके माता पिता के नाम पर सवालिया निशाँ लगा देता हैै। उसके लिए तीसरा रास्ता बचता है अपने आपको अनंत अँधेरे में झोंक दे जिसमे वो तिल तिल मरती है पर उसको मरता हुआ कोई नही देख पाता आज मेरा प्रश्न ईश्वर और समाज से है ऐसे नपुंसक पुरुष कब तक नारी जीवन स्वेदना से खेलते रहेंगे और नारी को कब तक आत्महत्या की काली गर्द में फेंकते रहेंगे।
बुधवार, 21 जुलाई 2010
'बाल-दुनिया' हेतु रचनाएँ आमंत्रित

सोमवार, 12 जुलाई 2010
ज्ञान की जर्जर काया

मनु मंजू शुक्ल
।agnijivan.blog.com/">http://www।agnijivan.blog.com/
कल ’शाम की बात है। मै अपनेआप से बात कर रही थी। और जीवन के हजारों तानेबाने बुन रही थी कि अचानक एक कोलाहल सा सुनाई पडा। पकडो-पकडो मारो-मारो का ’शोर सुनकर मै दौडकर दरवाजे पर आ गई। देखा तो स्तम्भ सी देखती ही रह गई। एक जर्जर काया छीड शरीर मानो मृतशरीरढॉचा सा, ना हड्रडी ना रक्त संचार बस नेत्र खुले ले दयनीयभाव, थी आशा दया की नेत्रों मे, मन रो उठा देख यह मायाजाल। आयी दया घर ले आयी।
मैंने पूछा ,“ अय सात्यआत्मा हो कौन क्यों विवश हो धराशाई सी भटक रही हो राहों मे। किसे खोज रही इस भ्रमित समाज के पगचिन्हों में। है कैसी मृगतृष्णा?”
पूछा तो जान पडा, यह है एक सत्य की परछाई, यह तो है, “ ज्ञान की जर्जर काया” लिए अस्थी कंकाल दरदर खोज रहा सत्य’िाक्षा का द्वार।
वो बोली द्र्रवित भाव से , “हे प्राणमित्र कहने को है मंजूसंसार, पर सच पूछो तो अब बन गया भोग का द्वार। हर कोई है ’शिक्षित, पर मूढ अभिमानी ना दया, ना ज्ञान, ना नेत्रों मे लाज, लालच कर रही है हर घर-घर में वास। ममता तो है बस तमस द्वार। ना लाज है श्रंगार में ना दया है अत्मसम्मान पर। है रुधिर का रंग अब नही लाल। कहने को सब है ज्ञानी पर है सच पूर्ण भ्रमित अभिमान। नही स्वंय को स्वंय का ज्ञान। मै तो बस खोजू एक सत्यद्वार। जो सच पूछो वो है एक अतिश्रुक्ति, ना कोई है भाव प्रधान, ना किसी में स्वाभिमान।
इतना कहकर वो ज्ञानछाया खो गयी कोहरे की घुपत राहों में। नेत्रपटल खुले मेरे खोजते रहे उसे अंध राहों को। शायद वो रुक जाती शायद पलठ कर फिर आती शायद वो कुछ और कह पाती पर सच पूछो तो है यह सपना। यहॉ ज्ञानी दर-दर फिर रहे अज्ञानी का होता सतकार । ये जीवन की है सच्ची विडम्बन ना कोई अतिसुक्ति पा कोई अभिप्रेणा।
मेरे भाव
गुरुवार, 8 जुलाई 2010
गणतंत्र दिवस पर बहादुरी पुरस्कार के लिए बच्चों से आवेदन आमंत्रित

उम्मीदवारों के चयन के लिए मुख्य मानदंडों में जीवन के खतरों से मुकाबला करते हुए घायल होना, सामाजिक बुराई अथवा अपराध के खिलाफ बहादुरी तथा साहसिकता, बाल्यकाल में जोखिमपूर्ण कार्य आदि को ध्यान में रखा जाएगा। आवेदन की सिफारिश से पहले प्रत्येक मामले की मौके पर जाँच अनिवार्य होगी। प्रत्येक आवेदन के साथ मामले की जांच रिपोर्ट भी होनी चाहिए। सभी संबंधों में पूर्ण सिफारिश के साथ आवेदन 30 सितम्बर, 2010 तक भारतीय बाल कल्याण परिषद, 4 दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली- 110002 पर पहँचना अनिवार्य है।
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
ये पहेली सुलझाइए

शुक्रवार, 18 जून 2010
छेड़ो तराने...
सूने दिवस थे, सूने रैना,
सूने उर में गहन वेदना,
सूने पल थे सुने नैना,
सूने गात में सुप्त चेतना।
अभिलाषाओं ने करवट ली,
करुणा से पलकें गीलीं ।
छेड़ो तराने आज फिर झूमने का मन कर आया है...
सुप्त भाव थे, सुप्त विराग,
मरु जीवन में सुप्त अनुराग,
तमस विषाद, वंचित रस राग,
नीरव व्यथा, था कैसा अभाग ?
दिग दिगंत आह्लाद निनाद,
दिव्य ज्योति हलचल प्रमाद ।
छेड़ो तराने आज फिर झूमने का मन कर आया है...
मौन क्रंद था, मौन संताप,
मौन पमोद, राग आलाप,
मौन दग्ध दुख मौन प्रलाप,
अंतस्तल में मौन ही व्याप ।
आशा रंजित मंगल संसृति,
हर्षित हृदय, झलक नवज्योति।
छेड़ो तराने आज फिर झूमने का मन कर आया है...
तिमिर टूटा, निद्रा पर्यंत,
सकल वेदना का कर अंत,
पुलकित भाव घनघोर अनंत,
उन्मादित थिरकते पांव बसंत।
स्मृतियां विस्मृत, सजल नयन,
अभिनव परिवर्तन झंकृत जीवन।
छेड़ो तराने आज फिर झूमने का मन कर आया है...
कवि कुलवंत सिंह
रविवार, 6 जून 2010
जाती आधारित जनगणना अनिवार्य
जाति-व्यवस्था भारत की प्राचीन वर्णाश्रम व्यवस्था की ही देन है, जो कालांतर में कर्म से जन्म आधारित हो गई। जब सवर्ण शक्तियों ने महसूस किया कि इस कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था से उनके प्रभुत्व को खतरा पैदा हो सकता है तो उन्होंने इसे परंपराओं में जन्मना घोषित कर दिया। कभी तप करने पर शंबूक का वध तो कभी गुरुदक्षिणा के बहाने एकलव्य का अंगूठा माँगने की साजिश इसी का अंग है। रामराज के नाम पर तुलसीदास की चैपाई-”ढोल, गँंवार, शूद्र, पशु नारी, ये सब ताड़ना के अधिकारी,’ सवर्ण समाज की सांमती मानसिकता का ही द्योतक है। यह मानसिकता आज के दौर में उस समय भी परिलक्षित होती है जब मंडल व आरक्षण के विरोध में कोई एक सवर्ण आत्मदाह कर लेता है और पूरा सवर्णवादी मीडिया इसे इस रुप में प्रचारित करता है मानो कोई्र राष्ट्रीय त्रासदी हो गई है। रातों-रात ऐसे लोगों को हीरो बनाने का प्रोपगंडा रचा जाता है। काश मीडिया की निगाह उन भूख से बिलबिलाते और दम तोड़ते लोगों पर भी जाती, जो कि देश के किसी सुदूर हिस्से में रह रहे हैं और दलित या पिछड़े होने की कीमत चुकाते हैं। दुर्भाग्यवश जिन लोगों ने जाति की आड़ में सदियों तक राज किया आज उन हितों पर चोट पड़ने की आशंका के चलते जाति को ‘राष्ट्रीय शर्म‘ बता रहे हैं एवं जाति आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं। जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा के लिए श्री राम शिव मूर्ति यादव जी द्वारा 'यदुकुल' पर हर सवाल का सिलसिलेवार जवाब दिया गया है. आप भी शामिल हों !!
गुरुवार, 3 जून 2010
सोमवार, 31 मई 2010
बुधवार, 26 मई 2010
जाति आधरित जनगणना क्यूँ???
रविवार, 23 मई 2010
दादी का प्यार
बहुत प्यार करती थी हमको!
रोज सुबह-सुबह जगाकर,
सैर कराती थी हमको !!
कभी नहीं डाटती हमको,
खूब प्यार जताती थी !
घर में सब लोगों को,
प्यार से समझाती थीं !!
विषम परिस्थितियों में भी,
हिम्मत बहुत बढाती थीं !
कभी न हिम्मत हारो तुम,
ऐसा पाठ पढ़ाती थीं !!
(समर्पित दादी माँ)
रविवार, 9 मई 2010
मदर्स डे पर शुभकामनायें !!
बुधवार, 5 मई 2010
गाँधी : नेक्ड एम्बिशन
समझ में नहीं आता है कि विवादस्पद कथनों से सस्ती लोकप्रियता बटोरने वाली किताबें/लेखक क्यों बढ़ते जा रहे हैं ? विदेशी तो विशेषकर हमारे धीरज का इम्तिहान लेते है और वे शायद बर्दाश्त नहीं कर सकते कि हमारे बापू को मानने वालों की संख्या दिनों दिन बढ़ रही है. शायद जेड एडम्स की भी यही मानसिकता रही हो. इन्हें शायद एक बार नए सिरे से गांधी को पढ़ना चाहिए. ऐसा डायना और डोडी अल फय्याद या फिर बिल क्लिंटन जैसे लोग पश्चिम में करते होंगे, यहाँ नहीं. और फिर इस किस्म का घृणास्पद लेखन तो असहनीय है.
मैंने एक बार गांधी जी पर आयोजित अन्तरराष्ट्रीय सेमिनार में भाग लिया था जिसमें फरेद्रेग शिगोवोकी, स्वर्गीय निर्मला देशपांडे, महामहिमप्रतिभा पाटिल जैसी हस्तियों ने गांधी जी पर अपने विचार बांटे थे. इन तीन दिनों में गांधी जी को जानने और समझाने का भरपूर मौका मिला था और गांधीजी के काफी अनछुए पहलू भी जानने का मौका मिला, मगर ऐसा न कहीं पढ़ा और न सुना. फिर पता नहीं किस तरह से और कहाँ से जेड एडम्स ने ये सब जुटाया है.क्या यह खिलवाड़ नहीं हमारे आदर्शों पर. हम गांधी जी के सपनों का भारत कितना तैयार कर पाएं हैं यह अलग से चिंता और चिंतन का विषय है मगर क्या राष्ट्रपिता पर इस तरह कोई कलम चलाये,हमें स्वीकार करना चाहिए?
फ़िलहाल तो यह पुस्तक भारत में नहीं आई है, अगर यहाँ पहुंचती है तो क्या छवि प्रस्तुत होगी ?
ऐसी दुष्प्रवृत्तियों का आप सब अपने अपने स्तर पर विरोध करें. पश्चिमी देश के लोग शायद यह भूल गए हैं कि यह गुलाम भारत नहीं अपितु एक तेजी से बढ़ रहा अमनपरस्त मुल्क है और यह सब अब सहन नहीं होगा .
(जिस अखबार में यह छपा है उसका लिंक गाँधी : नेक्ड एम्बिशन )
जितेन्द्र कुमार सोनी
प्रवक्ता - राजनीति विज्ञान
सोमवार, 3 मई 2010
युवाओं से...

तेरे मजबूत कंधे पर
तू परिवर्तनशील समाज दायरे का
मध्यबिंदु
मीना खोंड, हैदराबाद
शनिवार, 1 मई 2010
मजदूर (विश्व मजदूर दिवस पर)

जब भी देखता हूँ
किसी महल या मंदिर को
ढूँढने लगता हूँ अनायास ही
उसको बनाने वाले का नाम
पुरातत्व विभाग के बोर्ड को
बारीकी से पढ़ता हूँ
टूरिस्टों की तीमारदारी कर रहे
गाइड से पूछता हूँ
आस-पास के लोगों से भी पूछता हूँ
शायद कोई सुराग मिले
पर हमेशा ही मिला
उन शासकों का नाम
जिनके काल में निर्माण हुआ
लेकिन कभी नहीं मिला
उस मजदूर का नाम
जिसने खड़ी की थी
उस मंदिर या महल की नींव
जिसने शासकों की बेगारी कर
इतना भव्य रूप दिया
जिसकी न जाने कितनी पीढ़ियाँ
ऐसे ही जुटी रहीं महल व मंदिर बनाने में
लेकिन मेरा संघर्ष जारी है
किसी ऐसे मंदिर या महल की तलाश में
जिस पर लिखा हो
उस मजदूर का नाम
जिसने दी उसे इतनी भव्यता !!
कृष्ण कुमार यादव/ KK Yadav
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
'युवा-मन' के साथ-साथ 'ताका-झाँकी ब्लॉग' पर भी लिखें..

युवा-मन के साथ-साथ अब आप ताका-झाँकी blog पर भी लिख सकते हैं.कुछ अपरिहार्य कारणों से युवा-मन ब्लॉग को हमने बंद करने की घोषणा की थी, पर तमाम सदस्यों के एतराज पर विचार और भावनात्मक सम्बन्ध के चलते यह पूर्व की भाँति यथावत अपनी रचनाओं से आप सभी को सम्मोहित करता रहेगा.आपकी रचनाओं और अभिव्यक्तियों का स्वागत है. हमसे जुड़ने और सदस्य बनने के लिए amitky86@rediffmail पर संपर्क करें !!
बुधवार, 24 फ़रवरी 2010
सदन के हंगामे को देख खिन्न हुए बच्चे
बिहार विधानसभा की दर्शक दीर्घा में मंगलवार को समानातर लोकतात्रिक संसदीय व्यवस्था के किरदार भी बैठे थे। विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, मंत्री से लेकर नेता प्रतिपक्ष तक। नीचे वेल में बड़ों के हंगामे, उसकी वजह-यानी सभी सब कुछ देख रहे थे। बच्चे जोरदार नारे की हर नई आवाज पर बुरी तरह चौंकते थे। चेहरे पर इकट्ठे ऐसे भाव, मानों कह रहे हों-राम-राम, ये बड़े लोग कर क्या रहे हैं; क्यों ऐसी नौबत आने दी गई? बच्चे, बड़ों के मुतल्लिक बड़ी ही खराब धारणा लेकर लौटे। कहने को ये बाल संसद के चुनिंदे प्रतिभागी थे मगर उनकी बातें .! खुद सुनिए। मुख्यमंत्री आर्या मिश्रा बोल रही हैं-मैं ऐसी स्थिति ही नहीं आने दूंगी। जब ऐसे किसी मसले की गुंजाइश न रहेगी, तो फिर किसी को कुछ बोलने का मौका नहीं मिलेगा। आर्या, मिलर हाईस्कूल में 9वीं कक्षा की छात्रा है मगर उसे व्यवस्था, तंत्र की बखूबी जानकारी है। बोली-कानून व व्यवस्थाओं की कमी नहीं है, संकट उनके अनुपालन का है। मैं डिलीवरी सिस्टम पर पूरा ध्यान दूंगी।
मुख्यमंत्री जी विपक्ष के हंगामे पर बिफर पड़ीं। उनको तो पता भी न चला कि आज आखिर मुद्दा क्या है? कहा-ये कोई तरीका है? समय की बर्बादी है। जनता की गाढ़ी कमाई को बेकार करने की बात है। विपक्ष सरकार का अभिन्न अंग है। उसे अपनी यह भूमिका नहीं भूलनी चाहिये। सदन का मूल मकसद है-जनता के अरमानों का वाहक बनना। इस कदर हंगामे में यह उद्देश्य पूरा होगा? संयोग से आर्या जी को बड़ा ही सकारात्मक नेता प्रतिपक्ष मिला है। जनाब का नाम कासिफ नजीर है। बोले-मैं अपने लोगों [विपक्षी सदस्यों] को कभी भी इस भूमिका में आने न दूंगा। ऐसे समस्या का समाधान थोड़े ही होगा? बातचीत हर मसले का हल है। तथ्य या सबूत के आगे किसी का भी जोर नहीं चल सकता है। हम तथ्यपरक मसले उठाएंगे। इसी के बूते सरकार को घेरेंगे। सरकार कैसे अपने कारनामे छुपा लेगी? हंगामा तो एक मायने में गड़बड़ियों का संरक्षण है। क्रिया-प्रतिक्रिया में आरोपी के संरक्षित रहने का भी खतरा होता है। पीएन एंग्लो हाईस्कूल के 11वीं का यह छात्र विरोध के गाधीवादी तरीके में हाईस्कूल के 11वीं का यह छात्र विरोध के गाधीवादी तरीके में ज्यादा भरोसा रखता है। फिर हम अध्यक्ष जी के पास थे। ये हैं उच्जवल कुमार। उनका दावा है-मैं गार्जियन की भूमिका में रहूंगा। जब दोनों पक्षों का समान उद्देश्य है, तो फिर तकरार की बात कहा से आती है? मंत्रियों तथा विपक्ष के अन्य सदस्यों की भी कमोवेश यही राय। बहरहाल, बच्चे 6 मार्च को अपने राजकाज के गुणों से बड़ों को अवगत करायेंगे। इस दिन विधानसभा एनेक्सी में उनकी संसद बैठेगी।
साभार : जागरण
आकांक्षा यादव
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
महिलाओं ने बदला पानपाट
पानपाट गाँव का 35 वर्षीय युवक ऊदल कभी अपने गांव के पानी संकट को भुला नहीं पाएगा। पानी की कमी के चलते गांव वाले दो-दो, तीन-तीन किमी दूर से बैलगाड़ियों पर ड्रम बांध कर लाते हैं। एक दिन ड्रम उतारते समय पानी से भरा लोहे का (200 लीटर वाला) ड्रम उसके पैर पर गिर गया और उसका दाहिना पैर काटना पड़ा। ऊदल अपाहिज हो गया। हर साल गर्मियों में गांव का पानी संकट उसके जख्म हरे कर जाता। मध्यप्रदेश के अन्य कई गांवों की तरह यह गांव भी आजादी के पहले से ही पानी का संकट साल दर साल भोगने को अभिशप्त है। यहां सरकारी भाषा में कहें तो डार्क जोन (यानी जलस्तर बहुत नीचे) है, हर साल गर्मियों में परिवहन से यहां पानी भेजा जाता है। ताकि यहां के लोग और मवेशी जिन्दा रह सकें। औरतें दो-दो तीन-तीन किमी दूर से सिर पर घड़े उठाकर लाती है। जिन घरों में बैलगाड़ियां हैं, वहाँ एक जोड़ी बैल हर साल गर्मियों में ड्रम खींच-खींचकर ‘डोबा’ (बिना काम का, थका हुआ बैल) हो जाते है। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। नेता और अफसर भी पानी की जगह आश्वासन पिलाकर चले जाते पर समस्या जस की तस बनी रही।
इस समस्या का सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता था औरतों को। आखिर वे ही तो परिवार की रीढ़ हैं। आखिर एक दिन वे खुद उठीं और बदलने चल दीं अपने गांव की किस्मत को गांव के तमाम मर्दों ने उनकी हंसी उड़ाई ‘आखर जो काम सरकार इत्ता साल में नी करी सकी उके ई घाघरा पल्टन करने चली है’ पर साल भर से भी कम समय में ही वे लोग दांतो तले उंगली दबा रहें हैं। इस कथित घाघरा पल्टन ने ही उनके गांव की दशा और दिशा बदल दी है। यह कोई कपोल कल्पित कहानी या अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि हकीकत है। देवास जिले के कन्नौद ब्लॉक के गांव पानपाट की।
इन औरतों के बीच काम करने पहुंची स्वंयसेवी संस्था ‘विभावरी’ ने उनमें वो आत्मविश्वास और संकल्प शक्ति पैदा की कि सदियों से पर्दानशीन मानी जाने वाली ये बंजारा औरतें दहलीजों से निकलकर गेती-फावड़ा उठाकर तालाब खोदने में जुट गईं। दो महीनें मे ही तैयार हो गया इनका तालाब। जैसे-जैसे तालाब का आकार बढ़ता गया इनका उत्साह और हौंसला बढ़ता गया। उन्हें खुशी है कि अब इस गांव में पानी के लिए कोई अपाहिज नहीं होगा और कोई बहन-बेटी पानी के लिए भटकेगी नहीं। सत्तर वर्षीय दादी रेशमीबाई खुद आगे बढ़ीं और फिर तो देखते ही देखते पूरे गांव की औरतें पानी की बात पर एकजुट हो गईं। उन्होंने पानी रोकने की तकनीकें सीखी, समझी और गुनी। पठारी क्षेत्र और नीचे काली चट्टान होने से पानी रोकना या भूजल स्तर बढ़ाना इतना आसान नहीं था। पर ‘पर जहां चाह-वहा राह’ की तर्ज पर विभावरी को राजीव गांधी जलग्रहण मिशन से सहायता मिली।
बात पड़ोसी गांव तक भी पहुंची और वहां की औरतें भी उत्साहित हो उठीं- इस बीमारी की जड़सली (दवाई) पाने के लिए। यहां से शुरुआत हुई पानी आंदोलन की। अनपढ़ और गंवई समझी जाने वाली इन औरतों ने पड़ोसी गांवों की औरतों का दर्द भी समझा। गांव का पानी गांव में ही रोकने के गुर सीखाने निकलीं ये औरतें। बैसाख की तेज गर्मी, चरख धूप और शरीर से चूते पसीने की फिक्र से दूर। नाम दिया जलयात्रा। 20 से 25 मई 2001 तक यह जलयात्रा भाटबड़ली, झिरन्या, टिपरास, नरायणपुरा, निमनपुर, गोला, बांई, जगवाड़, फतहुर जैसे गांवो से गुजरी उद्देश्य यही था कि-जो मंत्र उन्होंने अपनाया वह दूसरे गांव के लोग भी करें।
जलयात्रा के बाद तो इस क्षेत्र में पानी आंदोलन एक सशक्त जन आन्दोलन की तरह उभरा अब तो मर्दों ने भी कंधे से कंधा मिलाकर चलना तय कर लिया। आज क्षेत्र में सेकड़ों जल संरचनाएं दिखाई देती हैं। इससे भविष्य में यह क्षेत्र पानी की जद्दोजहद से दो-चार नहीं होगा। पानी को लेकर शुरु हुआ यह आंदोलन अब पानी से आगे बढ़कर क्षेत्र की समाजार्थिक स्थिति में बदलाव जैसे मुद्दों को भी छू रहा है क्षेत्र में सफाई, स्वास्थ्य, कुरीतियों से निपटने, शिक्षा, पंचायती संस्थाओं में भागीदारी, छोटी बचत व स्वरोजगार से अपनी व पारिवारिक आमदनी बढ़ाने जैसे मुद्दे भी इन औरतों के एजेंडो में शामिल हैं।
पिछले एक साल में यहां इन्होंने तालाब, निजी खेतों में तलईयां, गेबियन स्ट्रक्चर, मैशनरी चेकडेम, लूज बोल्डर श्रृंखलाबद्ध चेकडेम व मेड़बंदी जैसी कई संरचनाएं बनाई हैं। पर इससे महत्वपूर्ण देखने वाली बात यह कि – यहां के समाज में इन सबसे एक विशेष प्रकार का विश्वास और जागरुकता आई। अब ये लोग अपने अधिकारों को लेने के लिए लड़ना सीख गए हैं। ये अब नेताओं और अफसरों के सामने घिघियाते नहीं हैं, बल्कि नजर उठाकर नम्रता के साथ बात करते हैं।
नारायणपुरा में 5वीं कक्षा पास शारदा बाई गांव की ही ड्राप ऑउट 12 बालिकाओं को पढ़ा रही है। इन गांवो में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। निस्तारी पानी के लिए 56 सोख्ता गडढ़े व लगभग दो दर्जन घूड़ों में नाडेप तरीके से खाद बनाई जा रही है। क्षेत्र के युवकों को रोजगारमूलक गतिविधियों से जोड़ा जा रहा है तथा किशोरों, औरतों के लिए लायब्रेरी बनाई गई है। क्षेत्र में लगातार स्वास्थ्य फॉलोअप शिविर लग रहे हैं। इन गांवो के लगभग ढ़ाई सौ साल के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि खुद यहां कि औरतों ने यहां की तस्वीर बदल दी है। इन गांवो में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व आर्थिक बदलाव को आसानी से देखा, समझा जा सकता है। ‘विभावरी’ के सुनील चतूर्वेदी इस पूरे आंदोलन से खासे उत्साहित हैं। वे कहते हैं “एक अनजान धरती पर नकारात्मक माहौल में काम करना आसान नहीं था। व्यवस्था के प्रति पुराना अविश्वास और नेताओं के आश्वासन ने यहां के ग्रामीणों को निराश कर दिया था। पर क्षेत्र की महिलाओं ने हमारे काम को आगे बढ़ाया”। क्षेत्र की औरतों के बीच जुनूनी आत्मविश्वास जगाने वाली विभावरी की एक दुबली-पतली लड़की को देख कर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह वह लड़की है जिसने इन औरतों की जिन्दगी के मायने बदल दिये। सोनल कहती हैं। “गांव में तालाब निर्माण काकाम ही सामाजिक समरूपता का माध्यम बना। मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया मैंने तो सिर्फ उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराया।
झिरन्या के बाबूलाल कहते हैं हम तो इन्हें भी रुपया खाने वाले सरकारी आदमी समझते थे पर इन्होंने तो हमारी सात पुश्तें (पीढ़ियां) तारने जैसे काम कर दिया। काली बाई बताती हैं कि अब उनके काम को सामाजिक मान्यता मिल गई है। देवास, इन्दौर भोपाल तक के लोग उनके काम को देखने व बात करने आ रहे हैं। इससे बड़ी खुशी की बात हमारे लिए क्या हो सकती है?
लेखक: मनीष वैद्य